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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 117 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 117/ मन्त्र 5
    ऋषिः - भिक्षुः देवता - धनान्नदानप्रशंसा छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    पृ॒णी॒यादिन्नाध॑मानाय॒ तव्या॒न्द्राघी॑यांस॒मनु॑ पश्येत॒ पन्था॑म् । ओ हि वर्त॑न्ते॒ रथ्ये॑व च॒क्रान्यम॑न्य॒मुप॑ तिष्ठन्त॒ राय॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पृ॒णी॒यात् । इत् । नाध॑मानाय । तव्या॑न् । द्राघी॑यांसम् । अनु॑ । प॒श्ये॒त॒ । पन्था॑म् । ओ इति॑ । हि । व॒र्त॒न्ते॒ । रथ्या॑ऽइव । च॒क्रा । अ॒न्यम्ऽअ॑न्यम् । उप॑ । ति॒ष्ठ॒न्त॒ । रायः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पृणीयादिन्नाधमानाय तव्यान्द्राघीयांसमनु पश्येत पन्थाम् । ओ हि वर्तन्ते रथ्येव चक्रान्यमन्यमुप तिष्ठन्त राय: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पृणीयात् । इत् । नाधमानाय । तव्यान् । द्राघीयांसम् । अनु । पश्येत । पन्थाम् । ओ इति । हि । वर्तन्ते । रथ्याऽइव । चक्रा । अन्यम्ऽअन्यम् । उप । तिष्ठन्त । रायः ॥ १०.११७.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 117; मन्त्र » 5
    अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 22; मन्त्र » 5
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    हिन्दी (4)

    पदार्थ

    (तव्यान्) धनसमृद्ध जन (नाधमानाय) अधिकार माँगनेवाले के लिये उसे (पृणीयात्) भोजनादि से तृप्त करे (द्राघीयांसम्) अतिदीर्घ लम्बे उदार (पन्थाम्) मार्ग को (अनु पश्येत) देखे-समझे (रायः) सम्पत्तियाँ (रथ्या चक्रा-इव) रथ के चक्रों पहियों की भाँति (आ वर्तन्ते-उ हि) आवर्तन किया करती हैं, भिन्न-भिन्न स्थानों में घूमा करती हैं (अन्यम्-अन्यम्-उप तिष्ठन्त) भिन्न-भिन्न स्थान को आश्रित करती हैं ॥५॥

    भावार्थ

    धनसम्पन्न मनुष्य अपने अन्न धन सम्पत्ति से अधिकार माँगनेवाले को तृप्त करे, इस प्रकार उदारता के मार्ग को अनुभव करे, क्योंकि धन सम्पत्तियाँ सदा एक के पास नहीं रहती हैं, वे तो गाड़ी के पहियों की भाँति घूमा करती हैं, आती-जाती रहती हैं ॥५॥

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    विषय

    (विविध खण्ड) धन चक्रवत् घूमता है

    शब्दार्थ

    (तव्यान्) धनवान् को (नाधमानाय) दुःखी, पीड़ित, याचक के लिए (पृणीयात् इत्) देना ही चाहिए । मनुष्य (द्राघीयांसम् पन्थाम्) अतिदीर्घ जीवन के मार्ग को (अनुपश्येत) विचारपूर्वक देखें (हि) क्योंकि (राय:) धन (उ) निश्चय ही (रथ्या चक्रा इव) रथ के पहिए के समान (आ वर्तन्ते) घूमते रहते हैं और (अन्यम् अन्यम्) एकदूसरे के समीप (उपतिष्ठन्त) पहुँचा करते हैं ।

    भावार्थ

    लक्ष्मा बड़ी चञ्चला है । यह रथ के पहियों की भाँति निरन्तर घूमती रहती है। आज एक व्यक्ति के पास है तो कल दूसरे के पास चली जाती है । जो व्यक्ति एक दिन राजा होता है वह दूसरे दिन दर-दर का भिखारी बन जाता है। प्रत्येक मनुष्य को धन के इस स्वरूप को समझना चाहिए और समझकर - १. धनवान् को चाहिए कि वह निर्धनों की, दीन और दुखियों की, पीड़ितों की सहायता करके उन्हें प्रसन्न करे । बलवानों को चाहिए कि वे निर्बलों, अनाथों और अबलाओं की रक्षा करें । २. यह कहा जा सकता है कि हमें किसीकी सहायता करने की क्या आवश्यकता है ? वेद इसका बहुत ही सुन्दर उत्तर देता है । वेद कहता है जीवन का मार्ग बहुत विस्तृत है, अतः मनुष्य को दीर्घदृष्टि से काम लेना चाहिए, दुःख-आपत्तियाँ और संकट सभी पर आ सकते हैं । यदि धन और बल के नशे में चूर होकर हमने किसीकी सहायता नही की तो यह निश्चित है कि हमारी सहायता भी कोई नहीं करेगा, अतः याचक को प्रसन्न करना ही चाहिए ।

