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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 132 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 132/ मन्त्र 7
    ऋषिः - शकपूतो नार्मेधः देवता - मित्रावरुणौ छन्दः - महासतोबृहती स्वरः - मध्यमः

    यु॒वं ह्य॑प्न॒राजा॒वसी॑दतं॒ तिष्ठ॒द्रथं॒ न धू॒र्षदं॑ वन॒र्षद॑म् । ता न॑: कणूक॒यन्ती॑र्नृ॒मेध॑स्तत्रे॒ अंह॑सः सु॒मेध॑स्तत्रे॒ अंह॑सः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यु॒वम् । हि । अ॒प्न॒ऽराजौ॑ । असी॑दतम् । तिष्ठ॑त् । रथ॑म् । न । धूः॒ऽसद॑म् । व॒न॒ऽसद॑म् । ताः । नः॒ । क॒णू॒क॒ऽयन्तीः॑ । नृ॒ऽमेधः॑ । त॒त्रे॒ । अंह॑सः । सु॒ऽमेधः॑ । त॒त्रे॒ । अंह॑सः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    युवं ह्यप्नराजावसीदतं तिष्ठद्रथं न धूर्षदं वनर्षदम् । ता न: कणूकयन्तीर्नृमेधस्तत्रे अंहसः सुमेधस्तत्रे अंहसः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    युवम् । हि । अप्नऽराजौ । असीदतम् । तिष्ठत् । रथम् । न । धूःऽसदम् । वनऽसदम् । ताः । नः । कणूकऽयन्तीः । नृऽमेधः । तत्रे । अंहसः । सुऽमेधः । तत्रे । अंहसः ॥ १०.१३२.७

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 132; मन्त्र » 7
    अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 20; मन्त्र » 7
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (युवं  हि-अप्नराजौ) तुम दोनों अध्यापक और उपदेशक कर्म के प्रकाशित करनेवाले-दर्शानेवाले (असीदतम्) बैठो-विराजमान हो (धूर्षदं रथं न) धुरा पर रहनेवाले रथ की भाँति (वनर्षदम्) वननीय सदन प्रवचनस्थान पर (तिष्ठत्) बैठो (ताः-नः) उन हम (कणूकयन्तीः) प्रार्थना करती हुई मनुष्यप्रजाओं को (नृमेधः) तुम्हारे में से एक नरों का सङ्गतिकर्त्ता-अध्यापक (अंहसः-तत्रे) अज्ञान से पाप से बचाता है ॥७॥

    भावार्थ

    अध्यापक और उपदेशक मनुष्यों के कर्मों का प्रकाश करनेवाले हैं, जैसे रथ पर रथस्वामी बैठते हैं, ऐसे प्रवचनस्थान विद्यापीठ पर बैठते हैं। ज्ञान, अध्ययन या ज्ञानप्राप्ति के लिए प्रार्थना करती हुई मानवप्रजाओं को अध्यापक उन्हें अज्ञान पाप से बचावें, अपनी सङ्गति से दूसरा उपदेशक मेधा देकर अज्ञान पाप से बचावे ॥७॥

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    विषय

    उपासना व ज्ञानरश्मियाँ

    पदार्थ

    [१] हे मित्र व वरुण ! (युवम्) = आप दोनों (हि) = निश्चय से (अप्प्रराजौ) = कर्म से दीप्त हो । वस्तुतः कर्म के अभाव में न नीरोगता है न निष्पापता । इन दोनों का मूल कर्मव्यापृतता ही है। आप दोनों (रथम्) = इस शरीर - रथ पर (असीदतम्) = आसीन होइये। जो रथ (तिष्ठत्) = स्थिर है, शीघ्रता से टूटने-फूटनेवाला नहीं। (धूर्षदम्) = जो धुराओं में स्थित है, इसकी धुरा का एक सिरा ज्ञान है तो दूसरी सिरा श्रद्धा है । (वर्णदम्) = [वन-उपासना या ज्ञानरश्मि] यह रथ उपासना व ज्ञानरश्मियों पर आधारित है । रथ के हृदयदेश में उपासना है तो मस्तिष्क प्रदेश में ज्ञानरश्मियाँ । [२] आप इस शरीररूप रथ पर इसलिए अधिष्ठित होते हो कि (ताः) = उन (नः) = हमें (कणूकयन्ती:) = आक्रुष्ट करती हुई शात्रवी सेनाओं को अभिभूत कर सको। इनको अभिभूत करके ही आप हमारा रक्षण करते हो । (नृमेधः) = लोकहित में तत्पर होनेवाला 'नृमेध' आपके द्वारा (अंहसः तत्रे) = पाप से बचाया जाता है। (सुमेधः) = उत्तम मेधावाला (अंहसः तत्रे) = पाप से बचाया जाता है। (सुमेधः) = उत्तम मेधावाल (अंहसः तत्रे) = पाप से बचाया जाता है। जब हम उत्तम बुद्धिवाले बनकर लोकहित के कार्यों में प्रवृत्त होते हैं तो पाप से बचे रहते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हमारा शरीररूप-रथ स्थिर तथा ज्ञान व श्रद्धा की धुरावाला हो। हम मित्र और वरुण की आराधना से नीरोग व निष्पाप बनते हुए लोकहित में प्रवृत्त हों और उत्तम मेधावाले बनें । सम्पूर्ण सूक्त नीरोग व निष्पाप बनने पर बल देता है, ऐसा बननेवाला सुदा: - खूब देनेवाला अथवा खूब शत्रुओं का लवन करनेवाला [दापू लवने] व पैजवन:- खूब वेगयुक्त क्रियाशील होता है । क्रियाशीलता ही तो उसे नीरोग बनाती है और दानशीलता व शत्रुलवन निष्पापता को पैदा करता है । यह 'सुदा: पैजवन: ' अगले सूक्त का ऋषि है। यह इन्द्र की आराधना करता हुआ कहता है -

