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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 113 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 113/ मन्त्र 4
    ऋषिः - शतप्रभेदनो वैरूपः देवता - इन्द्र: छन्दः - पादनिचृज्ज्गती स्वरः - निषादः

    ज॒ज्ञा॒न ए॒व व्य॑बाधत॒ स्पृध॒: प्राप॑श्यद्वी॒रो अ॒भि पौंस्यं॒ रण॑म् । अवृ॑श्च॒दद्रि॒मव॑ स॒स्यद॑: सृज॒दस्त॑भ्ना॒न्नाकं॑ स्वप॒स्यया॑ पृ॒थुम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ज॒ज्ञा॒नः । ए॒व । वि । अ॒बा॒ध॒त॒ । स्पृधः॑ । प्र । अ॒प॒श्य॒त् । वी॒रः । अ॒भि । पौंस्य॑म् । रण॑म् । अवृ॑श्चत् । अद्रि॑म् । अव॑ । स॒ऽस्यदः॑ । सृ॒ज॒त् । अस्त॑भ्नात् । नाक॑म् । सु॒ऽअ॒प॒स्यया॑ । पृ॒थुम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    जज्ञान एव व्यबाधत स्पृध: प्रापश्यद्वीरो अभि पौंस्यं रणम् । अवृश्चदद्रिमव सस्यद: सृजदस्तभ्नान्नाकं स्वपस्यया पृथुम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    जज्ञानः । एव । वि । अबाधत । स्पृधः । प्र । अपश्यत् । वीरः । अभि । पौंस्यम् । रणम् । अवृश्चत् । अद्रिम् । अव । सऽस्यदः । सृजत् । अस्तभ्नात् । नाकम् । सुऽअपस्यया । पृथुम् ॥ १०.११३.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 113; मन्त्र » 4
    अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 14; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (जज्ञानः-एव) राजा राजसूयज्ञ द्वारा प्रसिद्ध होते ही (स्पृधः) स्पर्धाशील शत्रुओं को (वि अबाधत) विशेषरूप से बाधित करता है-पीड़ित करता है (वीरः) शूरवीर होता हुआ (रणम्-अभि) युद्ध को लक्षित करके (पौंस्यम्) बल या पुरुषार्थ को (प्र अपश्यत्) प्रकृष्टरूप से देखता है सम्भालता है (अद्रिम्) पर्वत के समान शत्रुजन को (अवृश्चत्) छिन्न-भिन्न करता है (सस्यदः) साथ भागनेवाले शत्रुओं को (अव सृजत्) नीचे सुला देता है (पृथुम्-नाकम्) फैले हुए सुखप्रद राष्ट्र को (स्वपस्यया) उत्तम कर्म इच्छा से (अस्तभ्नात्) सम्भालता है, वह राजा होता है ॥४॥

    भावार्थ

    राजा जब राजसूय यज्ञ द्वारा प्रसिद्ध हो जाता है, तो स्पर्धाशील संघर्ष करनेवाले शत्रुओं को पीड़ित करे और अपने बल का निरीक्षण करे, पर्वतसदृश दृढ़ शत्रु को भी छिन्न-भिन्न करने में समर्थ हो, भागते हुए शत्रुओं को भूमि पर सुलानेवाला हो, अपने उत्तम शक्तिसम्पन्न कर्म करने की इच्छा से विस्तृत राष्ट्र को सम्भाले, वह राजा होता है ॥४॥

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    विषय

    घर को स्वर्ग बनाना

    पदार्थ

    [१] जिस दिन आचार्यकुल से विद्यार्थी शिक्षा पूरी करके समावृत्त होकर घर पर आता है तो (जज्ञानः एव) = आचार्यकुल से द्वितीय जन्म लेता हुआ ही (स्पृधः) = शत्रुओं को (व्यबाधत) = पीड़ित करता है, अपने से दूर रखता है। कामादि शत्रुओं को वह अपने समीप नहीं आने देता। (वीरः) = शत्रुओं को कम्पित करनेवाला यह वीर (रणं अभि) = युद्ध का लक्ष्य करके (पौस्यं प्रापश्यत्) = अपने बल का पूरा ध्यान करता है, शक्ति को स्थिर रखने के लिए यत्नशील होता है, गृहस्थ में प्रवेश करने पर वह इस बात का पूरा ध्यान करता है कि कामादि शत्रुओं का शिकार न हो जाए, अपनी शक्ति को न खो बैठे। [२] यह (अद्रिम्) = अविद्या पर्वत को (अवृश्चत्) = काटनेवाला होता है और (स-स्यदः) = साथ-साथ प्रवाहित होनेवाले ज्ञान प्रवाहों को (अवसृजत् पुनः) = प्रवाहयुक्त करता है। वासना के कारण ज्ञानेन्द्रियों की शक्ति कुण्ठित हो गई थी । वासना विनाश से ज्ञानेन्द्रियों का कार्य सुचारुरूपेण होने लगता है और सब ज्ञान प्रवाह ठीक से चलने लगते हैं। [३] इस प्रकार (स्वपस्यया) = उत्तम कर्मों की ही कामना से यह (पृथुं नाकम्) = विस्तृत स्वर्गलोक को (अस्तभ्नात्) = थामनेवाला होता है। वस्तुतः यह अपने घर को स्वर्ग ही बना डालता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - गृहस्थ में हम काम आदि शत्रुओं का बाधन करें। शक्ति का रक्षण करें। अज्ञान को नष्ट करके उत्तम कर्मों में प्रवृत्त हों तभी घर स्वर्ग बनेगा ।

