ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 10/ मन्त्र 9
ऋषिः - यमो वैवस्वतः
देवता - यमी वैवस्वती
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
रात्री॑भिरस्मा॒ अह॑भिर्दशस्ये॒त्सूर्य॑स्य॒ चक्षु॒र्मुहु॒रुन्मि॑मीयात् । दि॒वा पृ॑थि॒व्या मि॑थु॒ना सब॑न्धू य॒मीर्य॒मस्य॑ बिभृया॒दजा॑मि ॥
स्वर सहित पद पाठरात्री॑भिः । अ॒स्मै॒ । अह॑ऽभिः । द॒श॒स्ये॒त् । सूर्य॑स्य । चक्षुः॑ । मुहुः॑ । उत् । मि॒मी॒या॒त् । दि॒वा । पृ॒थि॒व्या । मि॒थु॒ना । सब॑न्धू॒ इति॒ सऽब॑न्धू । य॒मीः । य॒मस्य॑ । बि॒भृ॒या॒त् । अजा॑मि ॥
स्वर रहित मन्त्र
रात्रीभिरस्मा अहभिर्दशस्येत्सूर्यस्य चक्षुर्मुहुरुन्मिमीयात् । दिवा पृथिव्या मिथुना सबन्धू यमीर्यमस्य बिभृयादजामि ॥
स्वर रहित पद पाठरात्रीभिः । अस्मै । अहऽभिः । दशस्येत् । सूर्यस्य । चक्षुः । मुहुः । उत् । मिमीयात् । दिवा । पृथिव्या । मिथुना । सबन्धू इति सऽबन्धू । यमीः । यमस्य । बिभृयात् । अजामि ॥ १०.१०.९
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 10; मन्त्र » 9
अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 7; मन्त्र » 4
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अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 7; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
पदार्थ
हे प्रिये ! यद्यपि यह सम्भव है कि प्रजापति देव (अस्मै) इस जामिरूप अर्थात् हमारे संयोग में रुकावट डालनेवाले पृथिवीलोक को (दशस्येत्) सूक्ष्म बनाकर हमारे बीच में से अलग कर दे। वह इस प्रकार कि (रात्रीभिः) रात्रिगण से (अहभिः) अहगर्ण से, अर्थात् अहोरात्रगण से इस पृथिविलोक के स्थितिसमय को समाप्त करके पृथक् कर दे, तब हम दोनों का सङ्गम होना सम्भव है, क्योंकि यह स्थितिसमय कालगणना से समाप्त हो सकता है और वह कालगणना रात्रिगण और अहर्गण से हो सकती है। अब वह अहोरात्र अर्थात् दिन-रात की अधिक संख्या किस प्रकार होनी सम्भव है, सो सुन, हे रात्रे ! यद्यपि मैं भी पृथिवी के ऊपर अकेला हूँ और आप भी पृथिवी के नीचे अकेली हैं, तथापि हम दोनों की संख्या अधिक हो सकती है। वह ऐसे कि (सूर्यस्य) सूर्यदेव की (चक्षुः) दर्शनरश्मि (मुहुः) बारम्बार (उन्मिमीयात्) उगाली ले, लोकदृष्टि से प्रकट हो, जिससे लोग सूर्यप्रकाश के दर्शन से दिन-रात की गणना करते जावें, तब (दिवा पृथिव्या) द्यावापृथिवी के समान (मिथुना) मिथुन (सबन्धू) समानाङ्ग-एकाङ्ग-सङ्गत हो जावें, (यमीः) यमी आप रात्रि (यमस्य) मुझ दिन के (अजामि) व्यवधायाकाभावता-बिना रुकावट के संयोग को (बिभृयात्) धारण कर सकें ॥९॥
भावार्थ
पृथिवी आदि पिण्ड बहुत दिन-रातों-अहर्गणों के पश्चात् घिस-घिसकर परमाणु बनकर हीन हो जाते हैं। गृहस्थ जनों के लिये इस मन्त्र में उपदेश है कि विवाहित स्त्री-पुरुष संकट आने पर परस्पर सहयोग करें। एक दूसरे का व्यवहार आपस में स्नेहपूर्ण और सहयोग की भावना से युक्त हो ॥९॥
विषय
सुदूर-सम्बन्ध
पदार्थ
