ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 1/ मन्त्र 7
आ हि द्यावा॑पृथि॒वी अ॑ग्न उ॒भे सदा॑ पु॒त्रो न मा॒तरा॑ त॒तन्थ॑ । प्र या॒ह्यच्छो॑श॒तो य॑वि॒ष्ठाथा व॑ह सहस्ये॒ह दे॒वान् ॥
स्वर सहित पद पाठआ । हि । द्यावा॑पृथि॒वी इति॑ । अ॒ग्ने॒ । उ॒भे इति॑ । सदा॑ । पु॒त्रः । न । मा॒तरा॑ । त॒तन्थ॑ । प्र । या॒हि॒ । अच्छ॑ । उ॒श॒तः । य॒वि॒ष्ठ॒ । अथ॑ । आ । व॒ह॒ । स॒ह॒स्य॒ । इ॒ह । दे॒वान् ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ हि द्यावापृथिवी अग्न उभे सदा पुत्रो न मातरा ततन्थ । प्र याह्यच्छोशतो यविष्ठाथा वह सहस्येह देवान् ॥
स्वर रहित पद पाठआ । हि । द्यावापृथिवी इति । अग्ने । उभे इति । सदा । पुत्रः । न । मातरा । ततन्थ । प्र । याहि । अच्छ । उशतः । यविष्ठ । अथ । आ । वह । सहस्य । इह । देवान् ॥ १०.१.७
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 1; मन्त्र » 7
अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 29; मन्त्र » 7
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अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 29; मन्त्र » 7
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(यविष्ठ सहस्य-अग्ने) हे युवतम ! तीनों लोकों के साथ अतिशय से संयुक्त होनेवाले ! द्युलोक में सूर्यरूप से तथा अन्तरिक्ष में विद्युद्रूप से वर्त्तमान ! सहस्य ! सह-सामर्थ्य आकर्षणवाले प्रदर्शन में साधु, पृथिवी पर सब कार्यों का अग्रणी अग्नि ! (उभे द्यावापृथिवी) दोनों-द्युलोक पृथिवीलोक को (सदा हि-आ ततन्थ) सर्वदा ही सूर्यरूप हुआ अपने प्रकाश से प्रकाशित करता है (पुत्रः-न मातरा) जैसे कि मातापिताओं को पुत्र अपने गुणाचरणों द्वारा प्रकाशित करता है-प्रसिद्ध करता है। (उशतः अच्छ प्रयाहि) तुझे चाहनेवाले हम लोगों को साधुरूप से प्राप्त हो-होता है (इह देवान्-आवह) यहाँ हमारी ओर अपनी किरणों को प्राप्त करता-प्रेरित करता है ॥७॥
भावार्थ
सूर्य महान् अग्नि है, वह तीनों लोकों से संयुक्त होता है, द्युलोक में साक्षात् सूर्यरूप से, अन्तरिक्ष में विद्युद्रूप से और पृथिवी पर अग्निरूप से प्रसिद्ध होता है। सूर्य के प्रकाश का जीवन में उपयोग लेना चाहिये। विद्यासूर्य विद्वान् केवल अपने वंश या स्थान में ही ज्ञान का प्रकाश नही करते, किन्तु राष्ट्रभर में अपितु पृथिवीभर में करते हैं ॥७॥
विषय
द्यावापृथिवी का विस्तार
पदार्थ
प्रभु जीव से कहते हैं कि हे अग्ने प्रगतिशील जीव ! तू (हि) = निश्चय से (उभे) = इन दोनों द्यावापृथिवी = मस्तिष्क रूप द्युलोक तथा शरीर रूप पृथिवी को (सदा) = सदा (आततन्थ) = सब प्रकार से विस्तृत करता है, उसी प्रकार (न) = जैसे कि (पुत्रः) = एक पुत्र (मातरा) = अपने माता-पिता के यश को विस्तृत करता है उसी प्रकार प्रस्तुत मन्त्र का ऋषि त्रित भी अपने मस्तिष्क व शरीर की शक्तियों को फैलानेवाला होता है। यहाँ 'द्यौ पिता, पृथिवी माता' इन शब्दों के अनुसार द्युलोक पिता है और पृथिवीलोक माता है। हमें मस्तिष्क ही उज्ज्वलता तथा शरीर की दृढ़ता से इन्हें यशस्वी बनाना है । हे (यविष्ठ) = बुराई को अपने से दूर करनेवाले तथा अच्छाई को अपने साथ संगत करनेवाले जीव ! तू (उशतः) = तेरा हित चाहनेवाले इन देवों के प्रति तू (प्रयाहि) = प्रकर्षेण आनेवाला बन । (अथ) = और हे (सहस्य) = सहस् में उत्तम अर्थात् उत्तम सहनशक्ति वाले जीव तू (इह) = इस जीवन में (देवान्) = दिव्यगुणों को (आवह) = सब प्रकार से प्राप्त करा । देवताओं के सम्पर्क में आने से बुराई दूर होकर अच्छाई के साथ हमारा मेल होता है, हम 'यविष्ठ' बनते हैं हमारी क्रोध आदि की वृत्ति दूर होकर हमारे में सहन की वृत्ति पैदा होती है। हम 'सहस्य' बनते हैं। यह सहस्य बनना ही वस्तुतः धर्म मार्ग में अग्रसर होने का चिह्न है । देव लोग कभी हमें कुछ कटु प्रतीत होनेवाली बात कहते भी हैं तो वह हमारे हित की भावना से ही कही जाती है, सो हमें उसे सहना ही चाहिए।
भावार्थ
