ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 124/ मन्त्र 7
ऋषिः - अग्निवरुणसोमानां निहवः
देवता - यथानिपातम्
छन्दः - जगती
स्वरः - निषादः
क॒विः क॑वि॒त्वा दि॒वि रू॒पमास॑ज॒दप्र॑भूती॒ वरु॑णो॒ निर॒पः सृ॑जत् । क्षेमं॑ कृण्वा॒ना जन॑यो॒ न सिन्ध॑व॒स्ता अ॑स्य॒ वर्णं॒ शुच॑यो भरिभ्रति ॥
स्वर सहित पद पाठक॒विः । क॒वि॒ऽत्वा । दि॒वि । रू॒पम् । आ । अ॒स॒ज॒त् । अप्र॑ऽभूती । वरु॑णः । निः । अ॒पः । सृ॒ज॒त् । क्षेम॑म् । कृ॒ण्वा॒नाः । जन॑यः । न । सिन्ध॑वः । ताः । अ॒स्य॒ । वर्ण॑म् । शुच॑यः । भ॒रि॒भ्र॒ति॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
कविः कवित्वा दिवि रूपमासजदप्रभूती वरुणो निरपः सृजत् । क्षेमं कृण्वाना जनयो न सिन्धवस्ता अस्य वर्णं शुचयो भरिभ्रति ॥
स्वर रहित पद पाठकविः । कविऽत्वा । दिवि । रूपम् । आ । असजत् । अप्रऽभूती । वरुणः । निः । अपः । सृजत् । क्षेमम् । कृण्वानाः । जनयः । न । सिन्धवः । ताः । अस्य । वर्णम् । शुचयः । भरिभ्रति ॥ १०.१२४.७
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 124; मन्त्र » 7
अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 10; मन्त्र » 2
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अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 10; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(कविः) क्रान्तदर्शी परमात्मा (कवित्वा) अपनी क्रान्तदर्शिता से (दिवि) द्योतमान चेतनस्वरूप में (रूपम्) आनन्दरूप को (आसजत्) आसक्त करता है, तो (वरुणः) साङ्कल्पिक प्राण (अप्रभूती) स्वाभाविक विभूति से प्रकट होती है, व (अपः निः-असृजत्) प्राणप्रवृत्तियाँ भी मोक्ष में साङ्कल्पिक शरीर होने से प्रवृत्त होती हैं। (क्षेमं कृण्वानाः जनयः-न) कल्याण करती हुई स्त्रियों के समान (ताः शुचयः सिन्धवः) वे पवित्र स्यन्दमान कामनाएँ (अस्य वर्णं भरिभ्रति) इस आत्मा के स्वरूप को धारण करती हैं ॥७॥
भावार्थ
मोक्ष में परमात्मा आत्मा के अन्दर अपने आनन्द को भर देता है, साङ्कल्पिक प्राण की प्रवृत्तियाँ भी अपनी विभूति से प्रवृत्तियों को चालू कर देती हैं, जो इस आत्मा की कामनाओं को पूरा करती हैं, इसके रूप को चमकाती हैं ॥७॥
विषय
द्युलोक में सूर्य का स्थापन
पदार्थ
[१] गत मन्त्र के अनुसार उपासना के होने पर (कविः) = क्रान्तदर्शी प्रभु (कवित्वा) = अपनी सर्वज्ञता से (दिवि) = उपासक के मस्तिष्करूप द्युलोक में (रूपम्) = सब पदार्थों के निरूपण को, अर्थात् सब पदार्थों के ज्ञान को (आसजत्) = आसक्त करता है, अर्थात् इस उपासक के मस्तिष्क में ज्ञान के सूर्य को उदित करते हैं । [२] इसी उद्देश्य से (वरुणः) = पाप का निवारण करनेवाले प्रभु (अप्रभूती) = [अल्पेनैव यत्नेन सा० ] अनायास ही वासनारूप वृत्र से अवरुद्ध (अपः) = रेतः कणों को (निः असृजत्) = वासना के बन्धन से मुक्त करते हैं। प्रभु के स्मरण से ही वासना का विनाश होता है और रेतः कण शरीर में सुरक्षित रहते हैं । ये सुरक्षित रेतःकण ज्ञानाग्नि का ईंधन बनते हैं । [३] ये (सिन्धवः) = [स्यन्दन्ते] बहने के स्वभाववाले रेतःकण, (जनयः न) = घर में पत्नियों के समान, (क्षेमं कृण्वानाः) = इस शरीर में क्षेम को करते हुए (शुचयः) = जीवन को पवित्र बनानेवाले होते हैं और (ताः) = वे रेतःकण (अस्य वर्णं भरिभ्रति) = इसके अन्दर तेजस्विता को धारण करते हैं। इसके अन्दर वर्ण को, शकल को, रूप को, तेजस्विता को धारण करते हैं। बीमार व्यक्ति स्वस्थ होता है तो कहते हैं कि अब तो जरा इसकी शकल निकल आयी। एवं 'वर्ण' स्वास्थ्य का प्रतीक है ।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु उपासक के मस्तिष्क में ज्ञान सूर्य का उदय करते हैं । रेतः कणों को वासनाओं का शिकार नहीं होने देते । सुरक्षित रेतःकण कल्याण करते हैं और हमें तेजस्वी बनाते हैं ।
