ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 118/ मन्त्र 3
ऋषिः - उरुक्षय आमहीयवः
देवता - अग्नी रक्षोहा
छन्दः - विराड्गायत्री
स्वरः - षड्जः
स आहु॑तो॒ वि रो॑चते॒ऽग्निरी॒ळेन्यो॑ गि॒रा । स्रु॒चा प्रती॑कमज्यते ॥
स्वर सहित पद पाठसः । आऽहु॑तः । वि । रो॒च॒ते॒ । अ॒ग्निः । ई॒ळेन्यः॑ । गि॒रा । स्रु॒चा । प्रती॑कम् । अ॒ज्य॒ते॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
स आहुतो वि रोचतेऽग्निरीळेन्यो गिरा । स्रुचा प्रतीकमज्यते ॥
स्वर रहित पद पाठसः । आऽहुतः । वि । रोचते । अग्निः । ईळेन्यः । गिरा । स्रुचा । प्रतीकम् । अज्यते ॥ १०.११८.३
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 118; मन्त्र » 3
अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 24; मन्त्र » 3
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अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 24; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(सः-अग्निः) वह परमात्मा या अग्नि (ईळेन्यः) स्तुति करने योग्य या उपयोग में लाने योग्य (गिरा-आहुतः) स्तुति द्वारा आमन्त्रित या मन्त्रवाणी द्वारा प्रज्ज्वलित किया (वि रोचते) विशेषरूप से साक्षात् होता है या प्रकाशित होता है (स्रुचा) स्तुति से या मन्त्रवाणी से (प्रतीकम्) प्रत्यक्ष या सामने (अज्यते) प्राप्त होता है या प्रकट होता है ॥२॥
भावार्थ
परमात्मा स्तुति करने योग्य है। वह स्तुति के द्वारा आमन्त्रित किया हुआ साक्षात् होता है और आत्मा में प्राप्त होता है एवं अग्नि मन्त्रवाणी से यज्ञकुण्ड में आधान को प्राप्त हुआ प्रकाशित होता है और घृतभरी स्रुवा से प्रदीप्त होता है ॥३॥
विषय
ज्ञान द्वारा प्रभु की अर्चना
पदार्थ
[१] (आहुतः सः) आहुत हुए हुए वे प्रभु (विरोचते) = चमकते हैं । हम प्रभु के प्रति अपना अर्पण करें तो प्रभु हमारे हृदयों में अवश्य प्रकाशित होंगे। (अग्निः) = ये अग्रेणी प्रभु गिरा (ईडेन्यः) = ज्ञान की वाणियों के द्वारा स्तुति को योग्य हैं। जितना - जितना हम ज्ञान की वाणियों को अपनाते हैं उतना उतना प्रभु के हम उपासक बनते हैं । [२] (स्रुचा) = [यजमानः स्रुचः तै० ३ । ३ । ६।३] यज्ञशील पुरुष से (प्रतीकम्) = अंग-प्रत्यंग (अज्यते) = अलंकृत किया जाता है । यज्ञशीलता हमें विलास से दूर ले जाती है, 'विलास से दूर रहना' हमें विनाश से बचाता है ।
भावार्थ
भावार्थ- हम प्रभु के प्रति अपना अर्पण करें। ज्ञान-वाणियों के द्वारा उसका स्तवन करें। यज्ञशील बनकर अलंकृत अंगोंवाले हों ।
विषय
अग्निवत् वाणी द्वारा प्रकट आत्मा का वर्णन।
भावार्थ
(सः अग्निः) वह अग्निवत् देदीप्यमान, (ईडेन्यः) स्तुति करने योग्य पुरुष (आहुतः) आहुति प्राप्त अग्नि के तुल्य आदर प्राप्त करके (वि रोचते) विशेष दीप्ति से प्रकाशित होता है, और (स्रुचा गिरा प्रतीकम् अज्यते) स्रुचा से जिस प्रकार अग्नि प्रकाशित हो उसी प्रकार वह ज्ञान-प्रकाशमय पुरुष भी वाणी द्वारा प्रत्येक आत्म रूप से अन्तःकरण में प्रकट होता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिरुरुक्षय आमहीयवः॥ देवता—अग्नी रोहा॥ छन्दः—१ पिपीलिकामध्या गायत्री। २, ५ निचृद्गायत्री। ३, ८ विराड् गायत्री। ६, ७ पादनिचृद्गायत्री। ४, ९ गायत्री॥ नवर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(सः-ईळेन्यः-गिरा-आहुतः-अग्निः) स स्तोतव्यः परमात्माऽध्येषितव्यो-ऽग्निर्वा स्तुत्या आमन्त्रितः (वि रोचते) प्रकाशितो भवति वा, मन्त्रवाचा स्तुतोऽग्निर्वा (स्रुचा प्रतीकम्-अज्यते) स्तुतिवाचा मन्त्रवाचा वा प्रत्यक्षं प्राप्नोति प्रदीपयति वा ॥३॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Venerable Agni, when it is invoked and adored with Vedic mantras, rises and shines when it is served and exalted with ladlefuls of ghrta as the prime power of yajna.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्मा स्तुती करण्यायोग्य आहे. स्तुतीद्वारे आमंत्रित केल्यामुळे तो आत्म्याला साक्षात प्राप्त होतो. अग्नी मंत्रवाणीने यज्ञकुंडात आधान होऊन प्रकाशित होतो व घृताने भरलेल्या स्रुवाने प्रदीप्त होतो. ॥३॥
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