ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 112/ मन्त्र 10
ऋषिः - नभःप्रभेदनो वैरूपः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
अ॒भि॒ख्या नो॑ मघव॒न्नाध॑माना॒न्त्सखे॑ बो॒धि व॑सुपते॒ सखी॑नाम् । रणं॑ कृधि रणकृत्सत्यशु॒ष्माभ॑क्ते चि॒दा भ॑जा रा॒ये अ॒स्मान् ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒भि॒ऽख्या । नः॒ । म॒घ॒ऽव॒न् । नाध॑मानान् । सखे॑ । बो॒धि । व॒सु॒ऽप॒ते॒ । सखी॑नाम् । रण॑म् । कृ॒धि॒ । र॒ण॒ऽकृ॒त् । स॒त्य॒ऽशु॒ष्म॒ । अभ॑क्ते । चि॒त् । आ । भ॒ज॒ । रा॒ये । अ॒स्मान् ॥
स्वर रहित मन्त्र
अभिख्या नो मघवन्नाधमानान्त्सखे बोधि वसुपते सखीनाम् । रणं कृधि रणकृत्सत्यशुष्माभक्ते चिदा भजा राये अस्मान् ॥
स्वर रहित पद पाठअभिऽख्या । नः । मघऽवन् । नाधमानान् । सखे । बोधि । वसुऽपते । सखीनाम् । रणम् । कृधि । रणऽकृत् । सत्यऽशुष्म । अभक्ते । चित् । आ । भज । राये । अस्मान् ॥ १०.११२.१०
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 112; मन्त्र » 10
अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 13; मन्त्र » 5
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अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 13; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(वसुपते) हे वसुपालक तुझमें बसनेवालों के पालक (मघवन्) ऐश्वर्यवाले (सखे) हे मित्र परमात्मन् ! (नः नाधमानान्) हम याचना करते हुओं को (अभिख्या) आभिमुख्यरूप से देख (सखीनां बोधि) हमें अपने मित्रों को बोध दे या हमें जान (रणकृत्) हमारे विरोधी कामादियों से युद्ध करनेवाले ! (रणम्-कृधि) तू युद्ध कर (सत्यशुष्म) हे सत्यबलवाले-नित्य बलवन् ! (अभक्ते चित्) जो धन तूने किसी के लिये भक्त नहीं किया-नहीं दिया, उस अपने आनन्दरसरूप धन में (राये) ऐश्वर्य में (अस्मान्) हमें (आ भज) भलीभाँति भागी बना ॥१०॥
भावार्थ
परमात्मा में जो बसने के अधिकारी हैं, उनकी वह रक्षा करता और उन्हें अपना मित्र मान करके बोध देता है-ज्ञान देता है और देखता है, उनके अन्दर के कामादि शत्रुओं को नष्ट करता है और जो अलौकिक उसका आनन्दरूप धन है, उसे संसारीजन को नहीं देता, किन्तु उपासक को उसका भागी बनाता है ॥१०॥
विषय
'रणकृत्' प्रभु
पदार्थ
[१] हे (मघवन्) = सम्पूर्ण ज्ञान रूप ऐश्वर्यों के स्वामिन् प्रभो ! (नाधमानान्) = याचना व कामना करते हुए (न:) = हमें (अभिख्या) [ अभिख्यापनेन सा० ] = अपरा व पराविद्या के द्वारा [अभि=दोनों] (बोधि) = ज्ञानयुक्त करिये। हे (वसुपते) = सब वसुओं [निवास के लिए आवश्यक धनों] के स्वामिन्! (सखे) = मित्र प्रभो ! (सखीनाम्) = हम मित्रों का (बोधि) = आप ही ध्यान करिये। हमारे पर आपकी कृपादृष्टि सदा बनी रहे, हम आपकी आँख से ओझल न हों। [२] हे (रणकृत्) = हमारे लिए सब संग्रामों के करनेवाले प्रभो ! (रणं कृधि) = हमारे लिए आप इन हमारे अन्तः शत्रुओं के साथ युद्ध करिये । आप ही (सत्यशुष्म) = सत्य बलवाले हैं। शत्रुओं का शोषक बल आपके पास ही है। आप हमारे शत्रुओं का शोषण करके अभक्तेचित् निश्चय से अखण्ड राये धन में (अस्मान्) = हमें (आभजा) = भागी करिये [राये = रायि] । आपकी कृपा से हम शत्रुओं का शोषण कर पायें और अविच्छिन्न अध्यात्मसंपत् को प्राप्त करनेवाले हों।
