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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 114 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 114/ मन्त्र 8
    ऋषिः - सध्रिर्वैरुपो धर्मो वा तापसः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    स॒ह॒स्र॒धा प॑ञ्चद॒शान्यु॒क्था याव॒द्द्यावा॑पृथि॒वी ताव॒दित्तत् । स॒ह॒स्र॒धा म॑हि॒मान॑: स॒हस्रं॒ याव॒द्ब्रह्म॒ विष्ठि॑तं॒ ताव॑ती॒ वाक् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒ह॒स्र॒धा । प॒ञ्च॒ऽद॒शानि॑ । उ॒क्था । याव॑त् । द्यावा॑पृथि॒वी इति॑ । ताव॑त् । इत् । तत् । स॒ह॒स्र॒धा । म॒हि॒मानः॑ । स॒हस्र॑म् । याव॑त् । ब्रह्म॑ । विऽस्थि॑तम् । ताव॑ती । वाक् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सहस्रधा पञ्चदशान्युक्था यावद्द्यावापृथिवी तावदित्तत् । सहस्रधा महिमान: सहस्रं यावद्ब्रह्म विष्ठितं तावती वाक् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सहस्रधा । पञ्चऽदशानि । उक्था । यावत् । द्यावापृथिवी इति । तावत् । इत् । तत् । सहस्रधा । महिमानः । सहस्रम् । यावत् । ब्रह्म । विऽस्थितम् । तावती । वाक् ॥ १०.११४.८

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 114; मन्त्र » 8
    अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 17; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (सहस्रधा) प्राणियों के शरीर-योनियाँ असंख्य हैं, उनमें (पञ्चदशानि) पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, पञ्च प्राण हैं (उक्था) उक्थ-वक्तव्य-विवेचनीय प्राण हैं (यावत्-द्यावापृथिवी) जितने परिमाण में द्यावापृथिवीमय ब्रह्माण्ड है (तावत्-इत्-तत्) उतना शरीरमात्र परिमाणवाला है, जो ब्रह्माण्ड में है, सो पिण्ड में है (सहस्रधा महिमानः) असंख्यात परमात्मा की महिमाएँ हैं, क्योंकि (सहस्रं यावत्) असंख्य जितना (ब्रह्म विष्ठितम्) विविधरूप से ब्रह्माण्ड स्थित है (तावती वाक्) उतनी ही ब्रह्माण्ड का वर्णन करनेवाली वाणी है ॥८॥

    भावार्थ

    परमात्मा की महिमाएँ अनन्त हैं, जो ब्रह्माण्ड में और पिण्ड शरीर में काम कर रही हैं। प्राणियों के शरीरों में पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, पाँच प्राण तथा जितने परिमाणवाला द्यावापृथिवीमय-ब्रह्माण्ड है, इतने शरीर परिमाणवाला है, क्योंकि जो ब्रह्माण्ड में है, सो पिण्ड में है, तथा जितना ब्रह्माण्ड है, उतनी उसे वर्णन करनेवाली वाणी है-विद्या है, इसलिये शरीर और ब्रह्माण्ड के विज्ञान को जानने के लिये विद्या पढ़नी चाहिये ॥८॥

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    विषय

    पंचदशानि उक्था

    पदार्थ

    [१] प्राणिदेहों में (पञ्चदशानि) = 'पाँच प्राण, पाँच ज्ञानेन्द्रियां व पाँच कर्मेन्द्रियाँ' ये पन्द्रह अंग (सहस्त्रधा) = हजारों प्रकारों से (उक्था) = स्तुति के योग्य हैं, प्रशंसनीय हैं। इन अंगों का जितना-जितना विचार करते हैं उतना उतना ही इनका उत्कर्ष व्यक्त होता है। वस्तुतः (यावद् द्यावापृथिवी) = जहाँ तक यह द्युलोक व पृथिवीलोक का विस्तार है (तावत् इत् तत्) = उतना ही उस प्रभु की महिमा का प्राशस्त्य है 'एतावानस्य महिमा' । [२] (सहस्त्रधा महिमानः) = हजारों प्रकार से इस प्रभु की महिमा इस ब्रह्माण्ड में विस्तृत है । (सहस्रम्) = हजारों प्रकार से (यावत्) = जहाँ तक (ब्रह्म) = वे प्रभु (विष्ठितम्) = विशेषरूप से इस ब्रह्माण्ड में स्थित हैं (तावती वाक्) = उतनी ही वाणी है। अर्थात् एक-एक वस्तु प्रभु की महिमा से परिपूर्ण है, उन उन वस्तुओं के नाम प्रभु की महिमा का ही द्योतन करनेवाले हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्राणिदेहों में प्राण व इन्द्रियों की रचना अतिशयेन स्तुत्य है ।

