ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 131/ मन्त्र 2
ऋषिः - सुकीर्तिः काक्षीवतः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
कु॒विद॒ङ्ग यव॑मन्तो॒ यवं॑ चि॒द्यथा॒ दान्त्य॑नुपू॒र्वं वि॒यूय॑ । इ॒हेहै॑षां कृणुहि॒ भोज॑नानि॒ ये ब॒र्हिषो॒ नमो॑वृक्तिं॒ न ज॒ग्मुः ॥
स्वर सहित पद पाठकु॒वित् । अ॒ङ्ग । यव॑ऽमन्तः । यव॑म् । चि॒त् । यथा॑ । दान्ति॑ । अ॒नु॒ऽपू॒र्वम् । वि॒ऽयूय॑ । इ॒हऽइ॑ह । ए॒षा॒म् । कृ॒णु॒हि॒ । भोज॑नानि । ये । ब॒र्हिषः॑ । नमः॑ऽवृक्तिम् । न । ज॒ग्मुः ॥
स्वर रहित मन्त्र
कुविदङ्ग यवमन्तो यवं चिद्यथा दान्त्यनुपूर्वं वियूय । इहेहैषां कृणुहि भोजनानि ये बर्हिषो नमोवृक्तिं न जग्मुः ॥
स्वर रहित पद पाठकुवित् । अङ्ग । यवऽमन्तः । यवम् । चित् । यथा । दान्ति । अनुऽपूर्वम् । विऽयूय । इहऽइह । एषाम् । कृणुहि । भोजनानि । ये । बर्हिषः । नमःऽवृक्तिम् । न । जग्मुः ॥ १०.१३१.२
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 131; मन्त्र » 2
अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 19; मन्त्र » 2
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अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 19; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(अङ्ग) हे परमात्मन् ! वा राजन् ! (कुवित्) यह प्रशंसनीय है (यवमन्तः) अन्नवान् किसान (यथा यवं चित्) जैसे अन्न को भी (वियूय) पृथक्-पृथक् करके (अनुपूर्वम्) आनुपूर्व्य से-अनुक्रम से (दान्ति) काटते हैं, ऐसे (इह-इह) इस स्थान में इस स्थान में (एषां भोजनानि) इन यजमानों की भोग्य वस्तुओं को (कृणुहि) कर (ये) जो (बर्हिषः) प्रजा की (वृक्तिम्) अन्नदाननिषेध क्रिया को (न जग्मुः) नहीं प्राप्त होते हैं, किन्तु देते हैं, प्रशंसनीय है ॥२॥
भावार्थ
जैसे किसान अनुक्रम से पके अन्न को काटते हैं, एवं प्रजाजन के लिये अनुक्रम से श्रेष्ठ राष्ट्रसंचालक भाग पृथक्-पृथक् यथायोग्य भाग दें, यह प्रशंसनीय कार्य है ॥२॥
विषय
वासनाशून्य हृदय में प्रभु के प्रति नमन
पदार्थ
[१] हे (अंग) = प्रिय ! (यथा) = जैसे (यवमन्तः) = जौवाले, जौ की कृषि करनेवाले, (चित्) = निश्चय से (यवम्) = जौ को (अनुपूर्वम्) = क्रमशः (वियूय) = पृथक् पृथक् करके (कुवित्) = खूब ही (दान्ति) = काट डालते हैं । इसी प्रकार (ये) = जो व्यक्ति अपने हृदयक्षेत्र से वासनाओं को उखाड़ डालते हैं और इस वासनाशून्य (बर्हिषः) = जिसमें से वासनाओं का उद्धर्हण कर दिया गया है, उस हृदय में (नमः वृक्तिम्) = नमस्कार के वर्जन को (न जग्यु:) = नहीं प्राप्त होते हैं । अर्थात् जो अपने हृदयों को वासनाशून्य बनाते हैं और उन हृदयों में सदा प्रभु के प्रति नमन की भावना को धारण करते हैं, (एषाम्) = इन व्यक्तियों के (इह इह) = इस इस स्थान पर, अर्थात् जब-जब आवश्यकता पड़े (भोजनानि) = पालन के साधनभूत भोग्य पदार्थों को प्राप्त कराइये । [२] मनुष्य का कर्त्तव्य यह है कि एक-एक करके वासना को विनष्ट करनेवाला हो । निर्वासन हृदय में प्रभु का नमन करे । प्रभु इसके योगक्षेम को प्राप्त कराते ही हैं।
