ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 131/ मन्त्र 7
ऋषिः - सुकीर्तिः काक्षीवतः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - पादनिचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
तस्य॑ व॒यं सु॑म॒तौ य॒ज्ञिय॒स्यापि॑ भ॒द्रे सौ॑मन॒से स्या॑म । स सु॒त्रामा॒ स्ववाँ॒ इन्द्रो॑ अ॒स्मे आ॒राच्चि॒द्द्वेष॑: सनु॒तर्यु॑योतु ॥
स्वर सहित पद पाठतस्य॑ । व॒यम् । सु॒ऽम॒तौ । य॒ज्ञिय॑स्य । अपि॑ । भ॒द्रे । सौ॒म॒न॒से । स्या॒म॒ । सः । सु॒त्रामा॑ । स्वऽवा॑न् । इन्द्रः॑ । अ॒स्मे इति॑ । आ॒रात् । चि॒त् । द्वेषः॑ । स॒नु॒त । यु॒यो॒तु॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
तस्य वयं सुमतौ यज्ञियस्यापि भद्रे सौमनसे स्याम । स सुत्रामा स्ववाँ इन्द्रो अस्मे आराच्चिद्द्वेष: सनुतर्युयोतु ॥
स्वर रहित पद पाठतस्य । वयम् । सुऽमतौ । यज्ञियस्य । अपि । भद्रे । सौमनसे । स्याम । सः । सुत्रामा । स्वऽवान् । इन्द्रः । अस्मे इति । आरात् । चित् । द्वेषः । सनुत । युयोतु ॥ १०.१३१.७
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 131; मन्त्र » 7
अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 19; मन्त्र » 7
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अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 19; मन्त्र » 7
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(तस्य) उस (यज्ञियस्य) सङ्गमनीय-परमात्मा की या राजा की (सुमतौ) कल्याणी मति में (सौमनसे) अच्छे मनोभाव में (भद्रे) कल्याणरूप में (स्याम) होवें (सः) वह (सुत्रामा) सुरक्षक (स्ववान्) सामर्थ्यवाला (इन्द्रः) परमात्मा या राजा (आरात्-चित्) दूर से भी (द्वेषः) द्वेष करनेवाले शत्रु को (सनुतः) सदा (युयोतु) पृथक् करे ॥७॥
भावार्थ
उपासकजनों को चाहिये कि वह परमात्मा की कल्याणकारी वेदवाणी के अनुसार आचरण करते हुए जीवन व्यतीत करें, तो दुःखदायी शत्रु भी उनसे दूर हो जाते हैं एवं प्रजाजन राजा की न्यायव्यवस्था या शासनव्यवस्था में रहने से शत्रुओं से सुरक्षित रहते हैं ॥७॥
विषय
सुमति-सौमनस
पदार्थ
[१] प्रभु यज्ञिय हैं, पूज्य हैं, संगतिकरण योग्य हैं तथा समर्पणीय हैं । (तस्य यज्ञियस्य) = उस यज्ञिय प्रभु की (सुमतौ) = कल्याणी मति में वयं स्याम हम हों। अपि और (भद्रे सौमनसे) = [स्याम] उस उत्तम मन में हम स्थित हों जो कि सबका भद्र व कल्याण ही सोचता है । [२] (सः) = वह (सुत्रामा) = उत्तम त्राण करनेवाला (स्ववान्) = आत्मिक शक्ति को देनेवाला (इन्द्रः) = शत्रु - विद्रावक प्रभु (अस्मे) = हमारे से (द्वेषः) द्वेष को (आरात् चित्) = निश्चय से बहुत दूर (सनुतः) = अन्तर्हित करके (युयोतु) = पृथक् कर दे 'द्वेष हमें फिर देख भी न सके' इस रूप में प्रभु द्वेष को हमारे से दूर कर दे ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु कृपा से हमें सुमति व सौमनस प्राप्त हो । द्वेष हमारे से दूर हो। यह सूक्त शत्रु - विजय से प्रारम्भ होता है, सुमति व सौमनस की प्राप्ति पर समाप्त होता है । साधना यही है कि हम अन्तः शत्रुओं को जीतकर उत्तम बुद्धि व मनवाले बनें। ऐसा बनने पर हम 'शकपूतः'=शक्ति के द्वारा पवित्र जीवनवाले होंगे। तथा नार्मेधः = नृमेध यज्ञ करनेवाले, लोकहित की प्रवृत्तिवाले बनेंगे। यह 'शकपूत नार्मेध' ही अग्रिम सूक्त का ऋषि है। यह इस प्रकार मन्त्र जप करता है-
विषय
राजा अपनी पालक शक्तियों से प्रजा में अभय स्थापन करे और प्रजाएं उसके अधीन द्वेषरहित होकर रहें।
भावार्थ
व्याख्या देखो। (अष्ट० ४। अ० ७। वर्ग ३५ तदनुसार मण्डल ६ सू० ४७ । मं० १२, १३) इत्येकोनविंशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः सुकीर्तिः काक्षीवतः॥ देवता–१– ३, ६, ७ इन्द्रः। ४, ५ अश्विनौ। छन्दः– १ त्रिष्टुप्। २ निचृत् त्रिष्टुप्। ३ विराट् त्रिष्टुप्। ५, ६, ७ पाद-निचृत् त्रिष्टुप्। ४ निचृदनुष्टुप्॥ सप्तर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(तस्य यज्ञियस्य सुमतौ) तस्य सङ्गमनीयस्य परमात्मनो राज्ञो वा कल्याण्यां मतौ (सौमनसे भद्रे स्याम) सुमनोभावे कल्याणरूपे भवेम (सः-सुत्रामा स्ववान्) स सुरक्षकः सामर्थ्यवान् (इन्द्रः) परमात्मा राजा वा (आरात्-चित्-द्वेषः सनुतः-युयोतु) दूरादपि द्वेष्टॄन् शत्रून् सर्वदा “सनुतः सर्वदा” [अव्ययार्थनिबन्धनं दयानन्दः] पृथक् करोतु ॥७॥
इंग्लिश (1)
Meaning
We pray may we ever abide in the good will and loving kindness of adorable Indra. May he, self- refulgent, self-potent, saviour protector, keep off and drive away for all time elements of hate and enmity far and near, all.
मराठी (1)
भावार्थ
उपासकांनी परमात्म्याच्या कल्याणकारी वेदवाणीनुसार आचरण करत जीवन व्यतीत करावे. तेव्हा दु:खदायक शत्रूही त्यांच्यापासून दूर होतात व प्रजा जन राजाची न्यायव्यवस्था किंवा शासनव्यवस्थेत राहिल्याने शत्रूपासून सुरक्षित राहतात. ॥७॥
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