ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 105/ मन्त्र 11
ऋषिः - कौत्सः सुमित्रो दुर्मित्रो वा
देवता - इन्द्र:
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
श॒तं वा॒ यद॑सुर्य॒ प्रति॑ त्वा सुमि॒त्र इ॒त्थास्तौ॑द्दुर्मि॒त्र इ॒त्थास्तौ॑त् । आवो॒ यद्द॑स्यु॒हत्ये॑ कुत्सपु॒त्रं प्रावो॒ यद्द॑स्यु॒हत्ये॑ कुत्सव॒त्सम् ॥
स्वर सहित पद पाठश॒तम् । वा॒ । यत् । अ॒सु॒र्य॒ । प्रति॑ । त्वा॒ । सु॒ऽमि॒त्रः । इ॒त्था । अ॒स्तौ॒त् । दुः॒ऽमि॒त्रः । इ॒त्था । अ॒स्तौ॒त् । आवः॑ । यत् । द॒स्यु॒ऽहत्ये॑ । कु॒त्स॒ऽपु॒त्रम् । प्र । आवः॑ । यत् । द॒स्यु॒ऽहत्ये॑ । कु॒त्स॒ऽव॒त्सम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
शतं वा यदसुर्य प्रति त्वा सुमित्र इत्थास्तौद्दुर्मित्र इत्थास्तौत् । आवो यद्दस्युहत्ये कुत्सपुत्रं प्रावो यद्दस्युहत्ये कुत्सवत्सम् ॥
स्वर रहित पद पाठशतम् । वा । यत् । असुर्य । प्रति । त्वा । सुऽमित्रः । इत्था । अस्तौत् । दुःऽमित्रः । इत्था । अस्तौत् । आवः । यत् । दस्युऽहत्ये । कुत्सऽपुत्रम् । प्र । आवः । यत् । दस्युऽहत्ये । कुत्सऽवत्सम् ॥ १०.१०५.११
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 105; मन्त्र » 11
अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 27; मन्त्र » 6
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अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 27; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(असुर्य) असुओं-प्राणों में रममाण जीव के लिए हितकर परमात्मन् ! (त्वा प्रति) तेरे प्रति-तुझे-अभीष्ट देव मानकर (सुमित्रः) तेरे साथ स्नेहकर्त्ता आस्तिक (शतं वा) सौ बार या उससे अधिक बार (इत्था) इस प्रकार (अस्तौत्) स्तुति करता है (इत्था) इसी प्रकार (दुर्मित्रः) जो तुझसे स्नेह नहीं करता, ऐसा नास्तिक जन प्रलम्भन से-दिखावे से (अस्तौत्) स्तुति करता है, उन दोनों में (कुत्सपुत्रम्) स्तुतिकर्ता के पुत्र अर्थात अधिक स्तुति करनेवाले को (यत्-दस्युहत्ये) जब पापी के हननप्रसङ्ग में (आवः) भलीभाँति रक्षा करता है (यत्) जब कि (दस्युहत्ये) पापी के हननप्रसङ्ग में (कुत्सवत्सं प्र आवः) स्तुतिकर्ता के वत्स को अर्थात् अत्यन्त स्तुति करनेवाले की प्रकृष्टरूप से रक्षा करता है ॥११॥
भावार्थ
परमात्मा प्राणधारी जीव के लिए हितकर है। यद्यपि परमात्मा स्नेहकर्ता आस्तिक स्तोता में और न स्नेह करनेवाले नास्तिक दिखावे की स्तुति करनेवाले में इस प्रकार दोनों में पापी के नष्ट करने का प्रसङ्ग आता है, तो वह अत्यन्त स्तुति करनेवाले की रक्षा करता है, यह उसका स्वभाव है ॥११॥
विषय
सुमित्र व दुर्मित्र
पदार्थ
[१] हे (असुर्य) = प्राणशक्ति का संचार करनेवालों में उत्तम प्रभो ! (त्वा) = प्रति आपका लक्ष्य करके (सुमित्रः) = उत्तमता से स्नेह करनेवाला [शोभनं मेद्यति] सुमित्र (शतम्) = सौ वर्ष पर्यन्त (वा) = निश्चय से (इत्था) = सचमुच (अस्तौत्) = स्तवन करता है, आपके स्तवन से ही वस्तुतः वह प्राणशक्ति- सम्पन्न होकर सुमित्र बन पाया है। (दुर्मित्र:) = [दुष्टात् प्रमीतेः त्रायते] अशुभ पापों से अपने को बचानेवाला (इत्था) = सचमुच (अस्तौत्) = आपका स्तवन करनेवाला हुआ है। आपके स्तवन के द्वारा ही तो वह पापों से बच पाया है । [२] हे प्रभो ! आप (यद्) = क्योंकि (दस्युहत्ये) = इन दास्यव वृत्तियों के संहार में (कुत्सपुत्रम्) = [कुथ हिंसायाम्] कामादि के अतिशयेन हिंसन करनेवाले कुत्स के पुत्र को, मूर्त्तिमान् कुत्स को (आवः) = रक्षित करते हैं । (यत्) = क्योंकि आप (दस्युहत्ये) = इस दस्युहननरूप कार्य में (कुत्सवत्सम्) = इस