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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 108 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 108/ मन्त्र 9
    ऋषिः - पणयोऽ सुराः देवता - सरमा छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    ए॒वा च॒ त्वं स॑रम आज॒गन्थ॒ प्रबा॑धिता॒ सह॑सा॒ दैव्ये॑न । स्वसा॑रं त्वा कृणवै॒ मा पुन॑र्गा॒ अप॑ ते॒ गवां॑ सुभगे भजाम ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ए॒व । च॒ । त्वम् । स॒र॒मे॒ । आ॒ऽज॒गन्थ॑ । प्रऽबा॑धिता । सह॑सा । दैव्ये॑न । स्वसा॑रम् । त्वा॒ । कृ॒ण॒वै॒ । मा । पुनः॑ । गाः॒ । अप॑ । ते॒ । गवा॑म् । सु॒ऽभ॒गे॒ । भ॒जा॒म॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एवा च त्वं सरम आजगन्थ प्रबाधिता सहसा दैव्येन । स्वसारं त्वा कृणवै मा पुनर्गा अप ते गवां सुभगे भजाम ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    एव । च । त्वम् । सरमे । आऽजगन्थ । प्रऽबाधिता । सहसा । दैव्येन । स्वसारम् । त्वा । कृणवै । मा । पुनः । गाः । अप । ते । गवाम् । सुऽभगे । भजाम ॥ १०.१०८.९

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 108; मन्त्र » 9
    अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 6; मन्त्र » 4
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (सरमे) हे सरणशील स्तनयित्नु-वाक् ! (एव च) ऐसे (त्वम्) तू (दैव्येन सहसा) देवसम्बन्धी या देवों में होनेवाले बल से (प्रबाधिता) प्रबाधित हुई प्रेरित हुई (आ जगन्थ) आई है, (त्वं स्वसारम्) तुझे बहिन (कृणवै) करें-बनावें हम (मा पुनः अपगाः) मत फिर देवों में लौट (सुभगे) हे सौभाग्यवती ! (ते) तेरे लिये (गवां भजाम) जलों का भाग देते हैं ॥९॥आध्यात्मिकयोजना−अच्छा तो ! देह से अन्य देह को प्राप्त होनेवाली चेतना ! परमात्मदेव के बल से प्रेरित शरीर में आई तुझे हम इन्द्रिय प्राण भगिनी-बहिन या स्वकीय चेतनत्व को सारयित्री प्रसारयित्री मानते हैं, शरीर से पुनः न जा, हे सुधनवती ! विषयप्रवृत्तियों का यथेष्ट भाग तेरे विभक्त करेंगे-देंगे ॥९॥

    भावार्थ

    स्वार्थी लोग अनुचित धन पर अधिकार करनेवाले मध्य में किसी समझानेवाले को भी फुसलाया करते हैं, तू भी इसमें से भाग ले ले और हमारे पक्ष में रह ॥९॥

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    विषय

    बुद्धि का दूर न चले जाना

    पदार्थ

    [१] हे (सरमे) = बुद्धि ! (त्वम्) = तू (एवा) = इस प्रकार (दैव्येन सहसा) = देव के, प्रभु के सहस् से [giolence] प्रबल पीड़ा से (प्रबाधिता) = पीड़ित हुई हुई (आजगन्थ च) = आई ही है । जब कभी जीवन में कोई प्रबल धक्का लगता है, तो उस समय बुद्धि विषयों से पराङ्मुख होकर प्रभु की ओर लौटने की करती है । [२] जो लोग आजतक सांसारिक व्यवहारों के अन्दर ही उलझे हुए थे, अब वे पणि भी कुछ आत्म-प्रवण होते हैं । वे बुद्धि से कहते हैं कि (त्वा) = तुझे (स्वसारम्) = [स्वं सारयति] आत्मतत्त्व की ओर ले चलनेवाला (कृणवै) = करते हैं । अब (पुनः) = फिर (मा गा:) = हमारे से दूर जानेवाली न हो। तू हमारे में स्थिर बनी रहे । हे (सुभगे) = ज्ञानरूप ऐश्वर्यवाली बुद्धि ! अब (अप) = इन इन्द्रियों को अविद्याजनित विषय-वासनाओं से दूर करके (ते) = तेरे साथ (गवाम्) = इन इन्द्रियों का (भजाम) = सेवन करते हैं । अर्थात् सांसारिक विषयों में न फँसकर ज्ञानेन्द्रियों से ज्ञानार्जन को और कर्मेन्द्रियों से यज्ञादि कर्मों को हम करनेवाले बनते हैं । हमारी इन्द्रियों से होनेवाली सब क्रियाएँ बुद्धिपूर्वक होती हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- हमारे से बुद्धि दूर न चली जाये। हमारी सब क्रियाएं बुद्धिपूर्वक हों। यह बुद्धि हमें आत्मतत्त्व की ओर ले चलनेवाली हो ।

