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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 114 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 114/ मन्त्र 5
    ऋषिः - सध्रिर्वैरुपो धर्मो वा तापसः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    सु॒प॒र्णं विप्रा॑: क॒वयो॒ वचो॑भि॒रेकं॒ सन्तं॑ बहु॒धा क॑ल्पयन्ति । छन्दां॑सि च॒ दध॑तो अध्व॒रेषु॒ ग्रहा॒न्त्सोम॑स्य मिमते॒ द्वाद॑श ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सु॒ऽप॒र्णम् । विप्रा॑ । क॒वयः॑ । वचः॑ऽभिः । एक॑म् । सन्त॑म् । ब॒हु॒धा । क॒ल्प॒य॒न्ति॒ । छन्दां॑सि । च॒ । दध॑तः । अ॒ध्व॒रेषु॑ । ग्रहा॑न् । सोम॑स्य । मि॒म॒ते॒ । द्वाद॑श ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सुपर्णं विप्रा: कवयो वचोभिरेकं सन्तं बहुधा कल्पयन्ति । छन्दांसि च दधतो अध्वरेषु ग्रहान्त्सोमस्य मिमते द्वादश ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सुऽपर्णम् । विप्रा । कवयः । वचःऽभिः । एकम् । सन्तम् । बहुधा । कल्पयन्ति । छन्दांसि । च । दधतः । अध्वरेषु । ग्रहान् । सोमस्य । मिमते । द्वादश ॥ १०.११४.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 114; मन्त्र » 5
    अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 16; मन्त्र » 5
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (विप्राः) परमात्मा को विविध स्तुतियों से अपने अन्दर पूर्ण करनेवाले-धारण करनेवाले (कवयः) मेधावी जन (वचोभिः) स्तुतिवचनों के द्वारा (सुपर्णम्) शोभन पालनकर्त्ता (एकं सन्तम्) एक होते हुए को (बहुधा कल्पयन्ति) बहुत प्रकार से या बहुत नामों से मानते हैं या वर्णन करते हैं (छन्दांसि च) और गायत्र्यादि छन्द भी (अध्वरेषु) यज्ञों में (दधतः) धारण-करते हुए (सोमस्य) सोम के चन्द्रमा के (द्वादश ग्रहान्) चैत्रादि बारहमासों को (मिमते) मानरूप से करते हैं जैसे, उसी प्रकार आनन्दरसरूप सोम परमात्मा के द्वादश मासों के निर्माता धर्म के अनुरूप स्मरण करने योग्य होने से या स्मरण के साधन होने से द्वादश ग्रहों-आनन्दरस को ग्रहण करने के पात्रों आत्मा, मन, बुद्धि, चित्त, अहङ्कार, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ वाक् और प्राण मानते हैं ॥५॥

    भावार्थ

    परमात्मा के स्वरूप को अपने अन्दर धारण करनेवाले मेधावी स्तोता जन उस एक परमात्मा को अनेक प्रकार से या अनेक नामों से वर्णित करते हैं या मानते हैं, गायत्र्यादि छन्द यज्ञों में उसका वर्णन करते हैं, चन्द्रमा जैसे चैत्र आदि बारह मासों में ग्रहण किया जाता है, ऐसे ही सोमरूप परमात्मा के ग्रहणपात्र स्मरण करने के स्थान बारह हैं, जो कि आत्मा, मन, बुद्धि, चित्त, अहङ्कार पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ वाणी और प्राण हैं ॥५॥

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    विषय

    बारह सोमपात्र

    पदार्थ

    [१] (विप्रः) = अपना विशेषरूप से पूरण करनेवाले (कवयः) = क्रान्तदर्शी ज्ञानी लोग (सुपर्णम्) = उस उत्तम पालनात्मक व पूरणात्मक कर्मोंवाले प्रभु को एक (सन्तम्) = एक होते हुए को भी (वचोभिः) = वेदवाणियों से (बहुधा) = अनेक प्रकार से (कल्पयन्ति) = कल्पित करते हैं। सृष्टि के उत्पादक के रूप में वे उसे 'ब्रह्मा' कहते हैं, तो धारण करनेवाले को 'विष्णु' तथा प्रलयकर्ता के रूप में वे उसे 'रुद्र व शिव' कहते हैं । इस प्रकार भिन्न-भिन्न गुणों व कर्मों के कारण वे उसे भिन्न-भिन्न नामों से स्मरण करते हैं । [२] (च) = और प्रभु स्मरण के साथ (अध्वरेषु) = हिंसारहित यज्ञात्मक कर्मों में (छन्दांसि) = वेद-मन्त्रों को (दधतः) = धारण करते हुए ये लोग मन्त्रोच्चारण पूर्वक यज्ञों को करते हुए, इन मन्त्रों को अपना पाप से बचानेवाला बनाते हुए [छन्दांसि छादनात् ], (द्वादश) = 'दस इन्द्रियों, मन व बुद्धि' इन बारह को (सोमस्य ग्रहान्) = सोम का, वीर्यशक्ति का ग्रहण करनेवाला (मिमते) = बनाते हैं। सोमयज्ञों में बारह सोमपात्रों की तरह ये 'इन्द्रियाँ, मन व बुद्धि' भी बारह सोमपात्र बनते हैं । सोमशक्ति इनमें सुरक्षित रहती है । सोम से ये शक्तिशाली बनते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ - एक प्रभु के अनेक नाम हैं। इनका स्मरण करते हुए हम यज्ञों में मन्त्रों का उच्चारण करें और जीवन को पवित्र बनाते हुए सोम को शरीर में ही व्याप्त करते हुए 'इन्द्रियों, मन व बुद्धि' को बारह सोमपात्रों के तुल्य बनाएँ ।

