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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 13 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 13/ मन्त्र 4
    ऋषिः - विवस्वानादित्यः देवता - हविर्धाने छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    दे॒वेभ्य॒: कम॑वृणीत मृ॒त्युं प्र॒जायै॒ कम॒मृतं॒ नावृ॑णीत । बृह॒स्पतिं॑ य॒ज्ञम॑कृण्वत॒ ऋषिं॑ प्रि॒यां य॒मस्त॒न्वं१॒॑ प्रारि॑रेचीत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दे॒वेभ्यः॑ । कम् । अ॒वृ॒णी॒त॒ । मृ॒त्युम् । प्र॒ऽजायै॑ । कम् । अ॒मृत॑म् । न । अ॒वृ॒णी॒त॒ । बृह॒स्पति॑म् । य॒ज्ञम् । अ॒कृ॒ण्व॒त॒ । ऋषि॑म् । प्रि॒याम् । य॒मः । त॒न्व॑म् । प्र । अ॒रि॒रे॒ची॒त् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    देवेभ्य: कमवृणीत मृत्युं प्रजायै कममृतं नावृणीत । बृहस्पतिं यज्ञमकृण्वत ऋषिं प्रियां यमस्तन्वं१ प्रारिरेचीत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    देवेभ्यः । कम् । अवृणीत । मृत्युम् । प्रऽजायै । कम् । अमृतम् । न । अवृणीत । बृहस्पतिम् । यज्ञम् । अकृण्वत । ऋषिम् । प्रियाम् । यमः । तन्वम् । प्र । अरिरेचीत् ॥ १०.१३.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 13; मन्त्र » 4
    अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 13; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (देवेभ्यः कं मृत्युम्-अवृणीत) बृहस्पति परमात्मा मुमुक्षुजनों के लिए किस मृत्यु को स्वीकार करता है अर्थात् किसी भी मृत्यु को नहीं किन्तु स्वाभाविक जरानन्तर होनेवाली मृत्यु को स्वीकार करता है क्योंकि देव तो अमर होते हैं (प्रजायै कम्-अमृतं न-अवृणीत) देवों से भिन्न प्रजायमान केवल जन्म धारण करने योग्य प्रजा के लिए किसी भी अमृत को नहीं स्वीकार करता। वह तो जन्म में भोगरत है, यह कैसे ? (बृहस्पतिम्-ऋषि यज्ञम्-अकृण्वत) वेदस्वामी सर्वज्ञद्रष्टा परमात्मा को जो सङ्गमनीय बनाते हैं, उसे आश्रित करते हैं, उन मुमुक्षुओं के लिए किसी मृत्यु को न करके उन्हें अमृत बनाता है और उनसे विपरीत पुनः-पुनः प्रजायमान नास्तिकों-प्रेयमार्ग में प्रवृत्त हुओं की (प्रिया तन्वं यमः प्रारिरेचीत्) प्यारी देह को काल प्राणरहित कर देता है ॥४।

    भावार्थ

    सर्वज्ञ अन्तर्यामी परमात्मा उपासना करते हुए मुमुक्षुओं के लिये जरा के अनन्तर ही मृत्यु को करता है, मध्य में नहीं और उनसे भिन्न नास्तिक जनों की देह को काल प्राणों से रिक्त कर देता है, उनको अमृत की प्राप्ति नहीं होती ॥४॥

