ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 119/ मन्त्र 13
ऋषिः - लबः ऐन्द्रः
देवता - आत्मस्तुतिः
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
गृ॒हो या॒म्यरं॑कृतो दे॒वेभ्यो॑ हव्य॒वाह॑नः । कु॒वित्सोम॒स्यापा॒मिति॑ ॥
स्वर सहित पद पाठगृ॒हः । या॒मि॒ । अर॑म्ऽकृतः । दे॒वेभ्यः॑ । ह॒व्य॒ऽवाह॑नः । कु॒वित् । सोम॑स्य । अपा॑म् । इति॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
गृहो याम्यरंकृतो देवेभ्यो हव्यवाहनः । कुवित्सोमस्यापामिति ॥
स्वर रहित पद पाठगृहः । यामि । अरम्ऽकृतः । देवेभ्यः । हव्यऽवाहनः । कुवित् । सोमस्य । अपाम् । इति ॥ १०.११९.१३
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 119; मन्त्र » 13
अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 27; मन्त्र » 7
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अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 27; मन्त्र » 7
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(देवेभ्यः) इन्दियों के लिये (हव्यवाहनः) उसके ग्राह्यभाग का प्राप्त करानेवाला मैं आत्मा (अरङ्कृतः) सामर्थ्ययुक्त हुआ (गृहः) अनुग्रहकर्त्ता (यामि) प्राप्त होता हूँ ॥१३॥
भावार्थ
परमात्मा के आनन्दरस का बहुत पान कर चुकनेवाला ऊँची-ऊँची भूमियों को प्राप्त होता हुआ मोक्ष के दीर्घ जीवन को भोगकर पुनः शरीर में देह में इन्द्रियों के भोगों को प्राप्त कराने के लिये सामर्थ्ययुक्त हुआ फिर देह में आता है-पुनर्जन्म धारण करता है, मुक्ति से पुनरावृत्त होता है ॥१३॥
विषय
सद्गुणालंकृत- यज्ञशील
पदार्थ
[१] (कुवित्) = खूब ही (सोमस्य) = सोम का, वीर्य का (अपाम्) = मैंने पान व रक्षण किया है, (इति) = इस कारण (गृहः) = सब गुणों का ग्रहण करनेवाला, (अरंकृतः) = स्वास्थ्य निर्मलता व विद्या इत्यादि गुणों से अलंकृत हुआ हुआ तथा (देवेभ्यः) = वायु आदि देवों के लिए (हव्यवाहनः) = हव्य पदार्थों को प्राप्त करानेवाला, अर्थात् अग्निहोत्र करनेवाला बनकर (यामि) = जीवनयात्रा में गति करता हूँ । [२] वीर्यरक्षण से मनुष्य 'गृह' 'अरंकृत' व 'देवेभ्यः हव्यवाहन' बनता है। सदा अच्छाइयों को अपने में लेता है, अपने जीवन को शुभ गुणों से अलंकृत करता है तथा सदा यज्ञों का करनेवाला होता है।
भावार्थ
भावार्थ - वीर्यरक्षण हमें सद्गुणालंकृत व यज्ञशील बनाता है। यह सूक्त सोमपान, वीर्यरक्षण की महिमा का काव्यमय वर्णन करता है। अतिशयोक्ति अलंकार से काव्यमय भाषा का सौन्दर्य और भी बढ़ गया है। यह सोम का रक्षण करनेवाला 'आथर्वण' बनता है, ‘अथर्व्’=न डाँवाडोल । 'बृहद्दिवः 'खूब ज्ञान के प्रकाशवाला। यह प्रभु-दर्शन करता हुआ कहता है कि-
विषय
परमेश्वर के महान् सामर्थ्य का वर्णन।
भावार्थ
(देवेभ्यः हव्य-वाहनः) पृथिव्यादि समस्त लोकों के लिये ‘हव्य’ ग्राह्य तेज, जल, अन्न प्राप्त कराने वाला और (अरं-कृतः) सुभूषित होकर गृहपति के तुल्य (गृहे यामि) जगत् रूप गृह में प्रवेश करता हूँ। (कुवित्० इत्यादि) पूर्ववत्। इति सप्तविंशो वर्गः॥ इति षष्ठोऽध्यायः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिर्लब ऐन्द्रः। देवता—आत्मस्तुतिः॥ छन्दः—१–५, ७—१० गायत्री। ६, १२, १३ निचृद्गायत्री॥ ११ विराड् गायत्री।
संस्कृत (1)
पदार्थः
(देवेभ्यः-हव्यवाहनः) इन्द्रियेभ्यः-ततद्ग्राह्यस्य प्रापयिताऽहमात्मा (अरं कृतः-गृहः यामि) अलङ्कृतः सामर्थ्योपेतः-गृहः-अनुग्रहकर्त्ता प्राप्तो भवामि ॥१३॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Receiving the light and ecstasy of divinity, beatified by grace, I have become the fire that carries the fragrances of love and faith to the divinities and the highest Divine, for I have drunk of the soma of the spirit divine and I have become the divine ecstasy itself.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्म्याच्या आनंदरसाचा अधिक पान करणारा उच्च भूमी (अवस्था) प्राप्त करत मोक्षाचे दीर्घजीवन भोगून पुन्हा शरीरात देहात इंद्रियांच्या भोगांना प्राप्त करण्यासाठी सामर्थ्ययुक्त होऊन देहात येतो. पुनर्जन्म धारण करतो व मुक्तीहून पुनरावृत्ती होते. ॥१३॥
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