[१] गत मन्त्र से यम 'मत् अन्येन'- इन शब्दों में अपने से भिन्न किसी श्रेष्ठ पुरुष से अपनी बहिन के सम्बन्ध को चाहता है । यम प्रार्थना करता है कि उसकी बहिन (रात्रीभिः अहभिः) = दिन-रात (अस्मा) = अपने इस पति के लिये (दशस्येत्) = आराम को देने की इच्छा वाली हो । [२] उसकी बहिन व उसके पति पर (सूर्यस्य चक्षुः) = सूर्य की आँख (मुहुः) = बारम्बार (उन्मिमीयात्) = खुले, अर्थात् इनका जीवन दीर्घ हो । [३] (दिवा पृथिव्या) = जैसे द्युलोक पृथिवीलोक के साथ (मिथुना) = परस्पर (सबन्धू) = साथ-साथ समान बन्धुत्व वाले होते हैं, इसी प्रकार ये भी बन्धुत्व वाले हों । द्युलोक व पृथिवीलोक कितने दूर-दूर हैं, इसी प्रकार यम भी चाहता है कि इसकी बहिन सुदूर सम्बन्ध वाली हो। मेरे से भी बहिन की दूरी कोई प्रेम को कम थोड़ा कर देगी, दूरी तो प्रेम को बढ़ा ही देती है 'distance enhances love' [४] (यमी:) = संयत जीवन वाली मेरी बहिन (यमस्य) = मुझ यम के (अजामि) = [अभ्रातरं ] असम्बद्ध व्यक्ति को अर्थात् किसी सुदूर गोत्र वाले को ही (बिभृयात्) = भर्तृरूपेण ग्रहण करे। अर्थात् दूर ही कहीं सम्बन्ध वाली हो ।
भावार्थ
भावार्थ- पत्नी दिन-रात पति के सुख का ध्यान करे, परस्पर मेल व प्रेम से ये दीर्घजीवी हों । द्युलोक व पृथिवीलोक जिस प्रकार परस्पर दूरी पर हैं, इसी प्रकार सम्बन्ध दूरी पर ही हों। दूर गोत्र में ही सम्बन्ध हो ।
विषय
पुत्रार्थिनी स्त्री की स्वपुरुष से ही सन्तान प्राप्ति की प्रबल इच्छा। (
भावार्थ
पुनः पुत्रार्थिनी कहती है। (रात्रीभिः अहभिः) कुछ दिनों, कुछ रातों के अनन्तर (दशस्येत्) प्रभु हमारा मनोरथ हम को देवे। (सूर्यस्य चक्षुः) सूर्य का प्रकाशक तेज (मुहुः उन्मिमीयात्) पुनः भी उदित हो। (दिवा पृथिव्याः) आकाश और भूमि या सूर्य-पृथिवी के समान हम दोनों का (मिथुना) जोड़ा (स-बन्धू) समान बन्धन में बंधे हैं, अतः (यमी) विवाह बन्धन से बंधी, परिणीता स्त्री ही (यमस्य) विवाह से बद्ध पुरुष के वीर्य का गर्भ (बिभृयात्) धारण करे, यही (अजामि) दोष रहित है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—१,३,५—७,११,१३ यमी वैवस्वती। २, ४, ८—१०, १२, १४ यमो वैवस्वत ऋषिः॥ १, ३, ५–७, ११, १३ यमो वैवस्वतः २, ४, ८—१०, १२, १४ यमी वैवस्वती देवते॥ छन्द:- १, २, ४, ६, ८ विराट् त्रिष्टुप्। ३, ११ पादनिवृत् त्रिष्टुप्। ५, ९, १०,१२ त्रिष्टुप्। ७, १३ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। १४ निचृत् त्रिष्टुप्॥
विषय
NA
पदार्थ
(रात्रीभिः अहभिः) = कुछ रात दिनों अर्थात् कुछ थोड़े समय में ही (अस्मे) = इस मुमुक्षु की इस प्रवृत्ति को परमात्मा (दशस्येत) = दंशित प्रर्यात समाप्त कर दे तथा (सूर्यस्य) = इसके पूर्वकालिक ज्ञान रूपी सूर्यका (चक्षुः) = नेत्र (उन्मिमोयात) = फिर उद्घाटित हो जाए, जिससे यह पुनः मेरे सम्पर्क में रुचि लेने लगे, जैसे दिवा (पृथिव्या) = द्युलोक का पृथिवी से तथा पृथिवी का द्युलोक से (मिथुना) = परस्पर (सबन्धू) = समान बन्धन है, दोनों का जोड़ा है, यद्यपि दोनों विपरीत गुण तथा स्थान वाले हैं किन्तु पुनरपि दोनों युगल रूप में सदा रहते हैं, इसी प्रकार (अजामि यमी) = विपरीत वृत्ति वाली यह यमी प्रकृति यमस्य बिभृयात्-पुरुष को धारण करे- पुनः साथ रह कर सम्भाले।
