Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 124 के मन्त्र
1 2 3 4 5 6 7 8 9
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 124/ मन्त्र 3
    ऋषिः - अग्निः देवता - अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    पश्य॑न्न॒न्यस्या॒ अति॑थिं व॒याया॑ ऋ॒तस्य॒ धाम॒ वि मि॑मे पु॒रूणि॑ । शंसा॑मि पि॒त्रे असु॑राय॒ शेव॑मयज्ञि॒याद्य॒ज्ञियं॑ भा॒गमे॑मि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पश्य॑न् । अ॒न्यस्याः॑ । अति॑थिम् । व॒यायाः॑ । ऋ॒तस्य॑ । धाम॑ । वि । मि॒मे॒ । पु॒रूणि॑ । शंसा॑मि । पि॒त्रे । असु॑राय । शेव॑म् । अ॒य॒ज्ञि॒यात् । य॒ज्ञिय॑म् । भा॒गम् । ए॒मि॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पश्यन्नन्यस्या अतिथिं वयाया ऋतस्य धाम वि मिमे पुरूणि । शंसामि पित्रे असुराय शेवमयज्ञियाद्यज्ञियं भागमेमि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पश्यन् । अन्यस्याः । अतिथिम् । वयायाः । ऋतस्य । धाम । वि । मिमे । पुरूणि । शंसामि । पित्रे । असुराय । शेवम् । अयज्ञियात् । यज्ञियम् । भागम् । एमि ॥ १०.१२४.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 124; मन्त्र » 3
    अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 9; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (अन्यस्याः वयायाः) अन्य प्राणपद मुक्तिरूप शाखा के (अतिथिं पश्यन्) निरन्तर प्रापणशील परमात्मा को इधर की सृष्टिरूप शाखा में स्थित मैं आत्मा देखता हूँ (ऋतस्य पुरूणि धाम) अमृत सुख भरे अङ्गों को (विममे) विशिष्टता से निर्माण करता हूँ (असुराय पित्रे) प्राणप्रद पिता को (शंसामि) स्तुति करता हूँ (अयज्ञियात्) असङ्गमनीय जड़ संसार से (यज्ञियं भागं शेवम्-एमि) यज्ञिय सङ्गमनीय भजनीय अपने जैसे चेतन सुखरूप परमात्मा को प्राप्त होता हूँ ॥३॥

    भावार्थ

    सृष्टिरूप भोगमयी शाखा को छोड़कर मुक्तिरूप स्थिर जीवन देनेवाली शाखा में अमृत भोग है, वहाँ सङ्कल्पात्मक अभौतिक अङ्गों से सुख भोगा जाता है, अपने जैसे चेतन परमात्मा के आश्रय उसे प्राप्त करना चाहिये ॥३॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    सूर्य शिष्यता

    पदार्थ

    [१] हम इस पृथिवी पर रहते हैं । यह पृथिवी भी संसार वृक्ष की एक शाखा है। दूसरी शाखा द्युलोक है । इस द्युलोक रूप शाखा में निरन्तर गति करनेवाला अतिथि सूर्य है । उस सूर्य से मनुष्य गति का पाठ पढ़ता है, क्रियाशील बनकर सूर्य की तरह ही चमकता है । (अन्यस्याः वयाया:) = दूसरी द्युलोक रूप शाखा के (अतिथिम्) = अतिथिवत् सूर्य को, निरन्तर गतिवाले सूर्य को [अत सातत्यगमने] पश्यन् देखता हुआ एक उपासक ऋतस्य ऋत के [ऋ गतौ] नियमपूर्वक गति के (पुरूणि) = पालक व पूरक (धाम) = तेजों को (विमिमे) = अपने अन्दर निर्मित करता है । सब कार्यों को सूर्य की तरह निरन्तर व नियमित गति से करने से मनुष्य सूर्य की तरह ही तेजस्वी बनता है । [२] मैं (असुराय) = प्राणशक्ति को देनेवाले [ असून् राति] पित्रे उस रक्षक पिता के लिए, उस प्रभु की प्राप्ति के लिए (शेवं शंसामि) = आनन्द व मनःप्रसाद की याचना करता हूँ । मनः प्रसाद रूप तप से ही तो मैं उस प्रभु को पानेवाला बनूँगा। (अयज्ञियात्) = अयज्ञिय कर्मों को छोड़कर स्वार्थमय कर्मों से ऊपर उठकर (यज्ञियं भागम्) = पवित्र कर्मों के सेवन को एमि प्राप्त होता हूँ । अपने जीवन को यज्ञिय बनाता हूँ । इस यज्ञ के द्वारा ही तो मैं उस पिता का आराधन कर सकूँगा । 'यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवाः ' ।

