ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 10/ मन्त्र 2
ऋषिः - यमो वैवस्वतः
देवता - यमी वैवस्वती
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
न ते॒ सखा॑ स॒ख्यं व॑ष्ट्ये॒तत्सल॑क्ष्मा॒ यद्विषु॑रूपा॒ भवा॑ति । म॒हस्पु॒त्रासो॒ असु॑रस्य वी॒रा दि॒वो ध॒र्तार॑ उर्वि॒या परि॑ ख्यन् ॥
स्वर सहित पद पाठन । ते॒ । सखा॑ । स॒ख्यम् । व॒ष्टि॒ । ए॒तत् । सऽल॑क्ष्मा । यत् । विषु॑ऽरूपा । भवा॑ति । म॒हः । पु॒त्रासः॑ । असु॑रस्य । वी॒राः । दि॒वः । ध॒र्तारः॑ । उ॒र्वि॒या । परि॑ । ख्य॒न् ॥
स्वर रहित मन्त्र
न ते सखा सख्यं वष्ट्येतत्सलक्ष्मा यद्विषुरूपा भवाति । महस्पुत्रासो असुरस्य वीरा दिवो धर्तार उर्विया परि ख्यन् ॥
स्वर रहित पद पाठन । ते । सखा । सख्यम् । वष्टि । एतत् । सऽलक्ष्मा । यत् । विषुऽरूपा । भवाति । महः । पुत्रासः । असुरस्य । वीराः । दिवः । धर्तारः । उर्विया । परि । ख्यन् ॥ १०.१०.२
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 10; मन्त्र » 2
अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 6; मन्त्र » 2
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अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 6; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (1)
पदार्थ
हे रात्रि ! (ते) तेरा (सखा) ‘मैं’ यह दिन पति (एतत् सख्यम्) इस गर्भाधानसम्बन्धी मित्रता को (न वष्टि) नहीं चाहता (यत्) क्योंकि गर्भाधान में पत्नी (सलक्ष्मा) समान लक्षणवाली अर्थात समान गुण की और (विषुरूपा) विशेष रूपवती अर्थात् सुन्दरी (भवाति) होनी चाहिये, किन्तु आप सुन्दरी नहीं हैं, बल्कि काले रङ्ग की हैं, तथा न मेरे जैसी समानगुणवाली हैं, क्योंकि मैं प्राणियों को चेतानेवाला हूँ और आप निद्रा में मूढ बनाती हैं। ऐसा होते हुए फिर भी यदि मैं गर्भाधान करके मैत्री का स्थापन करूँ, तो ये (उर्विया) पृथिवी और द्युलोक के मध्य में (दिवः-धर्तारः) जो प्रकाश को धारण कर रहे हैं, तथा (महः-पुत्रासः) महान् प्रजापति के पुत्र और (असुरस्य वीराः) सूर्य के वीर सैनिक, सेना में व्यूहनियम के समान चलनेवाले ये नक्षत्रादि तारागण महानुभाव (परिख्यन्) निन्दा कर डालें, यह एक बड़ी आशङ्का है ॥२॥
भावार्थ
स्त्री-पुरुष का विवाह समान गुण-कर्म-स्वभाव और रूप के अनुसार होना चाहिये, विपरीत विवाह असंतोषजनक और समाज में अपवाद और अनादर करनेवाला होता है ॥२॥ समीक्षा (सायणभाष्य)−“सखा=गर्भवासलक्षणेन” यहाँ सखिपद मुख्यवृत्ति से भ्राता की ओर न घटते हुए देखकर सायण को खींचातानी करके उक्त विशेषण लगाना पड़ा तथा “सलक्ष्मा= समानयोनित्वलक्षण; विषुरूपा भगिनीत्वात् विषमरूपा” यहाँ से ‘योनित्व’ और ‘भगिनीत्वात्’ ये अध्याहार पद निकाल दें, तो सायण के मत में एक ही वस्तु के लिये ‘समानलक्षण’ और ‘विषमरूपा’ विपरीत अर्थ होंगे। वास्तव में अपने कल्पनाजन्य अर्थ को सिद्ध करने के लिये उन्होंने यह अनावश्यक अध्याहार किया ॥२॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
