ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 108/ मन्त्र 8
एह ग॑म॒न्नृष॑य॒: सोम॑शिता अ॒यास्यो॒ अङ्गि॑रसो॒ नव॑ग्वाः । त ए॒तमू॒र्वं वि भ॑जन्त॒ गोना॒मथै॒तद्वच॑: प॒णयो॒ वम॒न्नित् ॥
स्वर सहित पद पाठआ । इ॒ह । गा॒म॒न् । ऋष॑यः । सोम॑ऽशिताः । अ॒यास्यः॑ । अङ्गि॑रसः । नव॑ऽग्वाः । ते । ए॒तम् । ऊ॒र्वम् । वि । भ॒ज॒न्त॒ । गोना॑म् । अथ॑ । ए॒तत् । वचः॑ । प॒णयः॑ । वम॑न् । इत् ॥
स्वर रहित मन्त्र
एह गमन्नृषय: सोमशिता अयास्यो अङ्गिरसो नवग्वाः । त एतमूर्वं वि भजन्त गोनामथैतद्वच: पणयो वमन्नित् ॥
स्वर रहित पद पाठआ । इह । गामन् । ऋषयः । सोमऽशिताः । अयास्यः । अङ्गिरसः । नवऽग्वाः । ते । एतम् । ऊर्वम् । वि । भजन्त । गोनाम् । अथ । एतत् । वचः । पणयः । वमन् । इत् ॥ १०.१०८.८
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 108; मन्त्र » 8
अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 6; मन्त्र » 3
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अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 6; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(इह) इस स्थान पर (ऋषयः) ऋषि-प्रगतिशील पदार्थ (आ गमन्) आते हैं (सोमशितः) ओषधिरस से तीक्ष्ण हुए-ओषधिरस को साथ लेकर वायुएँ (अयास्यः) मुख्य वायुः-पुरोवात (अङ्गिरसः) प्रशान्त पृथिवीवायुएँ (नवग्वाः) नव गतिवाली-सरलगतिवाले (ते) वे सब गतिप्रेरक वायुएँ आकर (एतं-गोनाम् ऊर्वम्) इस रश्मियों जलों के आच्छादक को (वि भजन्त) विभक्त छिन्न-भिन्न कर देती हैं (पणयः) हे पणियों वणिजों की भाँति जलों के छिपानेवाले मेघों ! (एतत्-वचः) यह तुम्हारा वचन (वमन्-इत्) वमन जैसा होगा, तुम्हें स्वीकार करना पड़ेगा ॥८॥ आध्यात्मिकयोजना−हे विषयव्यवहार में प्रवृत्त इन्द्रिय प्राणों ! इस शरीर में न केवल मैं चेतना ही आई हूँ, किन्तु सोम्य ओषधियों के भोजन से उत्तेजित प्राणापानादि तीक्ष्ण प्राण और मुख्य प्राण हृदयस्थ तथा अन्य प्राण देवदत्त धनञ्जय आदि रसवाहक नवगतिवाले प्राण वे सब गतिप्रेरक आते हैं, वे नाड़ियों के जन्म से प्राप्त प्रतिबन्धक को विभक्त कर देंगे, पुनः विषयग्रहण वमन की भाँति ॥८॥
भावार्थ
मेघों में घिरे जलों को पुरुवात तथा पृथ्वी की वायुएँ ओषधिरस लेकर ऊपर आकाश में जाती हैं, तो मेघों के प्रतिबन्धक को छिन्न-भिन्न कर देती हैं, नीचे जल बरसने लगते हैं ॥८॥
विषय
आन्तर धन के रक्षक 'ऋषि'
पदार्थ
[१] सरमा पणियों को उत्तर देती हुई कहती है कि (इह) = इस आन्तर ज्ञान निधि के रक्षण के मार्ग पर (ऋषयः) = तत्त्वद्रष्टा लोग (आगमन्) = गति करते हैं। वे तत्त्वद्रष्टा जो (सोमशिताः) = सोम के द्वारा तीव्र किये गये हैं। सोम, अर्थात् वीर्य के रक्षण से जिनकी बुद्धि तीव्र बनी है। (अयास्यः) = जो अनथक है, [अ+यस्], (अंगिरसः) = अंग-प्रत्यंग में रसवाला है और (नवग्वाः) = स्तुत्य गतिवाले हैं [नु स्तुतौ]। ये लोग आन्तर निधि के रक्षण के मार्ग पर प्रवृत्त होते हैं । [२] (ते) = वे (एतम्) = इस (गोनां ऊर्वम्) = इन्द्रियरूप गौवें के समूह को (विभजन्त) = अविद्या पर्वत की गुहा से विभक्त [=पृथक्] करते हैं । सो (पणयः) = व्यवहारी लोगो ! अथ अब तुम (एतद् वचः) = इस वचन को कि रेकु पदमलकमाजगन्थ' 'हे बुद्धि ! तू भी व्यर्थ ही इस शंकास्पद स्थान को आयी है ' (इत्) = निश्चय से (वमन्) = उद्गीर्ण ही कर दें। अर्थात् भय की कोई बात नहीं। 'ऋषि, सोमशित्, अयास्य, अंगिरस् व-नवग्व' वासनाओं को जीतकर आन्तर निधि का रक्षण करते हैं। वासनारूप शत्रु प्रबल हैं, परन्तु बुद्धि को प्रधानता देनेवाले व्यक्ति इनको जीतकर आन्तर धन का रक्षण करते हैं, अपनी ज्ञानेन्द्रियों, कर्मेन्द्रियों व प्राणों को ठीक रखने का प्रयत्न करते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ- इन्द्रियरूप गौवों का रक्षण 'ऋषि, सोमशित्, अयास्य, अंगिरस् व नवग्व' करते हैं ।
विषय