भावार्थ
भावार्थ- हे प्रभो! आप ही हमें ज्ञान देते हैं, आप ही हमारे शत्रुओं का शोषण करके अविच्छिन्न ऐश्वर्य को प्राप्त कराते हैं । सम्पूर्ण सूक्त सोमरक्षण द्वारा जीवन को सुन्दर बनाने का उपदेश कर रहा है। ऐसा करनेवाला व्यक्ति शतश: अशुभ वृत्तियों का भेदन करके 'शत-प्रभेदन' बनता है। यह विशिष्टरूपवाला होने से 'वैरूप' होता है। 'शतप्रभेदन वैरूप' प्रार्थना करता है कि-
विषय
प्रभु से, राजा से प्रजा की ज्ञान, ऐश्वर्य और न्याय की याचना।
भावार्थ
हे (मघवन्) ऐश्वर्यवन् ! प्रभो ! हे (सखे) परम मित्र ! (नः नाधमानान्) हम याचना, पश्चात्ताप और ऐश्वर्य की कामना करने वालों को (अभि-ख्या) कृपा दृष्टि से देख, उत्तम उपदेश कर। हे (वसु-पते) ऐश्वर्यों और समस्त जीवों और लोकों के स्वामिन् ! तू हम (सखीनाम्) अपने मित्रों, स्नेही जनों को (बोधि) जान, और ज्ञानवान् कर। हे (सत्य-शुष्म) सत्य के बल वाले ! तू (रण-कृत्) रणकारी वीर के तुल्य उत्तम उपदेश करने हारा होकर (रणं कृधि) युद्धवत् ही उत्तम उपदेश भी कर। (अभक्ते चित्) असंविभक्त धन के रहते हुए भी (अस्मान्) हम को (राये) ऐश्वर्य प्रदान करने के लिये (आ भज) भागी कर। न्यायपूर्वक हमारा भाग हमें प्रदान कर। इति त्रयोदशो वर्गः॥ इति नवमोऽनुवाकः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिर्नभः प्रभेदनो वैरूपः। इन्द्रो देवता॥ छन्दः- १, ३, ७, ८ ८ विराट् त्रिष्टुप्। २, ४-६, ९, १० निचृत्त्रिष्टुप्॥ दशर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(वसुपते मघवन् सखे) हे वसुपालक ऐश्वर्यवन् सखे परमात्मन् ! (नः-नाधमानान्-अभिख्या) अस्मान् याचमानान्-आभिमुख्येन पश्य (सखीनां बोधि) सखीन् ‘व्यत्ययेन षष्ठी’ बोधय यद्वाऽस्मान् जानीहि, (रणकृत्-रणं कृधि) युद्धकर्त्तः ! अस्मद्विरोधिभिः कामादिभिः सह युद्धं कुरु (सत्यशुष्म) हे सत्यबलवन्-अविनश्वरबलवन् ! (अभक्ते चित्) यद् धनं न कस्मै चित् भक्तं कृतं-तस्मिन्नपि स्वानन्दस्वरूपधने (राये-अस्मान्-आ भज) धनाय-अस्मान् समन्ताद्भज भागिनः कुरु ॥१०॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Pray turn to us, watch us with favour, lord of glory, we beseech you. O lord of world’s wealth, honour and excellence, O friend, know, acknowledge and accept the friend of divinity. Fight out our enemies, lord of battle, commander of imperishable power and force, lead us on to achieve and share the wealth and honour so far unshared and unknown.
मराठी (1)
भावार्थ
परमेश्वरात वसण्यास जे पात्र असतात त्यांचे तो रक्षण करतो. त्यांना मित्र मानून बोध करतो. ज्ञान देतो. त्यांच्यातील काम इत्यादी शत्रूंना नष्ट करतो व त्याचे जे अलौकिक आनंदरूप धन आहे ते संसारी लोकांना देत नाही; परंतु उपासकाला त्याचा भागीदार बनवितो. ॥१०॥
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