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    विषय

    रथचक्र की तरह चलायमान 'धन'

    पदार्थ

    [१] (तन्यान्) = धनों के दृष्टिकोण से बढ़ा हुआ पुरुष (नाधमानाय) = माँगनेवाले के लिए (पृणीयात् इत्) = दे ही जिस समय कोई माँगनेवाला आये, तो इनकार करने की अपेक्षा (द्राघीयांसं पन्थाम्) = इस लम्बे मार्ग को (अनुपश्येत) = देखे । इस अतिविस्तृत समय में पता नहीं किसी का कब कैसा समय आ जाए ? [२] ये (रायः) = धन तो (रथ्या चक्रा इव) = रथ के पहियों की तरह हि (उ) = निश्चय से (आवर्तन्ते) = आवृत हो रहे हैं । (अन्यं अन्यं) = दूसरे दूसरे के पास (उपतिष्ठन्ते) = ये धन उपस्थित होते हैं। जैसे रथ के पहिये का एक भाग जो ऊपर है, वह थोड़ी देर के बाद नीचे हो जाता है उसी प्रकार आज एक व्यक्ति धन के दृष्टिकोण से खुद उन्नत है, जितना चाहे दे सकता है । कल वही निर्धन अवस्था में होकर माँगनेवालों में भी शामिल हो सकता है। इसलिए सामर्थ्य के होने पर देना ही चाहिए।

    भावार्थ

    भावार्थ- धन अस्थिर हैं। कल हमारे पास भी सम्भवतः न रहें। सो शक्ति के होने पर माँगनेवाले के लिए देना ही चाहिए ।

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    विषय

    धनादि की अस्थिरता होने से समर्थ को अन्यों के पालन का उपदेश।

    भावार्थ

    (तव्यान्) शक्तिशाली पुरुष को चाहिये कि वह (नाधमानाय) याचना करने वाले को (पृणीयात् इत्) अवश्य पालन करे, उसे अन्नादि से तृप्त, सन्तुष्ट करे। वह (द्राघीयांसम् पन्थाम् अनु पश्येत) बहुत दूर तक के मार्ग को देखे। (ओ हि रथ्या चक्रा इव वर्त्तन्ते) ये धन निश्चय से रथ के चक्रों के समान चला करते हैं। ये (रायः) समस्त ऐश्वर्य (अन्यम् अन्यम् उप तिष्ठन्ते) एक से दूसरे के पास जाया आया करते हैं। इति द्वाविंशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिर्भिक्षुः॥ इन्द्रो देवता—घनान्नदान प्रशंसा॥ छन्दः—१ निचृज्जगती—२ पादनिचृज्जगती। ३, ७, ९ निचृत् त्रिष्टुप्। ४, ६ त्रिष्टुप्। ५ विराट् त्रिष्टुप्। ८ भुरिक् त्रिष्टुप्। नवर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (तव्यान्) तवीयान् प्रवृद्धः समृद्धो जनः “तु वृद्धौ” [अदादि०] (नाधमानाय पृणीयात्) याचमानाय “नाथृ नाधृ याच्ञोपतापैश्वर्याशीःषु” [भ्वादि०] भोजनानि दद्यात् (द्राघीयांसं पन्थाम्-अनु पश्येत) दीर्घतममुदारताया मार्गमनुपश्येत्-अनुभवेत् (रायः) सम्पत्तयः (आ वर्त्तन्ते-उ हि रथ्या चक्रा-इव) रथचक्राणीव-आवर्तन्ते नैकत्र तिष्ठन्ति किन्तु भिन्नभिन्न-स्थानेषु चलन्ति हि (अन्यम्-अन्यम्-उप तिष्ठन्त) भिन्नं भिन्नमाश्रयन्ति ॥५॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    The rich man should give for the poor seeker, he should see the paths of life in the long run. Riches move like wheels of the chariot: Now they are at one place, now they move to another.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    धनसंपन्न माणसाने आपले अन्न व धनसंपत्तीने याचकाला तृप्त करावे. या प्रकारे उदारतेच्या मार्गाचा अनुभव घ्यावा. कारण धनसंपत्ती सदैव एकाजवळ राहत नाही. ती गाडीच्या चक्राप्रमाणे फिरत राहते, येते आणि जाते. ॥५॥

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