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    विषय

    एक अद्वितीय प्रभु के १२ रूप।

    भावार्थ

    (कवयः) क्रान्तदर्शी, बुद्धिमान् (विशः) विद्वान् लोग, (एकं) एक अद्वितीय, (सुपर्णं) उत्तम पालन-पूरण करने वाले प्रभु को ही (बहुधा) बहुत से प्रकारों से (कल्पयन्ति) वर्णन करते हैं। (अध्वरेषु) यज्ञों में (छन्दांसि च दधतः) गायत्री आदि नाना छन्दों को, वा नाना अभिलाषाओं को, वा अथर्ववेद को धारण करते हुए (सोमस्य) सर्वजगत् के प्रेरक प्रभु के ही (द्वादश ग्रहान्) १२ (बारह) स्वरूपों को (मिमते) बना लेते हैं। तत्प्रतिनिधि रूप से सोम के १२ पात्रों की कल्पना करते हैं। इति षोडशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः सर्वैरूपा घर्मो वा तापसः॥ विश्वेदेवा देवताः॥ छन्दः-१, ५, ७ त्रिष्टुप्। २, ३, ६ भुरिक् त्रिष्टुप्। ८, ९ निचृत् त्रिष्टुप्। १० पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ४ जगती॥ दशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (विप्राः कवयः) परमात्मानं विविधस्तुत्या स्वान्तरे पूरयन्तो मेधाविनः स्तोतारः (वचोभिः) स्तुतिवचनैः (सुपर्णम्-एकं सन्तं बहुधा कल्पयन्ति) शोभनपालनकर्त्तारं परमात्मानमेकं सन्तं बहुप्रकारेण बहुनामभिर्वा मन्यन्ते वर्णयन्ति, तथा चान्यत्र “एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति-अग्निं मित्रम्…” (छन्दांसि च) गायत्रीप्रभृतीनि छन्दांसि चापि (अध्वरेषु दधतः) यज्ञेषु यथा धारयन्तः (सोमस्य द्वादश ग्रहान् मिमते) सोमस्य-चन्द्रमसो गृह्यते येषु तान् द्वादशमासान् चैत्रादीन् मानरूपेण कुर्वन्ति तद्वत्-सोमस्य-आनन्दरसरूपपरमात्मनः द्वादशमासानां निर्मातृधर्मानुरूपेण स्मर्यमाणत्वाद् द्वादशग्रहान् यद्वा परमात्मन आनन्दरसग्रहणपात्राणि द्वादश मन्यन्ते ते ग्रहाः सन्ति, आत्ममनोबुद्धिचित्ताहङ्कारान्तःकरणानि पञ्चज्ञानेन्द्रियाणि वाक्प्राण इति द्वादश मन्यन्ते ॥५॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Vibrant self-realised sages and visionary poets visualise and express the One immutable Spirit by words of their experiential vision. Taking on to the poetic compositions of Vedic mantras in yajnas and meditative sessions they visualise and restructure twelve cyclic manifestations and self-expressions of soma, the moon, the sun and the light beyond the sun and moon, and the spirit of life itself.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्म्याच्या स्वरूपाला आपल्यामध्ये धारण करणारे मेधावी प्रशंसक त्या एका परमात्म्याला अनेक प्रकारे किंवा अनेक भावाने वर्णितात किंवा मानतात. गायत्री इत्यादी छंद यज्ञात त्याचे वर्णन करतात. चंद्र जसा चैत्र इत्यादी बारा महिने स्वीकारला जातो तसे सोमरूप परमात्म्याच्या ग्रहण पात्र स्मरण करण्याची बारा साधने आहेत. आत्मा, मन, बुद्धी, चित्त, अहंकार, पाच ज्ञानेंद्रिये, वाणी व प्राण आहेत. ॥५॥

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