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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 13 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 13/ मन्त्र 2
    ऋषिः - विवस्वानादित्यः देवता - हविर्धाने छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    य॒मे इ॑व॒ यत॑माने॒ यदैतं॒ प्र वां॑ भर॒न्मानु॑षा देव॒यन्त॑: । आ सी॑दतं॒ स्वमु॑ लो॒कं विदा॑ने स्वास॒स्थे भ॑वत॒मिन्द॑वे नः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य॒मे इ॒वेति॑ य॒मेऽइ॑व । यत॑माने॒ इति॑ । यत् । ऐत॑म् । प्र । वा॒म् । भ॒र॒न् । मानु॑षाः । दे॒व॒ऽयन्तः॑ । आ । सी॒द॒त॒म् । स्वम् । ऊँ॒ इति॑ । लो॒कम् । विदा॑ने॒ इति॑ । स्वा॒स॒स्थे इति॑ सु॒ऽआ॒स॒स्थे । भ॒व॒त॒म् । इन्द॑वे । नः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यमे इव यतमाने यदैतं प्र वां भरन्मानुषा देवयन्त: । आ सीदतं स्वमु लोकं विदाने स्वासस्थे भवतमिन्दवे नः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यमे इवेति यमेऽइव । यतमाने इति । यत् । ऐतम् । प्र । वाम् । भरन् । मानुषाः । देवऽयन्तः । आ । सीदतम् । स्वम् । ऊँ इति । लोकम् । विदाने इति । स्वासस्थे इति सुऽआसस्थे । भवतम् । इन्दवे । नः ॥ १०.१३.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 13; मन्त्र » 2
    अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 13; मन्त्र » 2
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (यमे-इव यतमाने यत्-ऐतम्) हे वधूवरो ! तुम जैसे माता के उदर से दो युगल कन्यायें परस्पर बन्धन में बद्ध होकर उत्पन्न होती हैं, वैसे तुम वेदी पर प्राप्त होओ (मानुषाः देवयन्तः वां प्रभरन्) तब परमात्मा को चाहते हुए आस्तिक जन तुम्हारा प्रकृष्टरूप से भरण-पोषण और अनुमोदन करते हैं (स्वं लोकम्-उ-आसीदतम्) अतः तुम विवाह के अनन्तर अपने घर को भलीभाँति प्राप्त होओ, और वहाँ जाकर (विदाने स्वासस्थे) स्वात्मा में द्युलोक और पृथिवीलोक जैसे प्रतिष्ठित हुए अपने को समझो (नः-इन्दवे भवतम्) हमारे यज्ञ-श्रेष्ठकर्म को साधने के लिए सहयोगी होओ ॥२॥

    भावार्थ

    विवाह को चुकने पर गृहस्थ बन्धन में जब स्त्री-पुरुष बँध जावें, तो आस्तिक जन उनका अनुमोदन करें और वे अपने घर में गृहस्थ को चलाने के लिए जैसे द्युलोक पृथिवीलोक संसार को चलाते हैं, ऐसे अपने को समझकर स्थिर रहें। इस प्रकार अन्य गृहस्थ आश्रमियों की भाँति यज्ञादि श्रेष्ठकर्म करते रहें ॥२॥ 

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    विषय

    विदाने - स्वासस्थे

    पदार्थ

    [१] गत मन्त्र के पति पत्नी से ही कहते हैं कि (यमे इव) = एक जोड़ी की तरह सदा साथ रहनेवाले (यतमाने) = गृह को स्वर्ग बनाने के लिये प्रयत्न करते हुए (यदा एतम्) = जब आप गतिशील होते हो । अर्थात् जब पति-पत्नी में कुछ भी विरोध नहीं होता। पूर्ण अविरोध वाले से जब ये गृह की उन्नति के लिये प्रयत्न में लगते हैं। [२] (वाम्) = आप दोनों को मानुषा मनुष्यों का हित करनेवाले अथवा विचारपूर्वक कर्म करनेवाले (देवयन्तः) = उस देव को अथवा दिव्यगुणों को अपनाने की कामना वाले (प्रभरन्) = जब सदा उत्तम भावनाओं से भरते हैं, [३] तो आप (उ) = निश्चय से (स्वं लोकम्) = अपने लोक में (आसीदतम्) = आसीन होवो । अर्थात् घर को ही आप अपना स्थान समझो सच्ची बात तो यह है कि प्रतिक्षण मन्दिर में ही रहनेवाले भी न बन जाओ। घर पर रहते हुए घर को अच्छा बनाने का प्रयत्न करो। समाज के ध्यान में कहीं बच्चों की तरफ से बेध्यानी न हो जाए। [४] (विदाने) = नैतिक स्वाध्याय व सत्संग से ज्ञानी बनते हुए (स्वासस्थे) = स्वस्थ शरीर रूप शोभन निवास स्थान वाले आप दोनों (नः) = हमारे (इन्दवे) = ऐश्वर्य को प्राप्त करने के लिये (भवतम्) = समर्थ होवो । अर्थात् आपका शरीर स्वस्थ हो, मस्तिष्क ज्ञानपूर्ण हो, आप दोनों प्रभु के तेज के अंश से देदीप्यमान बनो ।