व्याख्या
प्रकृति या प्रवृत्ति पुरुष पर अपना जादू न चलता देखकर मानों परमात्मा से निवृत्ति मार्गी पुरुष की इस वैराग्य प्रवृत्ति को हटा कर उसके निवृत्ति मार्ग से हटकर प्रवृत्ति मार्ग की ओर जाने की प्रार्थना करती हुई यह चाहती है- इस मन्त्र में मानों प्रकृति पुरुष को अपनी ओर आकृष्ट करने में असमर्थ होकर परमात्मा से प्रार्थना करती है कि वह इस मुमुक्षु की वैराग्य वृत्तियों का नाश कर दे तथा इसकी वह पूर्व स्मृति, जिसमें यह मेरा प्रशंसक था तथा सदा मेरे साथ रहने में अपना अहोभाग्य मानता था; पुनः जग जाए और यह विचारने लगे कि जैसे गुण तथा स्थान की दृष्टि से दूर-दूर अवस्थित द्युलोक तथा पृथिवी एक दूसरे को कभी नहीं छोड़ते अपितु युगल रूप में सदैव साथ रहते हैं इसी प्रकार हम दोनों परस्पर विपरीत गुणवाले होते हुये भी एक दूसरे को धारण करें—सम्भालें । प्रभु से प्रार्थना ही हारे व्यक्ति का प्रबल सम्बल होता है। अपने उसी अस्त्र का मानो प्रकृति प्रयोग करके पुरुष को अपनी ओर आकृष्ट करने की प्रार्थना को सफल करना चाहती है ।
संस्कृत (1)
पदार्थः
हे प्रिये ! यद्यपि भवितुमर्हत्येतद्यत् प्रजापतिर्देवः (अस्मै) एतं जामिरूपं पृथिवीलोकम् “सुपां सुपो भवन्तीति वक्तव्यम्” [अष्टा० ७।१।३९ वा०] अत्र भाष्यवचनात् द्वितीयैकवचने ‘स्मै’ आदेशः ‘तस्मा इन्द्राय गायत’ [ऋ० १।५।४] इतिवत् (दशस्येत्) उपक्षिणुयात् सूक्ष्मीकृत्यावयोर्मध्यात्पृथक् कुर्यात् “दसु उपक्षये” [दिवा०] श्यन् विकरणः, लिङि रूपम्। धातुमध्ये शकारागमश्छान्दसः “वर्णागमो वर्णविपर्ययश्च द्वौ चापरौ वर्णविकारनाशौ। धातोस्तदर्थातिशयेन योगस्तदुच्यते पञ्चविधं निरुक्तम्” इति वचनात्। तत्कथं पृथक् कुर्यादित्युच्यते (रात्रीभिः) रात्रिगणेन (अहभिः) अहर्गणेन सह, अर्थादहोरात्रगणाभ्यामस्य पृथिवीलोकस्य स्थितिसमयं समाप्य पृथक् कुर्यात्तदाऽऽवयोः सङ्गमेन सम्भाव्यमित्यभिप्रायः, कुतश्च स्थितिसमयसमाप्तिः ? उच्यते, कालगणनया। सा च कालगणना भवति रात्रिगणेनाहर्गणेन च। अहोरात्रसङ्ख्या च बह्वी कथं स्यात् तच्च, हे रात्रे ! यद्यप्येकं एवाहं भवती चाप्येका तथापि भवितुमर्हत्यावयोर्बह्वी सङ्ख्या। तदित्थं यत् (सूर्य्यस्य चक्षुः) सूर्यदेवस्य दर्शनरश्मिः (मुहुः) पुनः पुनः (उत् मिमीयात्) उद्गच्छेत्प्रकटीभवेल्लोकदृष्ट्येति शेषः यल्लौकिकाः सूर्य्यप्रकाशदर्शनेनाहोरात्रसङ्ख्यां कुर्वन्तु। तदा (दिवा पृथिव्या) द्यावापृथिवीभ्यां तुल्यौ (मिथुना) मिथुनौ (सबन्धू) समानबन्धनौ सङ्गतौ भवेव तथा च (यमीः) यमी रात्रिर्भवति मे पत्नी (यमस्य) मे दिनस्य-पत्युः (अजामि बिभृयात्) जामिराहित्यमर्थादव्यवधायकं संयोगं धारयेत् ॥९॥
इंग्लिश (1)
Meaning
If for a moment the lord of existence were to reduce the earth to the axis and its centre point and the light of the sun were exhausted along with days and nights, then like heaven and earth together we too may be together and the night may enjoy conjugal union with the day without any obstruction.
