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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 112 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 112/ मन्त्र 7
    ऋषिः - नभःप्रभेदनो वैरूपः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    वि हि त्वामि॑न्द्र पुरु॒धा जना॑सो हि॒तप्र॑यसो वृषभ॒ ह्वय॑न्ते । अ॒स्माकं॑ ते॒ मधु॑मत्तमानी॒मा भु॑व॒न्त्सव॑ना॒ तेषु॑ हर्य ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि । हि । त्वाम् । इ॒न्द्र॒ । पु॒रु॒धा । जना॑सः । हि॒तऽप्र॑यसः । वृ॒ष॒भ॒ । ह्वय॑न्ते । अ॒स्माक॑म् । ते॒ । मधु॑मत्ऽतमानि । इ॒मा । भु॒व॒न् । सव॑ना । तेषु॑ । ह॒र्य॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वि हि त्वामिन्द्र पुरुधा जनासो हितप्रयसो वृषभ ह्वयन्ते । अस्माकं ते मधुमत्तमानीमा भुवन्त्सवना तेषु हर्य ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वि । हि । त्वाम् । इन्द्र । पुरुधा । जनासः । हितऽप्रयसः । वृषभ । ह्वयन्ते । अस्माकम् । ते । मधुमत्ऽतमानि । इमा । भुवन् । सवना । तेषु । हर्य ॥ १०.११२.७

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 112; मन्त्र » 7
    अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 13; मन्त्र » 2
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (वृषभ-इन्द्र) हे सुखवर्षक परमात्मन् ! (पुरुधा) बहुत प्रकार के (हितप्रियसः) हित के लिये उपासनारस जिनका है, ऐसे वे उपासक जन (त्वां हि) तुझको ही (वि ह्वयन्ते) विशिष्टता से बुलाते हैं (ते) तेरे लिये (अस्माकम्) हमारे (इमा) ये सब (मधुमत्तमानि) अत्यन्त मधुरयुक्त प्रार्थनावचन प्रेरणा (भुवन्) हैं (तेषु) उन्हें (हर्य) चाह-स्वीकार कर ॥७॥

    भावार्थ

    परमात्मा सुखों का वर्षक है, वह उत्तम उपासनारस समर्पित करनेवाले उपासकों के प्रार्थनावचनों को पूरा करता है, चाहता है, स्वीकार करता है ॥७॥

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    विषय

    संभृत हविष्कता-प्रभु-पूजन

    पदार्थ

    [१] हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् ! (वृषभ) = सब सुखों का वर्षण करनेवाले प्रभो ! हित (प्रयसः) = धारण किया है [हित: निहित: धा = हि] हवीरूप अन्न को जिन्होंने ऐसे (जनासः) = अपनी शक्तियों का विकास करनेवाले लोग (त्वां हि) = आपको ही (पुरुधा) = नाना प्रकार से (विह्वयन्ते) = विशेषरूप से पुकारते हैं। प्रभु का पूजन वस्तुतः हवि के द्वारा ही होता है । 'त्यागपूर्वक अदन' ही हवि है, इसी से प्रभु का पूजन होता है। [२] प्रभु जीव से कहते हैं कि (इमा) = ये (अस्माकम्) = हमारे (सवना) = सोम के सवन [=उत्पादन] (ते) = तेरे लिए (मधुमत्तमानि) = अतिशयेन माधुर्य को देनेवाले हों । इनके द्वारा तेरा जीवन अतिशयेन मधुर बने । (तेषु हर्य) = उनमें तू कामनावाला हो तथा उनकी प्राप्ति के लिए तू गतिवाला हो । सोमपान की तेरे में प्रबल इच्छा हो । यह रक्षित सोम ही तेरा रक्षण करेगा।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु का पूजन संभृत हविष्क [हवि का धारण करनेवाले लोग] ही करते हैं। इन प्रभु-पूजकों के जीवन को सोम मधुमत्तम बनाता है।

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    विषय

    कृषक के समान प्रभु के उपासकों का व्यवहार।

    भावार्थ

    हे (इन्द्र) आत्मन् ! तेजोमय ! हे (वृषभ) आनन्द सुखों का मेघवत् वर्षण करने वाले ! (हित-प्रयसः जनासः) जिस प्रकार क्षेत्र में अन्न डाल देने वाले कृषक लोग मेघ की आकांक्षा करते और उसी के लिये पुकारते हैं उसी प्रकार (हित-प्रयसः जनासः) यज्ञ में हविष् रखने वाले भक्त जन वा (हित-प्रयसः) तुझे प्रसन्न करने वाले वचनों का उच्चारण करने हारे (जनासः) भक्त जन (त्वाम् हि पुरुधा ह्वयन्ते) तेरी ही अनेक प्रकारों से स्तुति करते हैं, तुझे ही पुकारते हैं। (ते) तेरे लिये ही (अस्माकम्) हमारे (इमा) ये (मधुमत्-तमानि सवना) मधुर वचनों और अन्नों से युक्त यज्ञादि उपासनाएं हैं (तेषु हर्य) उनमें तू प्रसन्न हो, उनको चाह, स्वीकार कर।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिर्नभः प्रभेदनो वैरूपः। इन्द्रो देवता॥ छन्दः- १, ३, ७, ८ ८ विराट् त्रिष्टुप्। २, ४-६, ९, १० निचृत्त्रिष्टुप्॥ दशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (वृषभ-इन्द्र) हे सुखवर्षक ऐश्वर्यवन् परमात्मन् ! (पुरुधा हितप्रयसः-जनासः) बहुधा स्वहिताय प्रियाः-उपासनारसो येषां ते-उपासका जनाः (त्वां हि) त्वामेव (वि ह्वयन्ते) विशिष्टतया-आह्वयन्ति (ते-अस्माकम्) तुभ्यमस्माकम् (इमा मधुमत्तमानि सवनानि भुवन्) एतानि खल्वतिशयेन मधुरयुक्तानि प्रार्थनाप्रेरणानि सन्ति (तेषु हर्य) तानि “विभक्तिव्यत्ययेन सप्तमी द्वितीयास्थाने” कामयस्व ॥७॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Many many people with various kinds of homage and prayer invoke you, lord of infinite power and generosity. All these our presents of love, honour and adoration of the sweetest order are for you only. Pray accept these with love and favour.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्मा सुखांचा वर्षक आहे. उत्तम उपासनारस समर्पित करणाऱ्या उपासकांच्या प्रार्थना वचनाला पूर्ण करतो, इच्छितो, स्वीकार करतो. ॥७॥

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