भावार्थ- हम मस्तिष्क व शरीर दोनों का विकास करें। देवों की ओर जाते हुए जीवन में दिव्यगुणों को बढ़ायें। सूक्त का प्रारम्भ त्रित के जीवन के चित्रण से होता है। यह त्रित प्रातः उठता है। भ्रमण के बाद स्वाधाय में लगता है दिनभर ज्ञानपूर्वक क्रियाओं को करता हुआ अपने सब कोशों की न्यूनता को दूर करता है। [१] वह ज्ञान व स्वास्थ्य का सम्पादन करता है, ओषधियों पर ही शरीर का पोषण करता है। ज्ञानी व तीव्र बुद्धि बनकर ज्ञानरश्मियों को प्राप्त करता है । [२] व्यापक उन्नतिवाला बनकर मोक्षरूप [ब्रह्मस्थिति] तृतीय धाम में विचरता है, मधुर ही शब्द बोलता है और समझदार होकर प्रभु का अर्चन करता है । [३] ये जहाँ जाता है वहाँ सदा सुकाल रहता है और लोग इसे अन्न की भेंट प्राप्त कराते हैं। [४] यह शरीर रूप वस्त्र को शुद्ध रखता है, यज्ञमय जीवनवाला होता है, अपने साथ दिव्यगुणों को संगत करता है। [६] शरीर व मस्तिष्क दोनों की ही शक्ति का विस्तार करता है। [७] द्वितीय सूक्त में भी इसी त्रित के जीवन का चित्रण करते हुए कहते हैं कि-
विषय
राजा का पुत्रवत् पालन का कर्त्तव्य। अध्यात्म में अग्नि आत्मा वा प्रभु।
भावार्थ
हे (अग्ने) तेजस्विन् ! प्रतापशालिन् ! राजन् ! विद्वन् ! सूर्यवत् तू (द्यावापृथिवी उभे हि) सूर्य और भूमि के समान मूर्धन्य शासक जन और आश्रित भूमिवासी प्रजाजन दोनों को तू (मातरा पुत्रः न) माता पिताओं को पुत्र के समान (सदा आततन्थ) सदा वृद्धि कर, उनको बढ़ा। हे (यविष्ठ) बलशालिन् ! हे (सहस्य) शत्रुपराजयकारिन् ! (अथ) और तू (उशतः देवान्) कामनावान् तेजस्वी विद्वान् पुरुषों को (प्र याहि) प्राप्त हो और (इह आ वह) इस राष्ट्र में अपने ऊपर धारण कर, उनको मान आदर से रख। (२) अध्यात्म में—यह अग्नि आत्मा वा प्रभु है जो सूर्य के समान स्वप्रकाश और सर्वोपरि लोक में विद्यमान है। इत्येकोनविंशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
त्रित ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्द:-१, ६ पादनिचृत्त्रिष्टुप्। २, ३ विराट् त्रिष्टुप्। ४, ५ निचृत्त्रिष्टुप्। ७ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्॥ सप्तर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(यविष्ठ सहस्य-अग्ने) हे युवतम ! लोकत्रयेण सहातिशयेन यौति मिश्रयति संयुक्तो भवति यः स यविष्ठः, तथाभूत ! दिवि सूर्यरूपेण, अन्तरिक्षे च विद्युद्रूपेण वर्त्तमान सहस्य ! सहसि सामर्थ्ये-आकर्षणे साधुर्यस्तत्सम्बुद्धौ सहस्य “सहसा सामर्थ्येनाकर्षणेन वा” [ऋ० १।५१।१। दयानन्दः] पृथिव्यां सर्वकार्याणामग्रणीभूतस्तथाभूत त्वमग्ने बृहन्नग्ने ! (उभे द्यावापृथिवी) उभौ द्युलोकपृथिवीलोकौ (सदा हि-आततन्थ) सर्वदैव सूर्यरूपः सन् स्वप्रकाशेन प्रकाशयति (पुत्रः-न मातरा) मातापितरौ यथा पुत्रः स्वगुणाचरणैः प्रकाशयति-प्रसिद्धौ करोति (उशतः अच्छ प्रयाहि) त्वां कामयमानानस्मान् साधुरूपेण प्राप्तो भवसि, अतः (इह देवान्-आवह) अत्र स्वरश्मीन् “उदिता देवाः सूर्यस्य” [ऋ०] “आदित्यस्य वै रश्मयो देवाः [तै० सं० ६।४।५।५। ] प्रापय प्रापयसि वा ॥७॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Agni, you always pervade and illuminate both mother earth and heaven as a saviour child illuminates both parents at heart with elation. Go forth ever strong, ever youthful climactic power and presence bright and beautiful, mighty forbearing, come to the loving celebrants and bring in all that is divine, here and now.
मराठी (1)
भावार्थ
सूर्य महान अग्नी आहे. तो तिन्ही लोकांशी संयुक्त असतो. द्युलोकात साक्षात सूर्यरूपाने, अंतरिक्षात विद्युतरूपाने व पृथ्वीवर अग्नीरूपाने पसिद्ध असतो. सूर्याच्या प्रकाशाचा जीवनात उपयोग करून घेतला पाहिजे. विद्या सूर्य विद्वान केवळ आपल्या वंशात किंवा स्थानीच ज्ञानाचा प्रकाश करीत नाहीत तर राष्ट्रात व पृथ्वीवर सर्वत्र करतात. ॥७॥
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