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    विषय

    उत्थान व पतन

    पदार्थ

    [१] गत मन्त्र के अनुसार ऋत के बन्धन में अपने को बाँधनेवाले पुरुष अपने जीवन को पवित्र करते हैं। ये पवित्र जीवन वाले व्यक्ति ही देव कहाते हैं। देव बन जाने के बाद हमें कहीं उस देवत्व का गर्व न हो जाए। हम देव बनकर कहीं पतित न हो जाएँ। यह पतन प्रभु की ओर से नहीं होता, हमारी ही स्वाभाविक अल्पता इस पतन का कारण हुआ करती है । मन्त्र में कहते हैं कि (देवेभ्यः) = इन देव लोकों के लिये (कं मृत्युम्) = किस मृत्यु का (अवृणीत) = प्रभु वरण करते हैं ? वस्तुतः मनुष्य की स्वाभाविक न्यूनता ही उसे देव बन जाने के बाद भी मृत्यु की ओर ले जा सकती है । सो देवत्व प्राप्त करने के समय अधिक सावधानी की आवश्यकता है। [२] इसी प्रकार (प्रजायै) = सामान्य लोगों के लिये (कम्) = किस (अमृतम्) = अमृतत्व को न (अवृणीत) = उस प्रभु ने वरण नहीं किया ? प्रभु ने तो वस्तुतः प्रत्येक व्यक्ति को अमृतत्व प्राप्ति के लिये आवश्यक सभी साधनों को प्राप्त कराया ही है। व्यक्ति ही उनका सदुपयोग नहीं करता और परिणामतः अमृतत्व प्राप्ति से वञ्चित रह जाता है । [३] परन्तु जो व्यक्ति इन अमृतत्व प्राप्ति के ठीक साधनों का प्रयोग करता हुआ उन्नतिपथ पर आगे बढ़ता है और उन्नत होता हुआ ऊर्ध्व दिशा का अधिपति 'बृहस्पति' बनता है, उस (बृहस्पतिं ऋषिम्) = वेदज्ञान के पति तत्त्वद्रष्टा को वे प्रभु (यज्ञं अकृण्वत) = [यज संगतिकरणे] अपने साथ मेल वाला करते हैं। उस समय यह बृहस्पति 'शरीर' होता है और प्रभु उसके ‘अन्तरात्मा’। [४] (यमः) = ये अन्तः स्थित सर्वनियन्ता प्रभु (प्रियां तन्वम्) = अपने प्रिय शरीरभूत इस बृहस्पति को (प्रारिरेचीत्) = सब दोषों से रिक्त कर देते हैं । अर्थात् इसके जीवन को पवित्र व निर्दोष बना देते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु ने हमें सब उन्नति के साधन प्राप्त कराये हैं। हम ज्ञानी व तत्त्वद्रष्टा बनकर प्रभु के प्रिय बनें। प्रभु हमें निर्दोष बनाएँगे ।

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    विषय

    अमृत-प्राप्ति का मार्ग

    भावार्थ

    (देवेभ्यः) विद्वान् पुरुषों के हितार्थ (मृत्युं) मृत्यु को (अवृणीत कम्) दूर करो और (प्रजायै) प्रजा के लिये (अमृतं) दीर्घ जीवन को (न अवृणीत) नष्ट न होने दो। (बृहस्पतिम्) वेद-वाणी के पालक (यज्ञं) पूज्य, सत्संग योग्य (ऋषिं) वेद मन्त्रों के यथार्थ द्रष्टा पुरुष को (अकृण्वत) नियुक्त करो और (मनः) विवाह आदि बन्धन से बद्ध पुरुष (प्रियां तन्वं) अपने प्रिय तनु, सन्तति आदि को (प्रारिरेचित्) उत्पन्न करे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विवस्वानादित्य ऋषिः। हविर्धाने देवता॥ छन्द:- १ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। २, ४ निचृत् त्रिष्टुप्। ३ विराट् त्रिष्टुप्। ५ निचृज्जगती। पञ्चर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (देवेभ्यः कं मृत्युम्-अवृणीत) बृहस्पतिः ‘उत्तरार्द्धितः’ वेदवाचः स्वामी परमात्मा मुमुक्षुभ्यः कतमं मृत्युं स्वीकरोति ? न कमपि, स्वाभाविकं जरानन्तरभाविनमेव सकृन्मृत्युं-अवृणीत-स्वीकरोति ते देवास्तु खल्वमृतभागिनः (प्रजायै कम्-अमृतं न-अवृणीत) प्रजायमानायै देवेभ्यो भिन्नायै केवलं जन्मधारणयोग्यायै कमपि खल्वमृतं न स्वीकरोति सा तु जन्मनि भोगरता, कुत एवं यत् (बृहस्पतिम्-ऋषिं यज्ञम्-अकृण्वत) वेदस्वामिनं सर्वद्रष्टारं परमात्मानं सङ्गमनीयं ते कुर्वन्ति-आश्रयन्ति तेभ्यो मुमुक्षुभ्यः कमपि मृत्युं न कृत्वा तान् स अमृतान् करोति, अथ तद्विपरीतानां प्रजायमानानां नास्तिकानां प्रेयमार्गे प्रवृत्तानाम् (प्रियां तन्वं यमः प्रारिरेचीत्) प्रियां तनुं-प्रियं देहं यमः कालः प्राणरहितं करोति ॥४॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Which death does Brhaspati or Yama choose for the divines? What immortality does he not choose for ordinary humans? Choose Brhaspati, universal divine Seer as the high priest as well as the object of yajna, self-sacrifice, and Yama would either strengthen the dear body vestment of the soul, or, otherwise empty it out of life energy.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    सर्वज्ञ अंतर्यामी परमात्मा उपासना करणाऱ्या मुमुक्षूसाठी वृद्धावस्थेनंतरच मृत्यू दतो. मधेच नाही व त्यांच्यापेक्षा भिन्न नास्तिकाच्या देहाला काळ प्राणरहित करतो. त्यांना अमृताची प्राप्ती होत नाही. ॥४॥

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