ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 1/ मन्त्र 2
स जा॒तो गर्भो॑ असि॒ रोद॑स्यो॒रग्ने॒ चारु॒र्विभृ॑त॒ ओष॑धीषु । चि॒त्रः शिशु॒: परि॒ तमां॑स्य॒क्तून्प्र मा॒तृभ्यो॒ अधि॒ कनि॑क्रदद्गाः ॥
स्वर सहित पद पाठसः । जा॒तः । गर्भः॑ । अ॒सि॒ । रोद॑स्योः । अग्ने॑ । चारुः॑ । विऽभृ॑तः । ओष॑धीषु । चि॒त्रः । शिशुः॑ । परि॑ । तमां॑सि । अ॒क्तून् । प्र । मा॒तृऽभ्यः॑ । अधि॑ । कनि॑क्रदत् । गाः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
स जातो गर्भो असि रोदस्योरग्ने चारुर्विभृत ओषधीषु । चित्रः शिशु: परि तमांस्यक्तून्प्र मातृभ्यो अधि कनिक्रदद्गाः ॥
स्वर रहित पद पाठसः । जातः । गर्भः । असि । रोदस्योः । अग्ने । चारुः । विऽभृतः । ओषधीषु । चित्रः । शिशुः । परि । तमांसि । अक्तून् । प्र । मातृऽभ्यः । अधि । कनिक्रदत् । गाः ॥ १०.१.२
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 29; मन्त्र » 2
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अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 29; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (1)
पदार्थ
(रोदस्योः-गर्भः) द्युलोक और पृथिवीलोक का गर्भ-गर्भसमान मध्य में वर्त्तमान अथवा उनका तथा उनके ऊपर स्थित पदार्थों का वर्णन करनेवाला-प्रकट करनेवाला (सः-जातः-असि) वह तू सूर्य दृष्टिपथ में आया होता है (ओषधीषु) तेरे ओष-ताप को पीनेवाली पृथिवियों पर तथा उन पर स्थित ओषधियों में (विभृतः) विशेषरूप से प्रविष्ट हुआ (चारुः) चरणीय-भोजन पाक होम आदि कार्यों में सेवनीय (अग्ने) अग्नि नाम से पार्थिव अग्नि ! तू कहा जाता है (चित्रः शिशुः) दर्शनीय तथा प्रशंसनीय है (मातृभ्यः-अधि) जब पृथिवियों पर (गाः प्रकनिक्रदत्) अपनी किरणों-ज्वालाओं को प्रेरित करता हुआ (तमांसि-अक्तून् परि) अग्निरूप से अन्धकारों को परे भगाता है और सूर्यरूप से रात्रियों को परे हटाता है ॥२॥
भावार्थ
पृथिवलोक और द्युलोक का गर्भ-गर्भसमान मध्य में रहनेवाला तथा उनका और उन पर स्थित पदार्थों को दर्शाने-बतानेवाला सूर्य है। पृथिवी पर से अग्निरूप से अन्धकारों को दूर भगाता है, सूर्यरूप से रात्रियों को परे हटाता है। ऐसे हे विद्यासूर्य विद्वान् ! मानवसमाज एवं प्रत्येक गृह में प्रवचन कर अज्ञानान्धाकर-अविद्यारात्रि को भगाकर सावधान करें ॥२॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(रोदस्योः-गर्भः) द्यावापृथिव्योः “रोदसी द्यावापृथिवीनाम” [निघ०-३।३०] गर्भभूतो गर्भ इव मध्ये वर्तमानो यद्वा तयोस्तत्रस्थपदार्थानां शब्दयिता वर्णयिता प्रकटयिता, “गर्भ गृभेर्गृणात्यर्थे” [निरु० १०।२३] (सः-जातः-असि) स त्वं सूर्यः प्रसिद्धः सर्वैः साक्षाद् दृष्टिपथमागतो भवसि (ओषधीषु) ओषं तवौष्ण्यं धयन्तीषु पृथिवीषु “जगत्य ओषधयः” [श० १।२।२।२] “इयं पृथिवी वै जगती” [श० १२।८।२।२०] तत्रस्थासु खल्वोषधिषु च (विभृतः) विशेषेण धृतः सन् (चारुः) चरणीयः-भोजनपाकहोमकार्येषु सेवनीयः “चारुः चरतेः” [निरु० ८।१४] (अग्ने) अग्निः ‘व्यत्ययेन सम्बुद्धिः’ पार्थिवोऽग्निरुच्यते स सूर्यः (चित्रः शिशुः) चायनीयो दशनीयः प्रशंसनीयश्च “शिशुः शंसनीयो भवति” [निरु० १०।३९] (मातृभ्यः-अधिगाः प्रकनिक्रदत्) यदा पृथिवीषु “नमो मात्रे पृथिव्यै” [जै० १।१२९] “इयं पृथिवी वै माता” [श० १३।१।६।१] रश्मीन् “सर्वे रश्मयो गाव उच्यन्ते” [निरु० २।८] भृशं प्रगमयन् प्रेरयन् “कनिक्रदत् गच्छन्” [यजु० ११।४३। दयानन्दः] (तमांसि-अक्तून् परि) अग्निरूपेणान्धकारान् पर्यस्यसि सूर्यरूपेण रात्रीः परिक्षिपसि ॥२॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Agni, born of the womb of earth and heaven covered in darkness over night, you are beautiful, lovely as a child and wonderful, and as you rise over night and darkness, you radiate your rays over mother heaven and earth proclaiming them bright, and immediately you are received and held over them in the herbs and trees for life.
मराठी (1)
भावार्थ
सूर्य व पृथ्वीलोक व द्युलोकाचा गर्भ असल्याप्रमाणे, गर्भाप्रमाणे मध्ये राहणारा व त्यांच्यावर स्थित असलेल्या पदार्थांना दृश्यमान करणारा आहे. पृथ्वीवरून अंधकार दूर करणारा व रात्र दूर सारणारा सूर्यच आहे. अशाच प्रकारे विद्यासूर्य विद्वानाने मानव समाज व प्रत्येक गृहात उपदेश करून अज्ञानांधकार-अविद्यारूपी रात्रीला दूर करून सावधान करावे. ॥२॥
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