ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 1/ मन्त्र 3
विष्णु॑रि॒त्था प॑र॒मम॑स्य वि॒द्वाञ्जा॒तो बृ॒हन्न॒भि पा॑ति तृ॒तीय॑म् । आ॒सा यद॑स्य॒ पयो॒ अक्र॑त॒ स्वं सचे॑तसो अ॒भ्य॑र्च॒न्त्यत्र॑ ॥
स्वर सहित पद पाठविष्णुः॑ । इ॒त्था । प॒र॒मम् । अ॒स्य॒ । वि॒द्वान् । जा॒तः । बृ॒हन् । अ॒भि । पा॒ति॒ । तृ॒तीय॑म् । आ॒सा । यत् । अ॒स्य॒ । पयः॑ । अक्र॑त । स्वम् । सऽचे॑तसः । अ॒भि । अ॒र्च॒न्ति॒ । अत्र॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
विष्णुरित्था परममस्य विद्वाञ्जातो बृहन्नभि पाति तृतीयम् । आसा यदस्य पयो अक्रत स्वं सचेतसो अभ्यर्चन्त्यत्र ॥
स्वर रहित पद पाठविष्णुः । इत्था । परमम् । अस्य । विद्वान् । जातः । बृहन् । अभि । पाति । तृतीयम् । आसा । यत् । अस्य । पयः । अक्रत । स्वम् । सऽचेतसः । अभि । अर्चन्ति । अत्र ॥ १०.१.३
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 29; मन्त्र » 3
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अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 29; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(इत्था) ऐसे (अस्य) इस सूर्य के (परमं तृतीयम्) परे वर्त्तमान द्युलोक को (विद्वान् बृहन् विष्णुः-जातः-अभिपाति) जानता हुआ महान् व्यापक परमात्मा पूर्व से प्रसिद्ध हुआ वहाँ द्युलोक में इस सूर्य का सर्वतोभाव से रक्षण करता है (अस्य-आसा) इस व्यापक परमात्मा के मुखभूत-प्रमुखद्योतक सूर्य के द्वारा (यत् पयः स्वम्-अक्रत) जिस ज्ञानरस को जो स्वकीय बनाते हैं-आत्मसात् करते हैं, (अत्र सचेतसः-अभ्यर्चन्ति) वे प्रज्ञावान् विद्वान् उस ज्ञान के दाता व्यापक परमात्मा की इस अपने जन्म में सम्यक् स्तुति करते हैं ॥३॥
भावार्थ
द्युलोक में सूर्य को सम्भालनेवाला महान् व्यापक परमात्मा है, विद्वान् जन उस परमात्मा की स्तुति कर उससे अध्यात्मरस अपने अन्दर आत्मसात् करें तथा विद्यासूर्य विद्वान् अपने ऊँचे ज्ञानपीठ से विराजमान हुए परमात्मा से प्राप्त वेद-ज्ञान का ज्ञानरस देकर जनमात्र को परमात्मा के उपासक बनावें ॥३॥
विषय
स्व-अर्चन
पदार्थ
(इत्था) = इस प्रकार से, अर्थात् उपरले मन्त्रों में वर्णित प्रकार से जीवन बिताने पर यह त्रित (विष्णुः) = व्यापक उन्नतिवाला होता है [विष् व्याप्तौ], 'शरीर, मन व बुद्धि' सभी का विकास करता हुआ यह तीन कदमों को रखनेवाला त्रिविक्रम विष्णु होता है । यह (अस्य) = इस त्रित का (परमं) = सर्वोत्कृष्ट विकास होता है। यह विद्वान् ज्ञानी तो बनता ही है, (जातः) = सब शक्तियों का विकास करता हुआ [जन्= प्रादुर्भावे ] यह (बृहत् तृतीयम्) = उस महान् तृतीय धाम को (अभिपाति) = जीवन में या जीवन के पश्चात् दोनों ओर सुरक्षित करता है। 'तृतीये धामन् अध्यैरयन्त'-देव लोग तृतीय धाम में विचरते हैं। 'प्राकृतिक भोगों से ऊपर उठना' ही प्रकृति के घर से बाहर आ जाना है 'लोकैषणा, वित्तैषणा, पुत्रैषणा' से ऊपर उठ जाना ही 'जीव' से ऊपर उठना है। यह 'वित्त लोक व पुत्र' की इच्छाओं से ऊपर उठा हुआ पुरुष तृतीय धाम 'प्रभु' में विचरता है। इस जीवन में ही यह जीवन्मुक्त व ब्रह्मनिष्ठ हो जाता है और मृत्यु के बाद तो परामुक्ति को प्राप्त करके यह ब्रह्म में विचरता ही है। यही तृतीय धाम का अभिरक्षण है। यह वह स्थिति होती है (यद्) = जब कि (अस्य) = इसके आसा मुख से (पयः) = दूध अर्थात् दूध के समान मधुर शब्द (अक्रत) = निष्पन्न किये जाते हैं । यह मधुर ही शब्द बोलता है, 'गोसनिं वाचम् उदेयम्' इस प्रार्थना को यह जीवन में पूर्णतः अनूदित करता है कि गोदुग्ध की तरह मधुर ही वाणी