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    विषय

    उत्तम स्त्रीपुरुष उत्तम रथ आदि पर विराजें सेनापतिवत् शक्तिशाली पुरुष प्रजा की सदा रक्षा करें।

    भावार्थ

    हे आप दोनों (अप्नराजौ) उत्तम रूप और कर्म से प्रकाशित होने वाले आप प्रकाशित होने वाले आप दोनों (रथम् आसीदतम्) रथपर विराजो। क्योंकि जो भी (धूः-सदम्) राष्ट्र भार को वहन करने वाली मुख्य घुरा पर आश्रित वा शत्रु को कंपाने और राष्ट्र को धारण करने वाली शक्ति को चलाने वाले तथा (वनःसदम्) ऐश्वर्य को प्राप्त करने वाले परम ( रथम् ) रमणीय रथवत् राज्यपद पर महारथवत् सेनापति के तुल्य विराजता है वह (नृ-मेधः) अनेक मनुष्यों को संगत सुगठित करने वाला होकर (नः कणूकयन्ती: ताः ) हम रोती, बिलबिलाती दुःखित प्रजाओं को (अंहसः स्तत्रे) पाप से नष्ट होने से बचालेता है। वही (सुमेधः) उत्तम बुद्धि से युक्त पुरुष, (अंहसः तत्रे) पाप से प्रजाजन को नाश होने से बचा सकता है। इति विंशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः शकपूतो नार्मेधः॥ देवता—१ लिङ्गोक्ताः। २—७ मित्रावरुणौ। छन्दः- १ बृहती। २, ४ पादनिचृत् पंक्तिः। ३ पंक्तिः। ५,६ विराट् पंक्तिः ७ महासतो बृहती ॥ सप्तर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (युवं हि-अप्नराजौ) युवां हि कर्मणः प्रकाशयितारौ अध्यापकोपदेशकौ (असीदतम्) सीदतं (धूर्षदं रथं न) धुरिसदं रथमिव (वनर्षदम्) वननीयसदनम्-प्रवचनस्थानं (तिष्ठत्) तिष्ठतम् ‘एकवचनं व्यत्ययेन’ (ताः-नः कणूकयन्तीः) ताः प्रार्थयमानाः, अस्मान्मानवप्रजाः (नृमेधः) युवयोरेको नृणां मेधयिताऽध्यापकः (अंहसः-तत्रे) अज्ञानात् पापात् त्रायते ॥७॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O Mitra and Varuna, givers of light and life energy for positive action, be seated on the vedi of cosmic yajna. Ascend the chariot strongly structured and balanced, worthy of universal movement to fight out those vociferous forces of the enemy poised against us. You save the yajaka dedicated to the progress of united humanity from sin. You save the yajamana of intelligential and scientific yajna from going astray on the path of evil and destructivity.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    अध्यापक व उपदेशक माणसांच्या कर्मांना प्रकाशित करणारे आहेत. जसे रथावर रथस्वामी बसतात. तसे ते प्रवचन स्थानावर बसतात. ज्ञान, अध्ययन करून ज्ञानप्राप्तीसाठी प्रार्थना करणाऱ्या मानवी प्रजेला अध्यापक अज्ञान पापापासून वाचवितो. आपल्या संगतीने दुसरा उपदेशक मेधा देऊन अज्ञान पापापासून वाचवितो. ॥७॥

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