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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 132 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 132/ मन्त्र 2
    ऋषिः - शकपूतो नार्मेधः देवता - मित्रावरुणौ छन्दः - पादनिचृत्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    ता वां॑ मित्रावरुणा धार॒यत्क्षि॑ती सुषु॒म्नेषि॑त॒त्वता॑ यजामसि । यु॒वोः क्रा॒णाय॑ स॒ख्यैर॒भि ष्या॑म र॒क्षस॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ता । वा॒म् । मि॒त्रा॒व॒रु॒णा॒ । धा॒र॒यत्क्षि॑ती॒ इति॑ धा॒र॒यत्ऽक्षि॑ती । सु॒ऽसु॒म्ना । इ॒षि॒त॒त्वता॑ । य॒जा॒म॒सि॒ । यु॒वोः । क्रा॒णाय॑ । स॒ख्यैः । अ॒भि । स्या॒म॒ । र॒क्षसः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ता वां मित्रावरुणा धारयत्क्षिती सुषुम्नेषितत्वता यजामसि । युवोः क्राणाय सख्यैरभि ष्याम रक्षस: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ता । वाम् । मित्रावरुणा । धारयत्क्षिती इति धारयत्ऽक्षिती । सुऽसुम्ना । इषितत्वता । यजामसि । युवोः । क्राणाय । सख्यैः । अभि । स्याम । रक्षसः ॥ १०.१३२.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 132; मन्त्र » 2
    अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 20; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (मित्रावरुणा) हे अध्यापक उपदेशक या ! प्राण अपान ! (धारयत्क्षिती) धारण करने योग्य मनुष्य जिनके द्वारा, ऐसे तुम (सुसुम्ना) सुख देनेवाले (इषितत्वता) इष्टता से (ता वाम्) उन तुम (क्राणा) ज्ञान प्राप्त करने के लिए या जीवनक्रिया के सफल बनाने के लिए (यजामहे) पूजित करते हैं (युवोः सख्यैः) तुम्हारे मित्र भावों से (रक्षसः-अभि-स्याम) दुष्टों को जीतें ॥२॥

    भावार्थ

    अध्यापक उपदेशक या प्राण अपान मनुष्यों को ज्ञानप्रदान कर या जीवनप्रदान कर धारण करनेवाले सुष्ठु सुख पहुँचानेवाले इष्टसिद्धि के निमित्त हैं, उनके द्वारा पाप अज्ञान पर या दुष्ट रोग आदि पर विजय पा सकते हैं, अतः वे पूजनीय और उपयोजनीय हैं ॥२॥

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    विषय

    नीरोगता व निष्पापता

    पदार्थ

    [१] हे (मित्रावरुणा) = 'प्रमीतेः त्रायते' इस व्युत्पत्ति से मृत्यु से त्राण करनेवाली देवता 'मित्र' है, 'पापात् निवारयति 'पाप से बचानेवाली देवता 'वरुण' है। हे मित्र वरुण ! (ता वाम्) = उन आप दोनों को यजामसि = हम अपने साथ संगत करते हैं। आप (धारयत् क्षिती) = [क्षितयो मनुष्याः ] मनुष्यों का धारण करनेवाले हैं 'मित्र' सूर्य का भी नाम है, यह दिन का अभिमानी देव है । यह हमारे में प्राणशक्ति का संचार करके हमें मृत्यु से बचाता है । 'वरुण' रात्रि का अभिमानी देव है, यही चन्द्र है। यह हमें अपनी ज्योत्स्ना से शीतलता का उपदेश देता हुआ हमें क्रूरताजन्य पाप कर्मों से बचाता है। ये दोनों मित्र और वरुण हमारे शरीर को नीरोग तथा मन को निष्पाप बनाते हुए (सुषुम्ना) = हमारे उत्तम सुख का कारण बनते हैं । इसलिए (इषितत्वता) = चाहने योग्य होने के कारण प्राप्तव्य होने के कारण हम इन दोनों को अपने साथ संगत करते हैं । [२] (युवो:) = आप दोनों के (सख्यै:) = मित्रताओं से अर्थात् मित्र और वरुण के साहाय्य से (क्राणाय) = यज्ञादि उत्तम कर्मों के करनेवाले के लिए (रक्षसः अभिस्याम) = राक्षसी वृत्तियों को अभिभूत करें । अर्थात् मित्र और वरुण का साथी बनकर, नीरोग व निष्पाप बनकर यज्ञादि कर्मों को करना ही मार्ग है जिससे कि हम सब राक्षसी वृत्तियों के आक्रमण से बच सकते हैं। संक्षेप में उत्तम कर्मों में लगे रहना ही मनुष्य अशुभ मार्ग से बचानेवाला होता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - हम 'मित्र और वरुण' का आराधन करें। यह आराधना ही हमें अशुभ कर्मों से बचाएगी।