प्राणों का इन्द्रियों पर वश।
भावार्थ
(इह) इस देह में (नव-ग्वाः) संख्या में नव मार्गो से गति करने वाले (अंगिरसः) अंग में बल के तुल्य प्राण गण (सोमशिताः) प्रेरक वीर्य बल से तीक्ष्ण होकर (ऋषयः) ग्राह्य रूपादि का दर्शन करने वाले इन्द्रिय गण और (अयास्यः) मुख में स्थित मुख्य प्राण भी (आ गमन्) प्राप्त हैं। (ते) वे (एतम्) इस (गोनाम् ऊर्वं) इन्द्रियद्वारों के समूह रूप देह को (वि अभजन्त) विविध रूप से सेवन कर रहे हैं। (अथ) और (पणयः) स्तुतिकर्त्ता, उपदेष्टा जन (एतत् इत वचः) इसी बात को (वमन्) मुख से निकालते हैं, कहते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः पणयोऽसुराः। २, ४, ६, ८, १०, ११ सरमा देवशुनी॥ देवता—१, ३, ५, ७, ९ सरमा। २, ४, ६, ८, १०, ११ पण्यः॥ छन्दः—१ विराट् त्रिष्टुप्। २, १० त्रिष्टुपू। ३–५, ७-९, ११ निचृत् त्रिष्टुप्। ६ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। एकादशर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(इह) अत्र स्थाने (ऋषयः आः गमन्) ऋषयः आगच्छन्ति (सोमशिताः) सोमेन-ओषधिरसेन तीक्ष्णीभूता ओषधिरसान् सह नीत्वा वाताः (अयास्यः) मुख्यो वायुः पुरोवातः (अङ्गिरसः) प्रशान्ताः पार्थिवा वायवः “अङ्गिरसः प्रशान्ता वायवः” [ऋ० ६।९९।११ दयानन्दः] (नवग्वः) नवनीतगतयः-सरलगतिका वायवः एते सर्वे गतिप्रेरका आगच्छन्ति (ते-एतं गोनाम्-ऊर्वं वि भजन्त) ते खल्वागत्येदं रश्मीनां जलानां वाऽऽच्छादकम् “ऊर्वमाच्छादकम्” [ऋ० ४।४८।५ दयानन्दः] विभक्तं छिन्नं भिन्नं कुर्वन्ति (पणयः-एतत्-वचः-वमन इत्) पणयो गोरक्षकाः-रश्मीनां जलानां गोपितारः ! एतद् गर्ववचनं वमनमिव प्रतिग्रहीष्यथेति ॥८॥ आध्यात्मिकयोजना−हे विषयग्रहणव्यापारप्रवृत्तेइन्द्रियप्राणाः ! इह शरीरे न केवलमहं चेतनैवागता किन्तु सोमभोज्येनोत्तेजिताः प्राणापानसमानोदानव्यानास्तीक्ष्णाः प्राणाः मुख्यप्राणो हृदयस्थितः-अन्ये प्राणा देवदत्तधनञ्जयादयोऽथ नवगतयः प्राणाः-रसवाहकाः, ते सर्वे ऋषयो गतिप्रेरका-आगच्छन्ति आगमिष्यन्ति ते, नाडीनाम्-आच्छादनं प्रतिबन्धकं जन्मतः प्राप्तं विभक्तं करिष्यन्ति वमनं विषयरसानां वमनं पुनर्ग्रहणं करिष्यन्ति ॥८॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Sarama: O Panis, calculative clouds of small gain, here come the sharpest shears of wind, stormy gusts of winds, sudden whirl winds, which all will shatter this concentration of waves and vapours of living possibilities of the rains of life, (render them meaningless and purposeless without the presence of Indra, the soul). Mind therefore, and withdraw those words.
मराठी (1)
भावार्थ
मेघाने व्यापलेल्या जलाला पूर्वीय वायू व पृथ्वीचा वायू औषधीरस घेऊन वर आकाशात जातात तेव्हा मेघाच्या प्रतिबंधकाला छिन्नभिन्न करतात व खाली जलवृष्टी होते. ॥८॥
टिप्पणी
मंत्र ८ - हे विषय ग्रहण व्यापार प्रवृत्तेन्द्रिय प्राणा: । इह शरीरे न केवलमहं चेतनैवागता किन्तु सोमभोज्येनोत्तेजिता: प्राणापानसमानो दानव्यानास्तीक्ष्णा: प्राणा: मुख्यप्राणो हृदयस्थित: - अन्ये प्राणा देवदत्तधनंजयादयोऽथ नवगतय: प्राणा: - रसवाहका:, ते सर्वे ऋषयो गतिप्रेरका - आगच्छन्ति आगमिष्यन्ति ते, नाडीनाम् - आच्छादनं प्रतिबंधकं जन्मत: प्राप्तं विभक्तं करिष्यन्ति वमनं विषयरसानां वमनं पुनर्ग्रहणं करिष्यन्ति ॥८॥ $ भाषा - हे विषय व्यवहारात प्रवृत्त इंद्रिय व प्राणांनो! या शरीरात केवळ मीच चेतना आलेली नसून, सोम्य औषधींच्या भोजनाने उत्तेजित प्राणापान इत्यादी तीक्ष्ण प्राण व हृदयस्थ युख्य प्राण व अन्य प्राण देवदत्त धनंजय इत्यादी रसवाहक नवीन गती असणारे प्राण सर्व गतिप्रेरक येतात. नाड्यांच्या जन्माने प्राप्त प्रतिबंधकाला विभक्त करतात पुन्हा विषय ग्रहण वमनाप्रमाणे. ॥८॥
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