ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 134/ मन्त्र 5
ऋषिः - मान्धाता यौवनाश्वः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - महापङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
अव॒ स्वेदा॑ इवा॒भितो॒ विष्व॑क्पतन्तु दि॒द्यव॑: । दूर्वा॑या इव॒ तन्त॑वो॒ व्य१॒॑स्मदे॑तु दुर्म॒तिर्दे॒वी जनि॑त्र्यजीजनद्भ॒द्रा जनि॑त्र्यजीजनत् ॥
स्वर सहित पद पाठअव॑ । स्वेदाः॑ऽइव । अ॒भितः॑ । विष्व॑क् । प॒त॒न्तु॒ । दि॒द्यवः॑ । दूर्वा॑याःऽइव । तन्त॑वः । वि । अ॒स्मत् । ए॒तु॒ । दुः॒ऽम॒तिः । दे॒वी । जनि॑त्री । अ॒जी॒ज॒न॒त् । भ॒द्रा । जनि॑त्री । अ॒जी॒ज॒न॒त् ॥
स्वर रहित मन्त्र
अव स्वेदा इवाभितो विष्वक्पतन्तु दिद्यव: । दूर्वाया इव तन्तवो व्य१स्मदेतु दुर्मतिर्देवी जनित्र्यजीजनद्भद्रा जनित्र्यजीजनत् ॥
स्वर रहित पद पाठअव । स्वेदाःऽइव । अभितः । विष्वक् । पतन्तु । दिद्यवः । दूर्वायाःऽइव । तन्तवः । वि । अस्मत् । एतु । दुःऽमतिः । देवी । जनित्री । अजीजनत् । भद्रा । जनित्री । अजीजनत् ॥ १०.१३४.५
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 134; मन्त्र » 5
अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 22; मन्त्र » 5
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अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 22; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(दिद्यवः) तीक्ष्ण चमकनेवाले अस्त्रविशेष (स्वेदाः-इव) पसीने के बिन्दुओं के समान (अभितः) शत्रुओं की ओर (विष्वक्) बिखर-बिखर कर (अव पतन्तु) गिरें (दुर्मतिः) दुष्ट शत्रु (दूर्वायाः-तन्तवः-इव) दूर्वा घास के तन्तुओं की भाँति (अस्मत्) हम से (वि-एतु) विच्छिन्न हो जावें (देवी०) पूर्ववत् ॥५॥
भावार्थ
तीक्ष्ण शस्त्र शत्रुओं के प्रति बरसाने चाहिए, जिससे कि शत्रु छिन्न-भिन्न होकर नष्ट हो जावें ॥५॥
विषय
सुमति से दर्शनीय प्रभु
पदार्थ
[१] (इव) = जैसे (स्वेदा:) = स्वेदकण (अभितः) = चारों ओर (अव) [पतन्ति] = दूर गिर जाते हैं इसी प्रकार (दिद्यवः) = प्रभु के खण्डन करनेवाले अस्त्र हमारे से (विश्वक्) = चारों ओर [अव] (पतन्तु) = दूर ही गिरें। इन अस्त्रों का हमारे पर प्रहार न हो, अर्थात् हम दण्डभागी न बनें। [२] इस दण्ड के भागी न बनने के लिए ही (दूर्वायाः तन्तवः इव) = दूर्वा के तन्तुओं की तरह (अस्मत्) = हमारे से (दुर्मतिः) = दुष्ट बुद्धि (वि एतु) = दूर हो। दुष्ट बुद्धि के न होने पर आचरण भी पवित्र होगा । पवित्राचरण के होने पर हम दण्डभागी न होंगे। [३] इस पवित्राचरण के होने पर (देवी) = सब व्यवहारों को सिद्ध करनेवाली यह (जनित्री) = लोक-लोकान्तरों को जन्म देनेवाली प्रकृति (अजीजनत्) = प्रभु की महिमा को प्रकट करती है । (भद्रा) = यह कल्याण करनेवाली (जनित्री) = उत्पादिका प्रकृति (अजीजनत्) = प्रभु का प्रादुर्भाव करती है । उत्तम बुद्धिवाले, प्रकृति के भोगों में न फँसे पुरुष को इन सब प्राकृतिक रचनाओं में प्रभु की रचना चातुरी का दर्शन होता है ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु के अस्त्र हमारे से इस तरह दूर हों जैसे स्वेद बिन्दु । दुर्मति इस प्रकार दूर हो जैसे घास का तन्तु । इस प्रकार पवित्राचरण होने पर हमें सर्वत्र प्रभु महिमा का दर्शन होगा।
विषय
हमें कैसे तेजस्वी शस्त्रास्त्र प्राप्त हों और कैसे हमारे शत्रु दुष्ट नाश हों इसमें घृतविन्दु और तृण के दृष्टान्त।
भावार्थ
हे प्रभो ! (दिद्यवः) हमारे चमचमाते शस्त्र वा ज्ञानप्रकाश, (स्वेदाः इव) पसीने के बिन्दुओं या स्नेहों के तुल्य (विष्वक् अव पतन्तु) सब ओर जावें (दूर्वायाः इव तन्तवः) घास के तिनकों के समान (दुर्मतिः अस्मत् वि एतु) दुष्ट बुद्धि वा दुःखदायी शत्रु हम से दूर हो। (देवी जनित्री०) पूर्ववत्॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः मान्धाता यौवनाश्वः। ६, ७ गोधा॥ इन्द्रो देवता॥ छन्द:—१—६ महापंक्तिः। ७ पंक्तिः॥ सप्तर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(दिद्यवः) द्योतमानास्त्रविशेषाः (स्वेदाः-इव) गात्रस्वेदबिन्दव इव (अभितः-विष्वक्-अव पतन्तु) शत्रूनभितो विकीर्णीभूय अवपतन्तु (दुर्मतिः) दुर्बुद्धिर्दुष्टः शत्रुः (दूर्वायाः-तन्तवः-इव-अस्मत्-वि-एतु) दूर्वाघासस्य तन्तव इवास्मत्तो विच्छिन्नो भवतु (देवी०) पूर्ववत् ॥५॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Let the blazing warriors of the enemies and their shining weapons fall down all round like particles of mist. Let all hate, enmity and all malignant forces droop and fall like blades of grass. The divine mother exhorts you, the gracious mother exalts you.
मराठी (1)
भावार्थ
तीक्ष्ण शस्त्रांनी शत्रूवर वर्षाव केला पाहिजे. ज्यामुळे शत्रू छिन्नभिन्न होऊन नष्ट झाला पाहिजे. ॥५॥
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