ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 105/ मन्त्र 7
ऋषिः - कौत्सः सुमित्रो दुर्मित्रो वा
देवता - इन्द्र:
छन्दः - विराडनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
वज्रं॒ यश्च॒क्रे सु॒हना॑य॒ दस्य॑वे हिरीम॒शो हिरी॑मान् । अरु॑तहनु॒रद्भु॑तं॒ न रज॑: ॥
स्वर सहित पद पाठवज्र॑म् । यः । च॒क्रे । सु॒ऽहना॑य । दस्य॑वे । हि॒री॒म॒शः । हरी॑मान् । अरु॑तऽहनुः । अद्भु॑तम् । न । रजः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
वज्रं यश्चक्रे सुहनाय दस्यवे हिरीमशो हिरीमान् । अरुतहनुरद्भुतं न रज: ॥
स्वर रहित पद पाठवज्रम् । यः । चक्रे । सुऽहनाय । दस्यवे । हिरीमशः । हरीमान् । अरुतऽहनुः । अद्भुतम् । न । रजः ॥ १०.१०५.७
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 105; मन्त्र » 7
अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 27; मन्त्र » 2
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अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 27; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(यः) जो (हिरीमशः) दुःख हरणशील गुणवाला (हिरीमान्) तेजस्वी परमात्मा (सुहनाय) सुगमता से सहन करने योग्य (दस्यवे) नाशकारी दुष्ट जन के लिये (वज्रं चक्रे) शस्त्र फेंकता है (अरुत हनुः) अरुग्ण अबाध्य हनन साधनवाला (अद्भुतं न रजः) अद्भुत आकाश के समान व्यापक शक्तिमान् अबाध्य है ॥७॥
भावार्थ
परमात्मा दुःख हरण गुणवाला तेजस्वी अनन्त आकाश जैसा व्यापक शक्तिवाला अबाध्य शस्त्रवाला दुष्टजन को सुगमता से नष्ट करनेवाला है, उसका भय कर पाप न करना चाहिये ॥७॥
विषय
हिरीमशः - हिरीमान्
पदार्थ
[१] (यः) = जो (सुहनाय) = [सुष्ठु हननीयाय] खूब ही हनन के योग्य (दस्यवे) = [दसु उपक्षये] नाश करनेवाली काम-क्रोधादि वृत्तियों के लिए, इन वृत्तियों को दूर करने के लिए, (वज्रम्) = [वज गतौ] क्रियाशीलतारूप वज्र को चक्रे करता है । क्रियाशीलता के द्वारा इन अशुभ वृत्तियों को अपने से दूर रखता है। वह (हिरीमश:) = [हिरीमनि शेते] तेजस्विता व कान्ति में निवास करनेवाला होता है । (हिरीमान्) = वेगवाला होता है। वासनाओं के विनष्ट होने पर ज्ञानेन्द्रियाँ चमक उठती हैं और यह ज्ञान की दीप्ति के कारण तेजस्वी व कान्त प्रतीत होता है। कर्मेन्द्रियों के शुद्ध होने पर यह वेगवाला होता है। [२] (अरुतहनुः) = [रुत= disease] नीरोग हनुवाला यह होता है, इसके (हनु) = [= जबड़े] इस प्रकार मात्रा में भोजन करते हैं कि रोग का वहाँ प्रश्न ही नहीं पैदा होता । (न च) = और इसका (रजः) = रजोगुण (अद्भुतम्) = अद्भुत होता है। सत्त्वगुण के सम्मिश्रण के कारण इसका रजोगुण इसके अपकर्म का कारण नहीं होता। रजोगुण इसमें क्रियाशीलता को पैदा करता है, पर इसके जीवन को वासनामय नहीं बनाता।
भावार्थ
भावार्थ- क्रियाशील पुरुष क्रियाशीलतारूप वज्र के द्वारा वासनाओं को विनष्ट करके ज्योतिर्मय व वेगवाला होता है।
विषय
समस्त स्तुतियों का सर्वोपरि लक्ष्य प्रभु।
भावार्थ
(यः) जो (हिरीमशः) कान्तियुक्त, उज्ज्वल तेज वाला, (हिरीमान्) वेगवान्, पदार्थों या शक्तियों का स्वामी, (दस्यवे सुहननाय) नाशकारी दुष्ट जनों को ताड़ना करने के लिये (वज्रं) पापों से बचाने वाले शस्त्र रूप प्राणदण्ड या बल को प्रकट करता है (अरुत-हनुः) उसकी दण्डदात्री शक्ति कभी बाधित नहीं होती, और उसका (रजः अद्भुतं न) तेज भी आश्चर्यजनक ही है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः कौत्सः सुमित्रो दुर्मित्रो* वा॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः- १ पिपीलिकामध्या उष्णिक्। ३ भुरिगुष्णिक्। ४, १० निचृदुष्णिक्। ५, ६, ८, ९ विराडुष्णिक्। २ आर्ची स्वराडनुष्टुप्। ७ विराडनुष्टुप्। ११ त्रिष्टुप्॥ *नाम्ना दुर्मित्रो गुणतः सुमित्रो यद्वा नाम्ना सुमित्रो गुणतो दुर्मित्रः स ऋषिरिति सायणः।
संस्कृत (1)
पदार्थः
(यः हिरीमशः-हिरीमान्) यः खलु दुःखहरणशीलगुणवान् हिरण्यवान् तेजस्वी “हिरिश्मश्रुः-हिरण्यमिव…” [ऋ० ५।७।७ दयानन्दः] “हृधातोः-ईमन्-प्रत्ययः, ऋकारस्य इकारो रपर-आदेशः पुनर्मत्वर्थीयः शः प्रत्ययो मतुप् च” (सुहनाय दस्यवे) सुगमतया हन्तुं योग्याय नाशकारिणे दुष्टाय (वज्रं चक्रे) शस्त्रं क्षिपति (अरुत हनुः) अरुजत हननसाधनः-अबाध्यहनन-साधनमस्य तथाभूतः “रुतस्य रुग्णस्य पृषोदरादित्वाज्जकारलोपः” [यजु० १६।४९ दयानन्दः] “हन्तुर्हन्तेः” [निरु० ६।१७] (अद्भुतं न रजः) अद्भुतमन्तरिक्ष-आकाश इवाबाध्यः स परमात्मा ॥७॥
इंग्लिश (1)
Meaning
He, the lord who made the Vajra, cosmic force of universal dynamics, for breaking and building, consumption and creation through transformation of the forms in evolutionary process, and for emergence of light over darkness and positive over negative, is the lord of golden glory. He commands golden blissful powers and inviolable creative imagination, and is mysterious and sublime like the expansive space and time continuum.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्मा दु:ख हरण करणारा, तेजस्वी, अनंत आकाशाप्रमाणे व्यापक, शक्तिमान, अबाध्य, शस्त्रवान, दुष्ट लोकांना सुगमतेने नष्ट करणारा आहे. त्याचे भय बाळगून पाप करता कामा नये. ॥७॥
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