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    विषय

    प्रजापति के १५ रूप

    भावार्थ

    (उक्था) उक्थ, नाना प्रवचन योग्य प्रजापति के रूप (सहस्र-धा) सहस्रों में (पञ्च-दश) पन्द्रह प्रकार के हैं। (यावत् द्यावा पृथिवी) आकाश और पृथिवी जितने हैं (तावत् इत् तत्) उतना ही उसे समझो। क्योंकि उसकी (महिमानः) महिमाएं, महान् सामर्थ्य (सहस्र-धा) हज़ारों प्रकार के हैं (यावद् ब्रह्म वि-स्थितम्) ब्रह्म जितना विविध रूप से विद्यमान है (तावती वाक्) वाणी भी वर्णन करने वाली उतनी ही प्रकार की हो जाती है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः सर्वैरूपा घर्मो वा तापसः॥ विश्वेदेवा देवताः॥ छन्दः-१, ५, ७ त्रिष्टुप्। २, ३, ६ भुरिक् त्रिष्टुप्। ८, ९ निचृत् त्रिष्टुप्। १० पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ४ जगती॥ दशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (सहस्रधा) योनिरूपाणि प्राणिशरीराणि सहस्रधाऽसङ्ख्यातानि सन्ति तेषु (पञ्चदशानि) पञ्चदशात्मकानि (उक्था) एतानि खलूक्थानि वक्तव्यानि विवेचनीयानि प्राणात्मकानि दशेन्द्रियाणि पञ्च प्राणाश्च मिलित्वा “प्राण उक्थमित्येव विद्यात्” [ऐ० आ० २।१।४] (यावत्-द्यावापृथिवी) यावत्परिमाणं द्यावापृथिवीमयं-ब्रह्माण्डमस्ति (तावत्-इत्-तत्) तावच्छरीरजातं परिमाणं यत्ब्रह्माण्डे तत्पिण्डे (सहस्रधा महिमानः) असंख्याताः परमात्मनो महिमानः सन्ति, यतः (सहस्रं यावत् ब्रह्म विष्ठितम्) असंख्यातं ब्रह्माण्डं विविधरूपेण स्थितं (तावती वाक्) तावती ब्रह्माण्डस्य वर्णयित्री वाक् खल्वस्ति ॥८॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Thousandfold are the Vedic hymns, fifteen of them the highest and best, all extended as far as the heaven and earth. Thousandfold are the majesties and glories of it, the Vedic Word and vision extending and abiding as far as the vision and omniscience of divinity.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्म्याचा महिमा अनंत आहे, जो ब्रह्मांडात व पिंड शरीरात काम करत आहे. प्राण्यांच्या शरीरात पाच ज्ञानेंद्रिये, पाच कर्मेंद्रिये, पाच प्राण व जितके परिमाणयुक्त द्यावा पृथ्वीमय ब्रह्मांड आहे तितके शरीर परिमाणयुक्त आहे. कारण जे ब्रह्मांडात आहे ते पिंडात आहे व जितके ब्रह्मांड आहे तितके त्याला वर्णन करणारी वाणी आहे - विद्या आहे. त्यासाठी शरीर व ब्रह्मांडाचे विज्ञान जाणण्यासाठी विद्येचे अध्ययन केले पाहिजे. ॥८॥

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