मराठी (1)
भावार्थ
पृथ्वी इत्यादी पिंड पुष्कळ दिवस रात्रीनंतर झिजून झिजून परमाणू बनून कमी दर्जाचे बनतात. गृहस्थासाठी या मंत्रात उपदेश आहे, की विवाहित स्त्री पुरुषांनी संकट आल्यावर परस्पर सहयोग करावा. एक दुसऱ्याशी व्यवहार आपापसात स्नेहपूर्ण व सहयोगाच्या भावनेने युक्त असावा. ॥९॥
टिप्पणी
वक्तव्य $ या सूक्तात यम-यमीचा संवाद आहे. सायण इत्यादी भाष्यकारांनी यम-यमीचा बहीण-भाऊ असा अर्थ करून इतका अश्लील मैथुनी संवाद स्थिर केलेला आहे, की ज्यामुळे विदेशी व पाश्चात्त्य विद्वानांना वेदावर आक्षेप घेण्याची संधी मिळाली. इतकेच नव्हे तर सामायिक भारतीय स्वाध्याय करणाऱ्या मस्तकांवरही सायणच्या अनुचरतेचा रंग चढला; परंतु या सूक्तात ‘अन्यमिच्छस्व सुभगे पतिं मत्’ या मंत्रांशाला ऋषी दयानंदांनी संतानोत्पत्ती करण्यास असमर्थ पतीकडून संतानाभिलाषी पत्नीसाठी नियोगाची आज्ञा प्रमाणित केलेली आहे. ऋषीच्या योजनेने हे प्रतीत होते, की ते या सूक्ताला पती-पत्नी संवाद समजत होते. त्यासाठी ऋषी दयानंदाच्या मंतव्याने यम-यमी पती-पत्नी संवाद आहे. $ वेदार्थ करण्यासाठी वेदांगाची व्यवस्था माननीय आहे. त्यात मुख्य अंग आहे व्याकरण - ‘षट्स्वङ्गेषु प्रधानं व्याकरणम्’ (महाभाष्य आ. १) त्यासाठी ‘पुयोगादाख्यायाम्’ (अष्टा. ४/१/४८) या व्याकरण व्यवस्थेला मानणे अत्युचित आहे. या सूत्राने यम-यमीचा संबंध पती-पत्नीच सिद्ध होतो. कारण वरील सूत्राने ङीष् प्रत्यय होऊन यमी शब्द बनतो. सूत्रार्थ हा आहे, की पुरुषासाठी जो शब्द आहे त्या शब्दाने स्त्रीवाचक होण्यासाठी ङीष् प्रत्यय असेल जर ती स्त्री त्याच्याबरोबर योगाने (पुरुष धर्माने) विद्यमान असेल. आख्याग्रहणाचे प्रयोजन हे आहे, की पुंयोगासाठी ते उद्यत, वर्तमान व नंतरही प्रसिद्ध व्हावे. जसे ‘गोप’ची स्त्री ‘गोपी’ व ‘आचार्यची’ स्त्री ‘आचार्यानी’ जी पुंयोगासाठी उद्यत् अर्थात् विवाहानंतर गर्भाधानापूर्वी व गर्भाधान काल व त्यानंतर पती जीवित किंवा मृत असेल तरीही ती स्त्री गोपी, आचार्यांनी नावाने विख्यात व्हावी. ऋषी दयानंदही यमीचा अर्थ यमाची पत्नी असा करतात. कारण ते पूर्ण वैयाकरण होते. जसे- ‘यम्यै - यमस्य न्यायकर्तु: स्त्रियै’ (यजु. २५/५) त्यासाठी पुंयोगातही यमी शब्द विनाकारण नाही. $ पुंयोगादित किम् = पुंयोगापासून भिन्न कन्येचा वाचक