    भावार्थ

    भावार्थ - घर में पति-पत्नी एक होकर चलें, उन्हें देव पुरुषों से प्रेरणा प्राप्त होती रहे । घर में रहते हुए वे ज्ञानी व स्वस्थ बनें। प्रभु के तेजस्व को प्राप्त करें ।

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    विषय

    स्त्री पुरुषों के कर्तव्य।

    भावार्थ

    हे स्त्री पुरुषो ! आप लोग (यद्) जब (यमे इव) परस्पर सम्बद्ध होकर, विवाहित पतिपत्नी के समान यम-नियम में बद्ध होकर (यतमाने) यत्न करते हुए (आ एतं) प्राप्त होवो, तो (वयं) आप दोनों को (देवयन्तः मनुषाः) विद्वानों को चाहने वाले मनुष्य (प्रभरन्) अच्छी प्रकार पोषण-पालन करें। आप लोग (स्वम् उ लोकं विदाने) अपने प्रकाश रूप आत्मा को जानते हुए (आ सीदतम्) आदरणीय पदपर विराजो। और (नः इन्दवे) हमारे ऐश्वर्य वृद्धि के लिये (सु-आसस्थे भवतम्) शुभ आसन पर विराजो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विवस्वानादित्य ऋषिः। हविर्धाने देवता॥ छन्द:- १ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। २, ४ निचृत् त्रिष्टुप्। ३ विराट् त्रिष्टुप्। ५ निचृज्जगती। पञ्चर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (यमे-इव यतमाने यत्-ऐतम्) हे वधूवरौ ! युवां यथा मातुरुदराद् बहिरागमनं कुरुतो द्वे कन्ये तथा यतमानौ परस्परं बन्धनबद्धौ यतो वेद्यां प्राप्नुतम् तदा (मानुषाः देवयन्तः-वां प्रभरन्) देवं परमात्मानमिच्छन्तः-आस्तिका जनाः युवां प्रकृष्टं भरन्ति पुष्णन्ति-अनुमोदयन्ति (स्वं लोकम्-उ-आसीदतम्) विवाहानन्तरं स्वगृहं खलु समन्तात् प्राप्नुतम्, तत्र गत्वा च (विदाने स्वासस्थे) स्वात्मनि ज्ञापयन्त्यौ द्यावापृथिव्यौ सुप्रतिष्ठिते-इव प्रतिष्ठितौ (नः-इन्दवे भवतम्) अस्माकं यज्ञाय श्रेष्ठकर्मसाधनाय सहयोगिनौ भवतम् ॥२॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Living and working together like a pair of twins in this home, when you perform this yajna, then the people around dedicated to divinity would accept and honour you as a holy couple. Abide in your own beautiful place as an enlightened couple and, happy and healthy in your own joint life, live on for the peace and joy of yourselves and all of us and for self-fulfilment in the service of divinity.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    विवाह झाल्यावर गृहस्थ बंधनात बांधला जातो. जेव्हा स्त्री-पुरुष बंधनात बांधले जातात तेव्हा आस्तिक लोकांनी त्यांना मान्यता द्यावी व जसे द्युलोक व पृथ्वीलोक जग चालवितात तसे त्यांनी आपल्या घरात गृहस्थी चालविताना स्थिर राहावे. इतर गृहस्थाश्रमी लोकांप्रमाणे यज्ञ इत्यादी श्रेष्ठ कर्म करत राहावे. ॥२॥

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