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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 111 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 111/ मन्त्र 3
    ऋषिः - अष्ट्रादंष्ट्रो वैरूपः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    इन्द्र॒: किल॒ श्रुत्या॑ अ॒स्य वे॑द॒ स हि जि॒ष्णुः प॑थि॒कृत्सूर्या॑य । आन्मेनां॑ कृ॒ण्वन्नच्यु॑तो॒ भुव॒द्गोः पति॑र्दि॒वः स॑न॒जा अप्र॑तीतः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्रः॑ । किल॑ । श्रुत्यै॑ । अ॒स्य । वे॒द॒ । सः । हि । जि॒ष्णुः । प॒थि॒ऽकृत् । सूर्या॑य । आत् । मेना॑म् । कृ॒ण्वन् । अच्यु॑तः । भुव॑त् । गोः । पतिः॑ । दि॒वः । स॒न॒ऽजाः । अप्र॑तिऽइतः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्र: किल श्रुत्या अस्य वेद स हि जिष्णुः पथिकृत्सूर्याय । आन्मेनां कृण्वन्नच्युतो भुवद्गोः पतिर्दिवः सनजा अप्रतीतः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्रः । किल । श्रुत्यै । अस्य । वेद । सः । हि । जिष्णुः । पथिऽकृत् । सूर्याय । आत् । मेनाम् । कृण्वन् । अच्युतः । भुवत् । गोः । पतिः । दिवः । सनऽजाः । अप्रतिऽइतः ॥ १०.१११.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 111; मन्त्र » 3
    अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 10; मन्त्र » 3
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (इन्द्रः किल) ऐश्वर्यवान् परमात्मा ही (अस्य) इस उपासक की (श्रुत्यै) श्रुति श्रवण के लिये (वेद) आन्तरिक कामना को जानता है (सः-हि) वह ही (जिष्णुः) जयशील सब पर अधिकार करनेवाला है (सूर्याय) सूर्य के लिये (पथिकृत्) मार्ग बनाता है (आत्) अनन्तर (मेनाम्) वेदवाणी को (कृण्वन्) प्रकट करता हुआ (अच्युतः) निश्चल (भुवत्) है (गोः) पृथिवी का (दिवः) द्युलोक का (पतिः) पालक या स्वामी (सनजाः) सनातन (अप्रतीतः) परिणामरहित अनन्त है ॥३॥

    भावार्थ

    परमात्मा स्तुतिकर्त्ता उपासक की स्तुति सुनकर उसकी कामना पूर्ण करता है, आकाश के सूर्य जैसे महान् पिण्ड के लिये मार्ग बनाता है, वेदवाणी का प्रकाशक, पृथिवीलोक और सूर्यलोक का पालक स्वामी है ॥३॥

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    विषय

    जिष्णु:-अच्युतः

    पदार्थ

    [१] (इन्द्रः) = वे परमैश्वर्यशाली प्रभु (किल) = निश्चय से (अस्य श्रुत्यै) = इसकी प्रार्थना को सुनने के लिए वेद - जानते हैं । अर्थात् 'प्रभु हमारी प्रार्थना को न सुनें' यह बात नहीं है । परन्तु मूर्खतावश की गई प्रार्थना को वह अनसुना कर देते हैं । उनको पूरा करके उन्हें हमारा विनाश थोड़े ही करना है ? (सः) = वे प्रभु (हि) = ही (जिष्णुः) = विजयशील हैं। हमें जो भी विजय प्राप्त होती है, वह प्रभु ही कराते हैं । सूर्याय पथिकृत् इन सूर्य आदि पिण्डों के लिए वे ही मार्ग को बनाते हैं। चराचर सभी को प्रभु ही नियम में चला रहे हैं । [२] (आत्) = सृष्टि को बनाने के बाद एकदम ही वे प्रभु (मेनाम्) = इस ज्ञान देनेवाली मननीय वेदवाणी को (कृण्वन्) = 'अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा' आदि ऋषियों के हृदय में स्थापित करते हैं। (अच्युतः) = वे प्रभु किसी भी अधिक शक्तिशाली के द्वारा अपनी नियम व्यवस्था से च्युत नहीं किये जाते । वे प्रभु ही (गो:) = इस पृथिवी के तथा (दिवः) = द्युलोक के (पतिः) = स्वामी हैं। (सनजाः) = सदा से विद्यमान हैं । (अप्रतीत:) = किसी भी शत्रु से गन्तव्य नहीं है, अद्वितीय शक्तिशाली हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु ही हमारे लिए विजय को करते हैं। वे ही द्यावापृथिवी के स्वामी हैं । अनुपम शक्ति से चराचर का नियमन कर रहे हैं।

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    विषय

    ज्ञानदाता सूर्य भूमि का पालक, प्रभु।

    भावार्थ

    (इन्द्रः) वह ऐश्वर्यवान् प्रभु (श्रुत्यै) श्रवण द्वारा प्राप्त करने योग्य वेद से ही (अस्य) इस जगत् के ज्ञान को (वेद) प्राप्त कराता है। (सः हि जिष्णुः) वही सबका विजय करने वाला, सर्वोपरि है। वही (सूर्याय पथि-कृत्) सूर्य का मार्ग बनाने हारा है। (आत्) अनन्तर वही (अच्युतः) अविनाशी, अपरिज्ञेय प्रभु (मेनां कृण्वन्) सर्वमाननीय, ज्ञान कराने वाली वेदवाणी को प्रकट करता हुआ (दिवः) ज्ञान-प्रकाश और (गोः पतिः) वाणी का स्वामी अथवा (दिवः गो-पतिः) आकाश, सूर्य और भूमि का पालक (भुवत्) है। वह (सन-जाः) सनातन से विद्यमान और (अप्रतीतः) अपरिज्ञात तथा सबसे अधिक शक्तिशाली है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिरष्ट्रादष्ट्रो वैरूपः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः- १, २, ४ त्रिष्टुप्। ३, ६, १० विराट त्रिष्टुप्। ५, ७, ९ निचृत् त्रिष्टुप्। ८ पादानिचृत् त्रिष्टुप्॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (इन्द्रः किल) ऐश्वर्यवान् परमात्मा हि (श्रुत्यै-अस्य वेद) श्रुत्यै श्रवणाय श्रुतिश्रवणायास्योपासकस्य कामनां जानाति (सः-हि जिष्णुः) स एव जयशीलः (सूर्याय पथिकृत्) सूर्याय मार्गनिर्माताऽस्ति “चकार सूर्याय पन्थामन्वेतवा उ” [ऋ० १।२४।८] (आत्) अनन्तरं (मेनां कृण्वन्) वेदवाचम् “मेना वाङ्नाम”-[निघo १।११] प्रकटीकुर्वन् (अच्युतः-भुवत्) अच्युतो निश्चलो भवति (गोः-दिवः-पतिः) पृथिव्यास्तथा द्युलोकस्य च पालकः (सनजाः-अप्रतीतः) सनातनोऽनन्तः ॥३॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra knows the course of existence in entirety as is known by revelation of the Veda. He alone is the ultimate victorious over all, he alone sets the orbit for the sun, he alone reveals the sacred Word of divine knowledge. He alone is the master of heaven and earth, imperishable, eternal, infinite.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्मा स्तुतिकर्त्या उपासकाची स्तुती ऐकून त्याची कामना पूर्ण करतो. आकाशातील सूर्यासारख्या महान पिंडासाठी मार्ग बनवितो. वेदवाणीचा प्रकाशक परमात्मा पृथ्वीलोक व सूर्यलोकाचा पालक स्वामी आहे. ॥३॥

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