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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 105 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 105/ मन्त्र 6
    ऋषिः - कौत्सः सुमित्रो दुर्मित्रो वा देवता - इन्द्र: छन्दः - विराडुष्निक् स्वरः - ऋषभः

    प्रास्तौ॑दृ॒ष्वौजा॑ ऋ॒ष्वेभि॑स्त॒तक्ष॒ शूर॒: शव॑सा । ऋ॒भुर्न क्रतु॑भिर्मात॒रिश्वा॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । अ॒स्तौ॒त् । ऋ॒ष्वऽओ॑जाः॒ । ऋ॒ष्वेभिः॑ । त॒तक्ष॑ । शूरः॑ । शव॑सा । ऋ॒भुः । न । क्रतु॑ऽभिः । मा॒त॒रिश्वा॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रास्तौदृष्वौजा ऋष्वेभिस्ततक्ष शूर: शवसा । ऋभुर्न क्रतुभिर्मातरिश्वा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र । अस्तौत् । ऋष्वऽओजाः । ऋष्वेभिः । ततक्ष । शूरः । शवसा । ऋभुः । न । क्रतुऽभिः । मातरिश्वा ॥ १०.१०५.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 105; मन्त्र » 6
    अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 27; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (ऋष्वौजाः) महान् ओजस्वी परमात्मा (ऋष्वेभिः) महान् गुणों से उसका स्तुतिकर्ता (प्र अस्तौत्) बहुत स्तुति करता है, वह परमात्मा (शूरः) विक्रान्त (शवसा) अपने बल से (ततक्ष) इस जगत् को रचता है (ऋभुः-न) जैसे कोई शिल्पी रथकार रथ को रचता है (क्रतुभिः) कर्मों से (मातरिश्वा) महान् आकाश में गति करनेवाला व्यापनेवाला परमात्मा  है ॥६॥

    भावार्थ

    महान् ओजस्वी परमात्मा अपने महान् गुणों से स्तुत किया जाना चाहिए, वह अपने बल से जगत् को रचता है और विविध कर्मों द्वारा महान् आकाश में भी व्यापनेवाला परमात्मा भासित होता है ॥६॥

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    विषय

    ऋष्वौजाः

    पदार्थ

    [१] (ऋष्वौजाः) = दर्शनीय बलवाला अथवा व्याप्त बलवाला (ऋष्वेभिः) = दर्शनीय व व्यापक [=उदारतावाले] कर्मों से (प्रास्तौत्) = प्रभु का स्तवन करता है। प्रभु की उपासना वस्तुतः उन्हीं कर्मों से होती है जो सुन्दर हैं, उदारता को लिए हुए हैं । [२] (शूरः) = यह काम-क्रोधादि शत्रुओं का हिंसन करनेवाला (शवसा) = शक्ति के द्वारा (ततक्ष) = निर्माणात्मक कार्यों को करता है। यह (मातरिश्वा) = मातृगर्भ में बढ़नेवाला जीव (क्रतुभिः) = अपने कर्मों व प्रज्ञानों के द्वारा (ऋभुः न) = [उरु भाति] खूब देदीप्यमान प्रभु की तरह हो जाता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु का स्तवन सुन्दर व्यापक कर्मों के द्वारा होता है ।

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    विषय

    सब ज्ञानों और यज्ञादि फलों का दाता प्रभु।

    भावार्थ

    (ऋष्व-ओजाः) दर्शनीय महान् बल-पराक्रम वाला प्रभु (ऋष्वेभिः) ज्ञान का साक्षात् दर्शन करने वाले ऋषियों, विद्वानों द्वारा (प्र अस्तौत्) ज्ञान का उपदेश करता है वा उत्तम रीति से स्तुति किया जाता है। वह (शूरः) शूरवीर अज्ञान का नाशक (ऋभुः) सत्य ज्ञान से प्रकशित होने वाला, महान् तेजस्वी, (शवसा) ज्ञान और बल से (क्रतुभिः) नाना कर्मों द्वारा (मातरिश्वा) जगत् के निर्माण करने वाला प्रकृति में व्यापक प्रभु ही (ततक्ष) इस जगत् को बनाता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः कौत्सः सुमित्रो दुर्मित्रो* वा॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः- १ पिपीलिकामध्या उष्णिक्। ३ भुरिगुष्णिक्। ४, १० निचृदुष्णिक्। ५, ६, ८, ९ विराडुष्णिक्। २ आर्ची स्वराडनुष्टुप्। ७ विराडनुष्टुप्। ११ त्रिष्टुप्॥ *नाम्ना दुर्मित्रो गुणतः सुमित्रो यद्वा नाम्ना सुमित्रो गुणतो दुर्मित्रः स ऋषिरिति सायणः।

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (ऋष्वौजाः) महौजस्वी “ऋष्वः-महन्नाम” [निघ० ३।३] (ऋष्वेभिः) महद्गुणैस्तस्य स्तुतिकर्त्ता (प्र अस्तौत्) प्रकृष्टं स्तौति स च परमात्मा (शूरः-शवसा ततक्ष) विक्रान्तो बलेन एतज्जगत्तक्षति करोति “तक्षति करोतिकर्मा” [निरु० ४।१९] (ऋभुः-न क्रतुभिः-मातरिश्वा) यथा कश्चिच्छिल्पी रथं तक्षति करोति-ऋभू रथस्याङ्गानि सन्दधत् परुषा परुः” कर्मभिः सोऽन्तरिक्षे महाकाशे व्याप्नुवन् सन् जगत् करोति “मातरिश्वा मातर्यन्तरिक्षे श्वसिति” [निरु० ७।२६] ॥६॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, glorious lord of omnipotence, is universally adored and served by cosmic forces and he, Matarishva, mighty presence active in universal nature, as Rbhu, cosmic architect, creates and structures the universe by his divine vision, intelligence and shaping powers.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    महान ओजस्वी परमात्मा आपल्या गुणांमुळे प्रशंसित असतो. तो आपल्या बलाने या जगाची निर्मिती करतो व विविध कर्मांद्वारे महान आकाशालाही व्यापतो. ॥६॥

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