हे रात्रे ! (ते) तव (सखा) अहमित्येष दिनरूपः पतिः (एतत् सख्यम्) एतद् गर्भाधानरूप मित्रत्वं (न वष्टि) नैव काङ्क्षति। कुतः ? (यत्) यतो हि पत्नी (सलक्ष्मा) समानलक्षणा-समानगुणा, लक्ष्मेति लक्षणपर्यायो यथा वामनीये लिङ्गानुशासने-“लिङ्गस्य लक्ष्म हि समस्य विशेषयुक्तमुक्तं मया परिमितं त्रिदशा इहार्याः” [श्लोक० ३१] (विषुरूपा) विशेषेण सुरूपा सुन्दरीत्यर्थः, ‘वि’ अत्र विशेषार्थे यथा “विसुदूरं गतः” अत्यन्तं दूरं गत इत्यर्थः, (भवाति) भवेत्, “लिङर्थे लेट्” [अष्टा० ३।४।७] इति सूत्रेण लेट्, प्रत्युत भवती तु न सुन्दरी किन्तु कृष्णरूपाऽस्ति, तथा च न मादृशी समानगुणा, कथम् ? अहं तु प्राणिनश्चेतयामि भवती तु तान् स्वापयतीति शेषः। एवं सत्यपि यदि चाहं तेऽनुकूलं सख्यमनुतिष्ठेयं तर्हीमे (उर्विया) द्यावापृथिव्योर्मध्ये “उर्वीति द्यावापृथिवीनामसु पठितम्” [निघ० ३।३०] तस्माच्च डियाजादेशः, “इयाडियाजीकाराणामुपसङ्ख्यानम्” [वा० ७।१।३९ अष्टा०] ये (महः-पुत्रासः) महतः प्रजापतेः पुत्राः-पुत्रवद्वर्त्तमानाः प्रजारूपाः “मह इति महन्नाम” [निघ० ३।३] (असुरस्य) असून् प्राणान् राति ददातीति तस्य सूर्यस्य “प्राणः प्रजानामुदयत्येष सूर्यः” [प्रश्नो० १।८] (वीराः) वीर्य्यवन्तः सैनिकाः सेनायामिव व्यूहनियमेन गन्तारः (दिवः) प्रकाशस्य (धर्तारः) धारका नक्षत्रादयः (परि ख्यन्) परिभाषेरन्-निन्दयेयुः, “उपसंवादाशङ्कयोश्च” [अष्टा० ३।४।८] ख्या प्रकथनेऽस्मादाशङ्कायां लेट्, तस्माद् हे रात्रे ! क्षम्यतां नैतत् सख्यमिच्छाम्यहम् ॥२॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Yama: Your friend accepts not your proposal of love, friendship and union since you are not homogeneous with him in character and versatility of merit and maturity, in fact you are the contrary. Indeed the brave progeny of the great lord of life and energy of nature, refulgent with light and wisdom, who maintain the light of heaven along with the earth take exception to such a proposal of union, in fact they watch, wonder and rule out such a proposal for union.
मराठी (1)
भावार्थ
स्त्री-पुरुषाचा विवाह समान गुण-कर्म-स्वभाव व रूपानुसार झाला पाहिजे. विपरीत विवाह असंतोषजनक व समाजात अपवाद व अनादर करणारा असतो. ॥२॥
टिप्पणी
समीक्षा - (सायण भाष्य) ‘सखा’ = ‘गर्भवासलक्षणेन’ येथे सखिपद मुख्य वृत्तीने भ्राताकडे न होता सायणला ओढाताण करून वरील विशेषण लावावे लागले व ‘सलक्ष्मा = समातयोनित्वलक्षणा; विषुरूपा भगिनीत्वात् विषमरूपा’ येथून ‘योनित्व’ व ‘भागिनीत्वात’ हे अध्याहार पद काढून टाकल्यास सायणाच्या मते एकाच वस्तूसाठी ‘समानलक्षणा’ व ‘विषमरूपा’ विपरीत अर्थ होतील. वास्तविक आपल्या कल्पनाजन्य अर्थाला सिद्ध करण्यासाठी त्यांनी हा अनावश्यक अध्याहार केला.
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