असल्यामुळे ‘यमा’ ‘अजाद्यतष्टाप्’ (अष्टा. ४/१/४)ने टाप् प्रत्यय होतो. उदाहरणाचे स्थान व प्रमाणे - ‘यमे इव यतमाने यदैतम्’ (ऋ. १०/१३/२) येथे यमा च यमा च = ‘यमे’ आहे व यतमानाचे यतमानाच = यतमाने’ या प्रकारे प्रथमा द्विवचन बनविलेले आहे व ब्राह्मणग्रंथही यमाच समजून व्याख्या करतो. ‘यमे इव ह्येते यतमाने प्रवाहुगित:’ (ऐत. ब्रा. ५/३) या स्थानी सायणसुद्धा ठीक अर्थ लावतो. $ ‘यथा लोके तादृश्यौ द्वे कन्यके सह वर्तेते तथेमे शकटे् (हविर्धाने)’ (ऐत. ब्रा. ५/३ सायणभाष्य) $ उपर्युक्त प्रमाणांनी हे स्पष्ट झाले, की यम-यमी शब्दांचे पती-पत्नीसाठीच प्रयुक्त होणे योग्य आहे. आता ही गोष्ट स्पष्ट केली पाहिजे, की यम-यमी शब्द ज्यांचे वाचक आहेत त्यांचा परस्पर संबंध काय आहे - $ येथे यम-यमीचा अर्थ दिवस-रात्र आहे. ‘यम-यमी’(निघ. ५/४-५) अंतरिक्षस्थान देवतांमध्ये ‘पद’ नाव करून वाचलेले आहे. यांनाच कोणी नामांतराने ‘अश्विनौ’ही म्हणतात. जसे- ‘तत्कावश्विनौ द्यावा - पृथिव्यावित्येकेऽहो रात्रावित्येके सूर्याचन्द्रमसावित्येके’ (निरू. दैव. ६/१) $ द्यावा-पृथ्वी, दिवस-रात्र, सूर्य-चंद्र हे मिथुन (जोडे) आहेत. यांनाच काही जण ‘प्राण-रयि’ही म्हणतात. प्रश्नोपनिषदात त्याचे अत्यंत चांगले स्पष्टीकरण दिलेले आहे. जसे- ‘स मिथुनमुत्पादयते रयिञ्च प्राणञ्चेत्येतो मे बहुधा प्रजा: करिष्यूत:’ (प्रश्नो. १) प्रजापतीने ‘प्राण-रयि’ जोडा उत्पन्न केला. यासाठी की हे दोन्ही माझ्यासाठी अनेक प्रकारची प्रजा उत्पन्न करतील. $ या प्रकरणात ‘आत्म-अनात्म = पुरुष-प्रकृती’, ‘अमूर्त-मूर्त’, ‘सूर्य-चंद्र’, ‘उत्तरायण-दक्षिणायन’, ‘शुक्लपक्ष-कृष्णपक्ष’, ‘दिवस-रात्र’, ‘वीर्य-रज’ हे सात जोडे वर्णिलेले आहेत. इतरत्र शास्त्रात ‘अग्नि-पृथिवी’, ‘सूर्य-चंद्र’, ‘राजा-राणी’लाही यम-यमी म्हटले आहे. त्यासाठी ‘अश्विनौ’, ‘यम-यमी’, ‘प्राण-रयि’ हे वरील जोड्यांचे अर्थवशात नामांतर आहेत. वरील जोडे परस्पर पुरुष-स्त्री (नर-मादा) धर्माने वर्तमान आहेत. कारण एक अग्नी प्रमुख असून, दुसरा जलप्रधान हीच गोष्ट निरुक्तमध्येही म्हटलेली आहे. ‘ज्योतिषाऽन्यो रसेनान्य’ (निरू. ६/१) बोध होण्यासाठी खालील क्रम पाहा. $ (अग्निप्रधान) (जलप्रधान) $ 1 द्यौ: (अग्नि) पृथिवी $ 2 दिन (दिवस) रात (रात्र) $ 3 सूर्य चंद्र $ १. ‘अग्निर्वै यम: इयं (पृथिवी) यमी आभ्याँ हीदँ सर्वं यतम्’ (श.