ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 105/ मन्त्र 10
ऋषिः - कौत्सः सुमित्रो दुर्मित्रो वा
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृदुष्णिक्
स्वरः - ऋषभः
श्रि॒ये ते॒ पृश्नि॑रुप॒सेच॑नी भूच्छ्रि॒ये दर्वि॑ररे॒पाः । यया॒ स्वे पात्रे॑ सि॒ञ्चस॒ उत् ॥
स्वर सहित पद पाठश्रि॒ये । ते॒ । पृश्निः॑ । उ॒प॒ऽसेच॑नी । भू॒त् । श्रि॒ये । दर्विः॑ । अ॒रे॒पाः । यया॑ । स्वे । पात्रे॑ । सि॒ञ्चसे॑ । उत् ॥
स्वर रहित मन्त्र
श्रिये ते पृश्निरुपसेचनी भूच्छ्रिये दर्विररेपाः । यया स्वे पात्रे सिञ्चस उत् ॥
स्वर रहित पद पाठश्रिये । ते । पृश्निः । उपऽसेचनी । भूत् । श्रिये । दर्विः । अरेपाः । यया । स्वे । पात्रे । सिञ्चसे । उत् ॥ १०.१०५.१०
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 105; मन्त्र » 10
अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 27; मन्त्र » 5
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अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 27; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
हिन्दी (1)
पदार्थ
(ते) हे परमात्मन् ! तेरी (श्रिये) समृद्धि के लिए-समृद्धि को दर्शानेवाला (पृश्निः-उपसेचनी-अभूत्) उपसेचन करनेवाला-जल बरसानेवाला मेघयुक्त द्युलोक है (अरेपाः-दर्विः) निर्मल दोषरहित दारणीय-कृषि करने के लिए पृथिवी है (श्रिये) समृद्धि के लिए-समृद्धिसूचक है, (यया) जिसके द्वारा (स्वपात्रे) स्वकीय पात्रभूत पृथिवी पर (उत् सिञ्चसे) अवश्य सींचता है ॥१०॥
भावार्थ
परमात्मा ने संसार की समृद्धि के लिए समृद्ध करनेवाला जलवर्षक मेघयुक्त द्युलोक को बनाया तथा कृषि करने के लिए विदीर्ण करने योग्य जलसिञ्चन के पात्रभूत तथा लोकसमृद्धि के लिए पृथिवी को सींचता है, उसको मानना चाहिये, गुणगान करना चाहिये ॥१०॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(ते) हे परमात्मन् ! तव (श्रिये) समृद्धये समृद्धिदर्शिका (पृश्निः-उपसेचनी-अभूत्) उपसेचनकर्त्रीर्द्यौः-मेघान्विता जलवर्षिणी खल्वस्ति (अरेपाः-दर्विः-श्रिये) निर्मलाऽदोषा दारणीया कृषिकरणाय पृथिवी-समृद्धये तव समृद्धिसूचिकाऽस्ति (यया स्वे पात्रे सिञ्चसे उत्) यया स्वकीयपात्रभूतायां पृथिव्यामुपरि सिञ्चसि ॥१०॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Let the sun, the skies and the divine voice be for your glory, expression of the showers of bliss. Let the yajnic ladle of immaculate ghrta be for the celebration of your glory without a trace of human selfishness. By these you shower the grace of your light and bliss with water on your own seat of humanity, the earth.
मराठी (1)
भावार्थ
परमेश्वराने जगाच्या समृद्धीसाठी समृद्ध करणारा जलवर्षक मेघयुक्त द्युलोक निर्माण केला व कृषी करण्यासाठी व जलसिंचनासाठी पृथ्वी निर्माण केली व समृद्धीसाठी पृथ्वीवर तो जल सिंचन करतो. त्याला मानले पाहिजे. त्याचे गुणगान केले पाहिजे. ॥१०॥
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