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    विषय

    उसके प्रति अन्यों के कर्तव्य।

    भावार्थ

    हे (मित्रा वरुणा) परस्पर स्नेही एवं वरण करने वाले दो श्रेष्ठ जनो ! आप दोनों (धारयत्-क्षिती) भूमि वा भूमिवासिनी प्रजाओं को धारण करने वाले (सु-सुम्ना) उत्तम सुखदायक, उत्तम धन के स्वामी हो। (ता वाम्) उन आप दोनों को हम (इषित्वता) चाहने योग्य वा प्राप्त होने योग्य गुण के कारण (यजामसि) पूजा वा सत्संग करते हैं। (क्राणाय) कर्म करने वाले के हितार्थ हम (युवोः सख्यैः) आप दोनों के मित्र भावों से (रक्षसः) दुष्ट पुरुषों को (अभि स्याम) पराजित करें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः शकपूतो नार्मेधः॥ देवता—१ लिङ्गोक्ताः। २—७ मित्रावरुणौ। छन्दः- १ बृहती। २, ४ पादनिचृत् पंक्तिः। ३ पंक्तिः। ५,६ विराट् पंक्तिः ७ महासतो बृहती ॥ सप्तर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (मित्रावरुणा) हे अध्यापकोपदेशकौ ! “मित्रावरुणौ-अध्यापकोपदेशकौ [ऋ० ७।३३।१० दयानन्दः] यद्वा प्राणापानौ “प्राणापानौ मित्रावरुणौ” [श० ६।१०।५ दयानन्दः] (धारयत्क्षिती) ध्रियमाणमनुष्यं (सुसुम्ना) सुखयितारौ (इषितत्वता ता वाम्) इषितव्यतया ‘भावप्रत्ययात् पुनर्भावप्रत्ययश्छान्दसः-तृतीयाया लुक् च’ तौ युवां (क्राणा यजामहे) ज्ञानकरणाय जीवनक्रियायै वा ‘भावे कर्तृप्रत्ययश्छान्दसः’ पूजयामः संयोजयामो वा (युवोः सख्यैः-रक्षसः-अभि-स्याम) युवयोर्मित्रभावैः दुष्टान् विजयेम ॥२॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O Mitra and Varuna, lord of light and love, and lord of sovereign judgement and freedom, you are both sustainers of the earth and givers of peace and comfort to mankind. We serve and worship you with love for the sake of cherished fulfilment. We pray, let us, with your favour and friendship, win over the forces of evil and negativity for the advancement of the lover and performer of yajna and deeds of charity.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    अध्यापक, उपदेशक किंवा प्राण, अपान माणसांना ज्ञान प्रदान करून किंवा जीवन प्रदान करून धारण करणाऱ्या उत्तम सुख देणाऱ्या इष्टसिद्धीचे निमित्त आहेत. त्यांच्याद्वारे पाप अज्ञानावर किंवा दुष्ट रोग इत्यादीवर विजय प्राप्त करता येतो. त्यामुळे ते पूजनीय व उपयोजनीय आहेत. ॥२॥

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