२/१/१०) $ अग्नि: -द्यौ: ‘दिवं यश्चक्रेमूर्द्धानम्’ (अथर्व. १०/१०/३२) $ 4 आत्मा अनात्म (प्रकृति) $ 5 अमूर्त मूर्त $ 6 उत्तरायण दक्षिणायन $ 7 शुक्लपक्ष कृष्णपक्ष $ 8 वीर्य रज: $ 9 राजा रानी (राणी) $ वरील यम-यमीचा संबंध पती-पत्नीचा आहे. दुसरा कोणता नाही. प्रथम उपर्युक्त प्रश्नोपनिषदाच्या वचनावरच या व्यवस्थेला सोपवून देतो. तेथे स्पष्टच मिथुन (जोडा) प्रजोत्पत्तीसाठी पती-पत्नीच असे वर्णन आहे. दुसरे नाही. कारण प्रजोत्पत्ती पती-पत्नीच मिळून करतात. पूर्वोक्त युग्मातून कित्येक युग्म अन्यत्र शास्त्रात पती-पत्नी शब्दांनी वर्णित आहेत. जसे ‘अग्ने पृथिवीपते’ (तै. ३/११/४/१) पृथिव्यग्नेपत्नी (गोपथ. २/९) वेदातही ‘द्यावापृथिवी’चा पती-पत्नी भाव वर्णित आहे. - ‘द्यौर्मे पिता माता पृथिवी महीयम्’ (ऋग्वेद १/१६४/३३) द्यौला पिता व पृथ्वीला माता म्हटले आहे. पिता व माता यांचा संबंध पती-पत्नीचाच असतो. दुसरा कोणता नसतो. वास्तविक पूर्वोक्त जितकेही युग्म आहेत. त्या सर्वांचा परस्परसंबंध पती-पत्नीचा आहे. $ जे महाशय पूर्वोक्त युग्मांच्या पती-पत्नी हा भाव स्वस्वामी रूपात सांगण्याचा आग्रह करतात. ते जणू प्राचीन ऋषींच्या मर्यादांचे उल्लंघन करण्याची धृष्टता करतात. कारण ‘पत्युर्नो यज्ञसंयोगे’ (अष्टा. ४/१/१३) मध्ये सिद्ध आहे की ‘पत्नी’ शब्द यज्ञसंयोग अर्थात् दाम्पत्यसंबंधातच आहे, अन्यथा नाही. ‘इय ब्राह्मणी ग्रामस्य पतिरास्ति न तु पत्नी’ । त्यासाठी दाम्पत्यसंबंधात जे एक दुसऱ्यावर अधिकार ठेवतात त्यांनाच पती-पत्नी म्हणतात. त्यासाठी यम-यमीचा संबंध पती-पत्नीचा आहे. स्वामी दयानंदानीही लिहिले आहे, की यम-यमीचे वाच्य दिवस-रात्र परस्पर पती-पत्नी संबंध आहेत- ‘अथ रात्रि दिवस दृष्टान्तेन स्त्री-पुरुषौ कथं वर्तेयातामित्युपदिश्यते’ । (दयानंद ऋ.भाष्य १/६२/८) $ या प्रकारे उपर्युक्त वेद, ब्राह्मणग्रंथ, उपनिषद, व्याकरण व ऋषी दयानंदाच्या वचनांनी सिद्ध झाले की ‘यम-यमी’ परस्पर पती-पत्नीरूपात वर्तमान आहे. यम-यमीचे भाऊ-बहीण संबंध मानणाऱ्यांनी हे लक्षात ठेवावे. $ या सूक्तात यम-यमी संवादाने दिवस व रात्रीचे विज्ञान व गृहस्थधर्म शिक्षण आलंकारिक पद्धतीने सांगितलेले आहे.
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