को मैं बोलूँ। जीवन को ऐसा बनाने के उद्देश्य से ही (सचेतसः) = समझदार लोग (अत्र) = इस मानव जीवन में (स्वम्) = आत्मा को अर्थात् आत्मभूत इस परमात्मतत्त्व को (अभ्यर्चन्ति) = दिन-रात पूजित करते हैं। सदा उस प्रभु का स्मरण करते हैं। यह प्रभुस्मरण ही उनके जीवनों को मधुर बनाये रखता है। प्रभु का उपासक सब प्राणियों में समवस्थित उस प्रभु का दर्शन करता है और सभी के प्रति प्रेम वाला होता है । इसे सब के साथ बन्धुत्व का अनुभव होता है, और यह एकत्व दर्शन ही इसे घृणा से ऊपर उठाकर प्रेमपूर्ण कर देता है। =
भावार्थ
भावार्थ - हम व्यापक उन्नति करनेवाले हों, विद्वान् व विकसित शक्तियों वाले होकर प्रभुरूप तृतीय धाम में विचरें। हमारे मुख से दुग्धसम मधुर शब्द निकलें और हम समझदार बनकर प्रभु का पूजन करनेवाले हों। प्रभु पूजन को छोड़ प्रकृति में आसक्त हो जाना ही मूर्खता है ।
विषय
सूर्य के तृतीय आकाशवत् ज्ञानी का तृतीय आश्रम का सेवन और ज्ञान-प्रसार। अध्यापन का कर्त्तव्य।
भावार्थ
(इत्था) इस प्रकार (विष्णुः) व्यापनशील, विद्याओं के पारंगत, विविध विद्याओं में निष्णात होकर (अस्य परमं विद्वान्) इस लोक के परम श्रेष्ठ पद को प्राप्त करता हुआ, (बृहन् जातः) बड़ा होकर (तृतीयम् अभि पाति) सूर्य जिस प्रकार तीसरे लोक ‘द्यौ’ को पालता है उसी प्रकार वह (तृतीयम् अभिपाति) तीसरे आश्रम को पालन करता है । (यत्) जो (सचेतसः) समान चित्त होकर (अस्य आसा) इसके मुख से (पयः) अपने दुग्धवत् ज्ञान को (अक्रत) प्राप्त करते हैं वे (अत्र) उसको (स्वं) अपना जानकर (अभि अर्चन्ति) पूजा करते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
त्रित ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्द:-१, ६ पादनिचृत्त्रिष्टुप्। २, ३ विराट् त्रिष्टुप्। ४, ५ निचृत्त्रिष्टुप्। ७ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्॥ सप्तर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(इत्था) इत्थम्भूतस्य (अस्य) सूर्यस्य (परमं तृतीयम्) परे भवं तृतीयं लोकं द्युलोकम् (विद्वान् बृहन् विष्णुः-जातः-अभिपाति) जानन् सन् महान् व्यापकः परमात्मा पूर्वतः प्रसिद्धस्तत्र तं परिरक्षति “योऽसावादित्ये पुरुषः सोऽसावहम्, ओ३म् खं ब्रह्म” [यजु० ४०।१७] (अस्य-आसा) अस्य विष्णोः परमात्मन आस्येन मुखेन मुखभूतेन प्रमुखतया द्योतकेन सूर्य्येण (यत् पयः स्वम्-अक्रत) यं ज्ञानरसं “रसो वै पयः” [श० ४।४।४।८] ये स्वीकुर्वन्ति आत्मसात्कुर्वन्ति (अत्र सचेतसः-अभ्यर्चन्ति) ते प्रज्ञावन्तो विद्वांसस्तज्ज्ञानप्रदं विष्णुं परमात्मानमस्मिन् स्वस्मिन् जीवने सम्यक् स्तुवन्ति ॥३॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Omnipresent Agni, Vishnu, thus risen as the sun, attains to its third and supreme state of the expansive light of infinite divinity which it radiates, protects and promotes. Those wide-awake sages who receive this divine light energy through direct presence and internalise it celebrate it in song and worship it as the nectar gift of divinity here on earth.
मराठी (1)
भावार्थ
महान व्यापक परमात्मा द्युलोकात सूर्याचा संरक्षक आहे. विद्वान लोकांनी त्या परमात्म्याची स्तुती करून त्याच्याकडून अध्यात्मरस आपल्यात आत्मसात करावा व विद्यासूर्य विद्वानांनी आपल्या उच्च ज्ञानपीठावर विराजमान झालेल्या परमात्म्याकडून प्राप्त झालेल्या वेदज्ञानाचा ज्ञानरस देऊन सर्व लोकांना परमात्म्याचे उपासक बनवावे. ॥३॥
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