    भावार्थ

    भावार्थ- मैं सूर्य को देखता हुआ सूर्य की तरह निरन्तर नियमित गतिवाला होकर तेजस्वी बनूँ । प्रभु प्राप्ति के लिए मनः प्रसाद रूप तप का साधन करूँ । यज्ञशील बनूँ ।

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    प्रभु से मोक्षयाचना।

    भावार्थ

    (अन्यस्याः) अपने से भिन्न (वयायाः) व्यापक, शाखा के तुल्य आश्रय करने योग्य प्रकृति का अपने को (अतिथिम् पश्यन्) अतिथि के तुल्य, अधिक गुणवान् देखता हुआ मैं आत्मा (ऋतस्य) प्राप्य नाना कर्मफल के (पुरूणि) अनेक (धाम) स्थानों को (वि विमे) विविध प्रकार से स्वयं बना लेता हूँ। और (पित्रे) सर्वपालक (असुराय) प्राणों के दाता प्रभु परमेश्वर से (शंसानि) सदा याचना करता हूं कि मैं (अयज्ञियात्) उपास्य प्रभु से रहित इस देहबन्धन से पृथक् होकर (यज्ञियम्) उस उपास्य प्रभु के (भागम्) सेवनीय अंश या ऐश्वर्य को (एमि) प्राप्त होऊं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१, ५–९ अग्निवरुणमोमानां निहवः । २—४ अग्निः। देवता—१—४ अग्निः। ५-८ यथानिपातम्। ९ इन्द्रः। छन्द:– १, ३, ८ त्रिष्टुप्। २, ४, ९ निचृत्त्रिष्टुप्। ५ विराट् त्रिष्टुप्। ६ पादनिचृत्त्रिष्टुप्। ७ जगती। नवर्चं सूक्तम्॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (अन्यस्याः वयाया-अतिथिं पश्यन्) भिन्नायाः प्राणप्रदायाः मुक्तिरूपायाः शाखायाः “वयाः शाखा” [निरु० १।४] “वया शाखाः [ऋ० २।३५।८ दयानन्दः] निरन्तरं प्रापणशीलं परमात्मान-महमत्रत्यायां शाखायां सृष्टौ स्थितमहमात्मा पश्यामि (ऋतस्य पुरूणि धाम वि ममे) यः परमात्मा खल्वमृतस्य” “ऋतममृतमित्याहुः” [जै० २।१७] “बहूनि ह्यङ्गानि” “अङ्गानि वै धामानि” [श० ३।३।४।१४] विशिष्टतया मिमीते “शृण्वन् श्रोत्रं मन्वानो मनो भवति” [शतपथ १४।४।२।१७] सङ्कल्पात्मकानि निर्माति (असुराय पित्रे शंसामि) तं स्थिरप्राणप्रदं पितरम् “द्वितीयास्थाने चतुर्थी व्यत्ययेन” स्तौमि (अयज्ञियात्-यज्ञियं भागं शेवम्-एमि) असङ्गमनीयाद् जडात् संसारात् स्वसदृशं चेतनं सङ्गमनीयं भजनीयं सुखरूपं परमात्मानं प्राप्नोमि ॥३॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Watching the traveller of another path of life other than the physical, the bird on another branch of the tree, and seeing the original home of the cosmic yajna, I enact many vedis to follow the yajnic paths of living. I sing songs of homage in honour of the omnipotent father giver of life and take to my share of yajnic living, away from the selfish ways of existence.

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    सृष्टिरूपी भोगमयी शाखा सोडून मुक्तिरूपी स्थिर जीवन देणाऱ्या शाखेमध्ये अमृत भोग आहे. तेथे सङ्कल्पात्मक अभौतिक अंगांनी सुख भोगले जाते. आपल्यासारख्या चेतन परमात्म्याचा आश्रय घेऊन ते प्राप्त केले पाहिजे. ॥३॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top