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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 1 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 1/ मन्त्र 4
    ऋषिः - त्रितः देवता - अग्निः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अत॑ उ त्वा पितु॒भृतो॒ जनि॑त्रीरन्ना॒वृधं॒ प्रति॑ चर॒न्त्यन्नै॑: । ता ईं॒ प्रत्ये॑षि॒ पुन॑र॒न्यरू॑पा॒ असि॒ त्वं वि॒क्षु मानु॑षीषु॒ होता॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अतः॑ । ऊँ॒ इति॑ । त्वा॒ । पि॒तु॒ऽभृतः॑ । जनि॑त्रीः । अ॒न्न॒ऽवृध॑म् । प्रति॑ । च॒र॒न्ति॒ । अन्नैः॑ । ताः । ई॒म् । प्रति॑ । ए॒षि॒ । पुनः॑ । अ॒न्यऽरू॑पाः । असि॑ । त्वम् । वि॒क्षु । मानु॑षीषु । होता॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अत उ त्वा पितुभृतो जनित्रीरन्नावृधं प्रति चरन्त्यन्नै: । ता ईं प्रत्येषि पुनरन्यरूपा असि त्वं विक्षु मानुषीषु होता ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अतः । ऊँ इति । त्वा । पितुऽभृतः । जनित्रीः । अन्नऽवृधम् । प्रति । चरन्ति । अन्नैः । ताः । ईम् । प्रति । एषि । पुनः । अन्यऽरूपाः । असि । त्वम् । विक्षु । मानुषीषु । होता ॥ १०.१.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 1; मन्त्र » 4
    अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 29; मन्त्र » 4
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (अतः-उ) अतएव (अन्नावृधं त्वा) अन्नवर्धक तुझ सूर्य को (पितुभृतः-जनित्रीः-अन्नैः) अन्न को धारण करनेवाली और जीवन-पोषण देनेवाली ओषधियाँ (प्रतिचरन्ति) तुझ सूर्य को अपने अन्दर धारण करती हैं; तेरे बिना वे अन्न धारण नहीं कर सकतीं, न प्राणियों को प्रादुभूर्त कर सकतीं तथा न जीवन-पोषण दे सकती हैं (पुनः-ईम्) पश्चात् ही (ताः-अन्यरूपाः प्रत्येषि) उन अन्यरूप हुई-सुखी हुई ओषधियों को तू पार्थिव अग्नि होकर प्राप्त होता है (मानुषीषु विक्षु होता-भवसि) यतः मानव प्रजाओं के निमित्त उनके भोजन पाक होम आदि अभीष्ट कार्य का सम्पादन करनेवाला होता है-बनता है ॥४॥

    भावार्थ

    सूर्य ओषधियों में अन्न धारण करता है, प्राणियों के लिये उनमें जीवन-पोषण शक्ति देता है। पुनः पकी-सूखी हो जाने पर पार्थिव अग्नि के रूप में होकर उन्हें जला देता है, जो मनुष्यों के लिये भोजन होम आदि अभीष्ट कार्य का साधक बनता है। विद्यासूर्य विद्वान् अपने ज्ञानोपदेश से ओषधियों को फलने, रक्षण करने और प्राणियों को उनके सेवन से स्वस्थ रहने तथा दीर्घ जीवन तक पुष्टि प्राप्त करने के लिये समर्थ बनावें ॥४॥

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    विषय

    'योगक्षेमावह' हरि

    पदार्थ

    (अतः उ) = इसलिए ही, क्योंकि गतमन्त्र के अनुसार तेरे मुख से सदा दुग्ध के समान आप्यायन [वर्धन] करनेवाले मधुर ही शब्द निकलते हैं, सो (त्वा) = तुझे (पितुभृतः) = अन्नों का धारण करनेवाले (जनित्री:) = अन्नों को उत्पन्न करनेवाले अथवा माता के समान अन्नों से दूसरों का पालन करनेवाले उत्तम वैश्य लोग (अन्नैः) = अन्नों से प्रतिचरन्ति सेवित करते हैं। वे तेरे लिये सब आश्वयक अन्नों की भेंटों को प्राप्त कराते हैं। वस्तुतः वे तो तुझे ही ('अन्नावृधम्') = अन्नों का वर्धन करनेवाला जानते हैं। वे यह समझते हैं कि-'न वर्षं मैत्रावरुणं ब्रह्मज्यमभिवर्षति' जिस राष्ट्र में इन ब्रह्मनिष्ठ पुरुषों का निरादर होता है वहाँ यह मित्रवरुण देवता सम्बन्धी पर्जन्य वर्षा को नहीं करता है। हे प्रभो ! आप (ताः प्रति) = इन अत्यन्त मधुर भाषण करनेवाली प्रजाओं के प्रति (ईम्) = निश्चय से (एषि) = आते हो। और (पुनः) = फिर आपके आने से ये प्रजाएँ (अन्यरूपा) = विलक्षण ही रूप वाली हो जाती हैं। ये सामान्य लोगों से अत्यन्त भिन्न प्रतीत होते हैं। इनका सामान्य पुरुषों के लिये अत्यन्त विस्मयकारक होता है, वे इन्हें अतिमानव महापुरुष व प्रभु का अवतार ही कहने लगते हैं। हे प्रभो ! (त्वं) = आप इन (मानुषीषु विक्षु) = मानुष-विचारपूर्वक कर्म करनेवाली, दया की वृत्ति वाली प्रजाओं में (होता) = सब आवश्यक पदार्थों के देनेवाले (असि) = हैं । अर्थात् ऐसे पुरुषों का योगक्षेम आप ही चलाते हैं। वस्तुतः सज्जन धनियों के हृदय में प्रेरणा को पैदा करके आप इनकी सब आवश्यकताओं का उनके द्वारा पूरण कराते रहते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ - लोकहित में लगे हुए पुरुषों का योगक्षेम प्रभु उक्त धनिकों के द्वारा कराते रहते हैं ।