विषय
विश्वस्रष्टा का अद्भुत कर्म और स्वाभाविक व्यापन। प्रकृति में ब्रह्मबीजोत्सर्ग।
भावार्थ
(कविः) वह परम बुद्धिमान्, क्रान्तदर्शी, जगत् का स्रष्टा परमेश्वर (कवित्वा) अपने दूरदर्शी सामर्थ्य और सृष्टि रचना के कौशल से (दिवि) सूर्य में (रूपम्) कान्तियुक्त प्रकाश को (आ असजत्) प्रदान करता है। और वही (दिवि) तेज में (रूपं) रूप गुण को स्थापित करता है। और (वरुणः) वह सर्वश्रेष्ठ प्रभु (अप्र-भूती) स्वल्प प्रयत्न से ही (अपः निः असृजत्) जलों को, मेघवत् रचता है । (जनयः न) जिस प्रकार स्त्रियें (शुचयः) रज से शुद्ध होकर (वर्णम् भरिभ्रति) उत्तम वीर्य को धारण करती हैं और सन्तान उत्पन्न करती हैं उसी प्रकार (ताः जनयः) वे ‘आपः’ समस्त प्राणियों को उत्पन्न करने वाली व्यापक, (सिन्धवः) वेग से बहने वाले द्रव रूप होकर (क्षेमम् कृण्वानाः) जगत् की रक्षा करती हुई वा जीवों के निवास या देह वा लोक को रचती हुई (शुचयः) शुद्ध, स्वच्छ, कान्तिमान् हो कर (अस्य) इस परमेश्वर के (वर्णम्) तेज को (भरिभ्रति) धारण करती हैं।
टिप्पणी
अप एव ससर्जादौ तासु बीज-मवासृजत्॥ मनुः॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—१, ५–९ अग्निवरुणमोमानां निहवः । २—४ अग्निः। देवता—१—४ अग्निः। ५-८ यथानिपातम्। ९ इन्द्रः। छन्द:– १, ३, ८ त्रिष्टुप्। २, ४, ९ निचृत्त्रिष्टुप्। ५ विराट् त्रिष्टुप्। ६ पादनिचृत्त्रिष्टुप्। ७ जगती। नवर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(कविः) क्रान्तदर्शी परमात्मा (कवित्वा) स्वक्रान्तदर्शित्वेन (दिवि) द्योतमाने चेतने स्वरूपे (रूपम्-आ असजत्) ज्ञानानन्दरूपमासक्तं करोति तदा (वरुणः) साङ्कल्पिकप्राणः (अप्रभूती) स्वाभाविकतत्त्व-विभूत्या आविर्भवति (अपः-निः-सृजत्) प्राणप्रवृत्तीरपि निःसृजति मोक्षे साङ्कल्पिकशरीरभावात्-साङ्कल्पिकप्राणप्रवृत्तयोऽपि सम्प्रवर्तन्ते (क्षेमं कृण्वाना जनयः-न) ताः कल्याणं कुर्वाणाः स्त्रिय इव (ताः शुचयः सिन्धवः) ताः पवित्राः स्यन्दमानाः कामाः “समुद्र इव कामाः” “स यं यं कामयते सोऽस्य सङ्कल्पादेव समुत्तिष्ठते तेन सम्पन्नो महीयते” (अस्य वर्णं भरिभ्रति) अस्य मुक्तात्मनो वर्णं वास्तविकं रूपं धारयति “परं ज्योतिरुपसम्पद्य स्वेन रूपेणाभिनिष्पद्यते” ॥७॥
इंग्लिश (1)
Meaning
The sovereign creator with his divine vision and power created the light and placed it as the sun in heaven. Varuna, the same lord omnipotent of the element of waters, created and released the rivers aflow which, pure and creative mothers, harbingers of peace and joy, bear and manifest the generosity and majesty of the lord.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्मा मोक्षामध्ये आत्म्यात आपला आनंद भरतो. सांकल्पिक प्राणाच्या प्रवृत्तीही आपल्या विभूतींनी प्रवृत्ती चालू ठेवतात. ज्या या आत्म्याच्या कामनांना पूर्ण करतात. त्याचे रूप चमकावितात. ॥७॥
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