कुत्स के पुत्र को (प्रावः) = प्रकर्षेण रक्षित करते हैं। वस्तुतः आपके रक्षण से ही यह 'कुत्स' बन पाया है। आपके रक्षण के बिना इसके लिए वासनाओं के संहार का सम्भव नहीं ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु-स्तवन से वासना का संहार होकर सोमरक्षण का सम्भव होता है । सम्पूर्ण सूक्त का मूल भाव यही है कि हम प्रभु स्मरण करते हुए वासनाओं को विनष्ट करें और सोमरक्षण से जीवन को श्री सम्पन्न बनाएँ। ऐसा करनेवाले लोग काश्ययः - [पश्यक:] ज्ञानी होते हैं और 'भूताश:' [ भूत-प्राप्त, अंश्- विभक्त करना] प्राप्त धन का विभाग करनेवाले होते हैं। अगले सूक्त का ऋषि 'भूतांश काश्यप' ही है। इस प्रकार के जीवनवाले पति-पत्नी का 'अश्विनौ' नाम से सूक्त में इस प्रकार वर्णन है-
भावार्थ
हे (असुर्य) प्राणों में रमण करने वाले जीवों के हितकारक प्रभो ! हे बलवन् ! (त्वा प्रति) तुझे लक्ष्य कर (सु-मित्रः) सुख के कारण तुझे स्नेह करने वाला, (शतम्) सैकड़ों वार (इत्था अस्तौत्) इस प्रकार सत्य २ स्तुति करता है, और (शतम्) सैकड़ों वार (दुः-मित्रः) दुःख के कारण तेरा मित्र, स्नेही जीवगण भी (इत्था अस्तौत्) इसी प्रकार तेरी स्तुति करता है। तू वही है (यत्) जो (दस्यु-हत्ये) दुष्टों को नाश करने के लिये (कुत्स-पुत्रम् आवः) दुष्टों को काटने वाले और बहुतों की रक्षा करने वाले बल की रक्षा करता और (दस्यु-हत्ये) दुष्टों के नाश के लिये (यत्) जो (दस्यु-वत्सम्) दुष्टों को बसाने वाले को (प्र आवः) खूब विनष्ट करता है। इति षष्ठोऽध्यायः ॥ इति सप्तविंशो वर्गः। इति पञ्चमोऽध्यायः॥
टिप्पणी
अत्र अवतिहिंसार्थः।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः कौत्सः सुमित्रो दुर्मित्रो* वा॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः- १ पिपीलिकामध्या उष्णिक्। ३ भुरिगुष्णिक्। ४, १० निचृदुष्णिक्। ५, ६, ८, ९ विराडुष्णिक्। २ आर्ची स्वराडनुष्टुप्। ७ विराडनुष्टुप्। ११ त्रिष्टुप्॥ *नाम्ना दुर्मित्रो गुणतः सुमित्रो यद्वा नाम्ना सुमित्रो गुणतो दुर्मित्रः स ऋषिरिति सायणः।
संस्कृत (1)
पदार्थः
(असुर्य) असुषु प्राणेषु रममाणाय जीवाय हित-हितकर परमात्मन् ! (त्वा प्रति) त्वाम्प्रति त्वामिष्टदेवं मत्वा (सुमित्रः) त्वया सह सुष्ठु स्नेहकर्त्ता-आस्तिकः (शतं-वा) शतवारं यद्वा तदधिकवारम् (इत्था) एवं (अस्तौत्) स्तौति (इत्था) एवं (दुर्मित्रः) यस्त्वां न स्निह्यति नास्तिको जनः प्रलम्भनेन (अस्तौत्) स्तौति तत्र द्वयोः (कुत्सपुत्रं यद् दस्युहत्ये-आवः) स्तुतिकर्तुः पुत्रम् “कुत्सः कर्त्ता स्तोमानाम्” [निरु० ३।११] तदपेक्षयाऽधिकस्तुतिकर्त्तारं पापिनो हननप्रसङ्गे समन्तात् रक्षसि (यत्) यतः (दस्युहत्ये) पापिनो हननप्रसङ्गे (कुत्सवत्सं प्र आवः) स्तुतिकर्त्तुर्वत्सं तदपेक्षयाप्यधिकं स्तोतारं प्रेरकं रक्षसि ॥११॥
इंग्लिश (1)
Meaning
O lord of cosmic energy of pranic existence, thus does the positive friend of divinity adore you a hundred ways and more. Thus does the negative friend of negativities adore you a hundred times and more, you who save the child of the pious in the elimination of evil, you who protect the darling child of the celebrant in the struggle against negationists.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्मा प्राणधारी जीवासाठी हितकर आहे. परमात्मा स्नेहकर्ता आहे. आस्तिक स्तोता स्तुती करतो व नास्तिक नकली स्तुती करतो. या दोघांपैकी पापीला नष्ट करतो व स्तुती करणाऱ्याचे परमात्मा रक्षण करतो. ॥११॥
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