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    विषय

    काष्ठाग्निवत् राजा का वर्धन।

    भावार्थ

    जिस प्रकार (जनित्रीः) अग्नि के उत्पादक काष्ठ ही उसको अन्नवत् काष्ठों से बढ़ाते हैं वह (अन्यरूपाः प्रति एति) शुष्क हुए उनको भस्म कर देता है, उसी प्रकार हे (अग्ने) तेजस्विन् ! (पितुभृतः) अन्नादिपालक साधनों को धारण करने वाली प्रजाएं (अन्नावृधं त्वा) अन्न से बढ़ने वाले शिशु के सदृश तुझ को नाना (अन्नैः प्रति चरन्ति) अन्नों, भोग्य ऐश्वर्यों से सेवा करते हैं। (पुनः) और तू (अन्य रूपाः) शत्रुरूप हुई, शुष्क स्नेहरहित उनको (प्रति एषि) विपरीत होकर प्राप्त होता है, उनको निर्मूल करता है और तू (मानुषीषु विक्षु) मानुष प्रजाओं में (होता असि) सबको सुखों का दाता और कष्टादि का ग्रहण कर्त्ता होता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    त्रित ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्द:-१, ६ पादनिचृत्त्रिष्टुप्। २, ३ विराट् त्रिष्टुप्। ४, ५ निचृत्त्रिष्टुप्। ७ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्॥ सप्तर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (अतः-उ) अत एव (अन्नावृधं त्वा) अन्नवर्धकं बृहन्तमग्निं त्वां सूर्यम् (पितुभृतः-जनित्रीः-अन्नैः) ओषधयोऽन्नं धारयित्र्यः “पितुः अन्ननाम” [निघं० २।७] जनयित्र्यश्च प्राणिनां प्रादुर्भावयित्र्यः पोषयित्र्योऽन्नैः, यान्यन्नानि धारयन्ति तैरेवेत्यर्थः (प्रतिचरन्ति) त्वां सूर्यं स्वस्मिन् धारयन्ति, न हि त्वया विना ता अन्नं धारयितुं शक्ता न च प्राणिपोषणे समर्था भवन्ति (पुनः-ईम्) पुनः खलु (ताः-अन्यरूपाः प्रत्येषि) ताः शुष्का ओषधीः पार्थिवोऽग्निर्भूत्वा प्राप्तो भवसि (मानुषीषु विक्षु होता-असि) मानवीयप्रजासु तदर्थं भोजनपाकहोमाद्यभीष्टकार्यस्य सम्पादयिता भवसि ॥४॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    And you, Agni, who bear and augment the food for life, life creative and food productive agents of nature and humanity, bearing food for you, serve you in response to you, and as they feed you, you reach them again while they are in different form, and thus you are the leading power in the yajnic cycle of life among nature and the human people and communities.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    सूर्य औषधींमध्ये अन्न धारण करतो. प्राण्यांसाठी त्यांच्यात जीवन पोषण शक्ती देतो. पुन्हा पिकल्यावर, सुकल्यावर पार्थिव अग्नीच्या रूपात त्यांचे दहन करतो. माणसांसाठी भोजन, होम इत्यादी अभीष्ट कार्याचा साधक बनतो. विद्यासूर्य विद्वानांनी आपल्या ज्ञानोपदेशाने औषधी परिपक्व होण्यासाठी, रक्षण करण्यासाठी व प्राण्यांना त्यांच्या सेवनाने स्वस्थ राहण्यासाठी, दीर्घजीवनापर्यंत निरोगी राहण्यासाठी समर्थ बनवावे. ॥४॥

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