भावार्थ
भावार्थ - मनुष्य वासनाओं का उद्धर्हण करके वासनाशून्य हृदय में प्रभु के प्रति नमनवाला होता है, तो प्रभु उसके योगक्षेम की स्वयं व्यवस्था करते हैं ।
विषय
कृषिवत् नियम से प्रभु भक्ति करने वालों की रक्षा प्रार्थना।
भावार्थ
(अंग) हे जल, अन्न देने वाले मेघ वा सूर्य के समान राजन् ! प्रभो ! (यव-मन्तः) जौ आदि खेतियों के स्वामी कृषक लोग जिस प्रकार (अनु-पूर्वम्) क्रमानुसार एक के बाद एक (यवं चिद् यथा दान्ति) उत्तम पके जौ आदि को काटते हैं उसी प्रकार (ये) जो (बर्हिषः) महान् यज्ञ वा प्रभु के निमित्त (नमः-वृक्तिम्) नमस्कार वा हवि आदि के वर्जन को (न जग्मुः) नहीं जाते अर्थात् नित्य प्रभु की उपासना करते और नित्य यज्ञ-दान करते हैं (एषां) उन उनको (इह इह) इस इस राष्ट्र के नाना स्थानों को भी (भोजनानि) भोग योग्य नाना अन्नादि रक्षा के साधन (कृणुहि) कर। अर्थात् किसानों उपासकों, यज्ञकर्ताओं को रक्षादि से बचा।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः सुकीर्तिः काक्षीवतः॥ देवता–१– ३, ६, ७ इन्द्रः। ४, ५ अश्विनौ। छन्दः– १ त्रिष्टुप्। २ निचृत् त्रिष्टुप्। ३ विराट् त्रिष्टुप्। ५, ६, ७ पाद-निचृत् त्रिष्टुप्। ४ निचृदनुष्टुप्॥ सप्तर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(अङ्ग) हे परमात्मन् ! राजन् ! वा (कुवित्) प्रशंसनीयमिदं यत् “कुवित् भूर्यर्थप्रशंसायां च” [अव्ययार्थनिबन्धनम्] (यवमन्तः) अन्नवन्तः “यवं दुहन्तो-अन्नं दुहन्तो” [निरु० ६।२६] कृषकाः (यथा यवं चित्) यथाऽन्नमपि (वियूय-अनुपूर्वं दान्ति) पृथक् पृथक् कृत्वा खल्वानुपूर्व्येण लुनन्ति “दाप् लवने” [अदादि०] एवं (इह-इह) अत्र स्थाने अत्र स्थाने (एषां भोजनानि कृणुहि) एतेषां यजमानानां भोगवस्तूनि कुरु (ये बर्हिषः) ये प्रजायाः (वृक्तिं न जग्मुः) अन्नदानवर्जनं न प्राप्नुवन्ति किन्तु तस्या भागं प्रयच्छन्ति हि ॥२॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Well then, just as master farmers of grain harvest the crop in order and separate the grain from the chaff, so, dear lord, here, there, everywhere, in order create and provide food and sustenance for those who never neglect yajnic offerings but bear the holy grass and bring homage to the vedi.
मराठी (1)
भावार्थ
जसे शेतकरी अनुक्रमाने पक्व झालेल्या धान्याची कापणी करतात, तसे प्रजेसाठी अनुक्रमाने श्रेष्ठ संचालकाने पृथक्-पृथक् व योग्य भाग द्यावा. हे प्रशंसनीय कार्य आहे. ॥२॥
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