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    विषय

    युद्ध से बल परिक्षा और बल से शत्रुविजय और स्वराज्य का दृढ़ीकरण।

    भावार्थ

    (जज्ञानः एक-वीरः स्पृधः वि-अबाधत) प्रकट होता हुआ ही वीर्यवान् पुरुष अपने से स्पर्धा करने वालों को विविध प्रकार से पीड़ित करे। और वह (रणम् अभि) युद्ध को लक्ष्य करके अपने (पौंस्यं प्र अपश्यत्) पराक्रम-बल को अच्छी प्रकार देखे। (अद्रिम् अवृश्चत्) जिस प्रकार सूर्य मेघ को छिन्न-भिन्न करता है और (स-स्यदः अव सृजत्) एक साथ बहने वाली जल-धाराओं को नीचे बहा देता है उसी प्रकार वीर पुरुष (अद्रिम्) पर्वत के समान दृढ़ शत्रु को भी (अवृश्चत्) काट गिरावे और (सस्यदः) एक साथ रथों, अश्वों सहित प्रयाण करने वाली प्रजाओं सेनाओं को (अव-सृजत्) अपने अधीन कर ले। और (सु-अपस्या) उत्तम कर्म कौशल से (पृथुम्) विस्तृत (नाकम्) सुखमय राज्य को (अस्तभ्नात्) अपने वश करे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः शतप्रभदनो वैरूपः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्द:– १, ५ जगती। ३, ६, ९ विराड् जगती। ३ निचृज्जगती। ४ पादनिचृज्जगती। ७, ८ आर्चीस्वराड् जगती। १० पादनिचृत्त्रिष्टुप्॥ दशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (जज्ञानः-एव) राजा राजसूययज्ञेन प्रसिद्धः सन्नेव (स्पृधः-वि अबाधत) स्पर्धाशीलान् शत्रून् विशेषेण बाधते (वीरः-रणम्-अभि पौंस्यम् प्र अपश्यत्) वीरः सन् युद्धमभिलक्ष्य बलं पुरुषार्थं वा प्रप्रश्यति (अद्रिम्-अवृश्चत्) पर्वतवद् दृढं शत्रुजनं वृश्चति छिनत्ति (सस्यदः-अव सृजत्) सह स्यन्दमानान् शत्रून् नीचैः शाययति (पृथुं नाकं स्वपस्यया अस्तभ्नात्) प्रथमानं सुखं राष्ट्रं सुकर्मेच्छया स्तभ्नाति स राजा भवति ॥४॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    From the very rise and manifestation, repelling, expelling and removing conflicts and confrontations of jealous forces, watching, assessing and affirming his fighting forces, breaking down clouds of pent up waters and mountainous hoards of resources and releasing all stagnant potentials, and sustaining the mighty vast world of light and joy by his will, wisdom and active power, Indra rules and reigns in glory.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    राजा जेव्हा राजसूय यज्ञाद्वारे प्रसिद्ध होतो तेव्हा स्पर्धा करणाऱ्या, संघर्ष करणाऱ्या शत्रूंना त्याने पीडित करावे. आपले बल आजमावावे. पर्वतासारख्या शत्रूंना छिन्नभिन्न करण्यास समर्थ असावे. पलायन करणाऱ्या शत्रूंना तो भूमीवर झोपविणारा असावा. आपल्या उत्तम शक्तिसंपन्न कर्म करण्याच्या इच्छेने विस्तृत राष्ट्राला सांभाळेल, तोच राजा असतो. ॥४॥

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