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    विषय

    चेतनाशक्ति से उनका सम्बन्ध।

    भावार्थ

    हे (सरमे) चितिशक्ते ! हे चित्तवृत्ते ! हे ज्ञानकर्त्रि बुद्धे ! (त्वं एव च) तू इस प्रकार (दैव्येन प्र-बाधिता) शक्तिप्रद, सर्वप्रकाशक (सहसा) बल, तेज से प्रेरित होकर (आ-जगन्थ) आई है। (वा) तुझे (स्व-सारं) स्वसा, भगिनी के समान हम अपना सहयोगी बनाते हैं। (मा पुनः गाः) तू अब यहां से न जा। हे (सु-भगे) उत्तम ऐश्वर्ययुक्त ! (ते) तुझे भी हम (गवाम् अव भजेम) इन्द्रियों में बांट देते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः पणयोऽसुराः। २, ४, ६, ८, १०, ११ सरमा देवशुनी॥ देवता—१, ३, ५, ७, ९ सरमा। २, ४, ६, ८, १०, ११ पण्यः॥ छन्दः—१ विराट् त्रिष्टुप्। २, १० त्रिष्टुपू। ३–५, ७-९, ११ निचृत् त्रिष्टुप्। ६ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। एकादशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (सरमे) हे सरणशीले स्तनयित्नु वाक् ! (एव च) एवं तर्हि (त्वं दैव्येन सहसा) त्वं देवसम्बन्धिना देवेषु भवेन वा बलेन (प्रबाधिता-आजगन्थ) प्रेरिताऽथागता (त्वां स्वसारं कृणवै) त्वां निजभगिनीं कुर्मः “छान्दसमेकवचनम्” (मा पुनः-अपगाः) तत्र देवेषु पुनर्माऽपगच्छ (सुभगे) हे सौभाग्यवति ! (ते गवां भजाम) तुभ्यं जलानां यथायोग्यं यथेच्छं वा भागं विभजाम विभक्तं (दद्मः) ॥९॥ आध्यात्मिकयोजना−एवं तर्हि देहाद् देहान्तरगन्ति चेतने ! परमात्मदेवभवेन परमात्मबलेन वा प्रेरिता शरीरे त्वां प्राप्ता वयमिन्द्रियप्राणाः भगिनी यद्वा स्वकीयं चेतनत्वं सारयित्रीं मन्यामहे शरीरात् पुनर्न गच्छ, सुधनवति ! विषयप्रवृत्तीनां यथेच्छभागं तुभ्यं विभक्तं करिष्यामो दास्यामः ॥९॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Panis: O Sarama, thunderous voice and lightning version of Indra, this way, then, you come equipped with divine powers and forces. We then accept you as our self-fluent and self-energised sister. O glorious sister, pray do not go back, we share the waves and vapours of life with you, and we give you what is yours.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    अनुचित धनावर कब्जा करणाऱ्या स्वार्थी लोकांना कुणी समजाविण्यास गेले असता ते त्यांनाही बहकावू शकतात. तेव्हा हे गतिमान वाणी याबाबतीत तू आम्हाला मदत कर. ॥९॥

    टिप्पणी

    मंत्र ९ - एवं तर्हि देहाद् देहान्तरगन्ति चेतने! परमात्मदेव भवेन परमात्मबलेन वा प्रेरिता शरीरे त्वां प्राप्तां वयमिन्द्रिय प्राणा: भगिनी यद्वा स्वकीयं चेतनत्वं सारयित्रीं मन्यामहे शरीरात् पुनर्न गच्छ सुधनवति! विषयप्रवृत्तीनां यथेच्छ भागं तुभ्यं विभक्तं करिष्यामो दास्याम: ॥९॥ $ भाषा - एका देहातून दुसऱ्या देहाला प्राप्त होणारी चेतना! परमात्म देवाच्या बलाने प्रेरित शरीरात आलेल्या तुला आम्ही इंद्रिय प्राण भगिनी-बहीण किंवा स्वकीय चेतनत्वाला सारयित्री, प्रसारयित्री मानतात. तू शरीरातून जाऊ नकोस सुधनवती! विषयप्रवृत्तीचा भाग तुझ्यासाठी विभक्त करू. ॥९॥

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