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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 136 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 136/ मन्त्र 5
    ऋषिः - मुनयो वातरशनाः देवता - केशिनः छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    वात॒स्याश्वो॑ वा॒योः सखाथो॑ दे॒वेषि॑तो॒ मुनि॑: । उ॒भौ स॑मु॒द्रावा क्षे॑ति॒ यश्च॒ पूर्व॑ उ॒ताप॑रः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वात॑स्य । अश्वः॑ । वा॒योः । सखा॑ । अथो॒ इति॑ । दे॒वऽइ॑षितः । मुनिः॑ । उ॒भौ । स॒मु॒द्रौ । आ । क्षे॒ति॒ । यः । च॒ । पूर्वः॑ । उ॒त । अप॑रः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वातस्याश्वो वायोः सखाथो देवेषितो मुनि: । उभौ समुद्रावा क्षेति यश्च पूर्व उतापरः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वातस्य । अश्वः । वायोः । सखा । अथो इति । देवऽइषितः । मुनिः । उभौ । समुद्रौ । आ । क्षेति । यः । च । पूर्वः । उत । अपरः ॥ १०.१३६.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 136; मन्त्र » 5
    अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 24; मन्त्र » 5
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (वातस्य-अश्वः) वातसूत्र से गति करता हुआ (वायोः-सखा) विद्युत् के समान धर्मवाला प्रतापवान् (अथ-उ) और (देवेषितः-मुनिः) परमात्मदेव से प्रेरित मननीय सूर्य (उभौ समुद्रौ-आ क्षेति) दोनों अन्तरिक्षरूप आकाशों में भलीभाँति निवास करता है (यः पूर्वः-उत-अपरः-च) जो पूर्व दिशावाला और जो पश्चिम दिशावाला है ॥५॥

    भावार्थ

    सूर्य आकाश में वातसूत्र द्वारा गति करता है, विद्युत् के समान प्रतापवान् परमात्मा से प्रेरित हुआ पूर्व पश्चिम में वर्तमान होता है, उसे जानना उससे लाभ उठाना चाहिये ॥५॥

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    विषय

    वायु-भक्षण

    पदार्थ

    [१] यह साधक (वातस्य) = वायु का, प्राणों का (अश्वः) = [अश भोजने] खानेवाला होता है । 'अभक्षः, वायुभक्ष:' इस वाक्य में पतञ्जलि ने 'वातस्याश्वः' का भाव व्यक्त कर ही दिया है। 'प्रातःकाल हवा खाने जाना' यह वाक्य बोलचाल में प्रयुक्त होता ही है । प्राणायाम का अभ्यास ही 'वातस्य अश्वः' बनना है । इस अभ्यास से यह (वायोः सखा) = उस गति के द्वारा सब बुराइयों के गन्ध [हिंसन] को करनेवाले प्रभु का मित्र होता है। प्राणसाधना इसके हृदय को निर्मल करती है, उस निर्मल हृदय में यह प्रभु का दर्शन करता है । [२] (अध) = अब, इस प्रभु-दर्शन के होने पर यह (देवेषितः) = उस देव से प्रेरित होता है, प्रभु की प्रेरणा को सुनता है । (मुनि:) = विचारशील बनता है । इस प्रभु की प्रेरणा को सुनकर और विचारशील बनकर यह (उभौ समुद्रौ) = दोनों समुद्रों में (आक्षेति) = निवास करता है (यः च पूर्व:) = जो पहला समुद्र है (उत) = और (अपरः) = जो पिछला समुद्र है । स सद्य एति पूर्वस्यादुतरं समुद्रम्' इस मन्त्र भाग के अनुसार यहां दो समुद्रों का अभिप्राय 'ब्रह्मचर्य और गृहस्थ' से है । ब्रह्मचर्याश्रम के बाद यह गृहस्थ में प्रवेश करता है। गृहस्थ में भी संयम से चलता हुआ यह ब्रह्मचारी ही होता है। इस प्रकार यह गृहस्थ को ब्रह्मचर्य से मिला देता है । यहाँ दोनों समुद्रों का भाव 'ज्ञान-विज्ञान' भी लिया जा सकता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्राणसाधना के द्वारा हम प्रभु के मित्र बनें। प्रभु प्रेरणा को सुनते हुए जीवन को ठीक प्रकार से बिताएँ ।

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    विषय

    समुद्र के बीच उसका सुन्दर आश्रम। आलंकारिक सत्यता का स्पष्टीकरण।

    भावार्थ

    यह (मुनिः) मननशील आत्मा वा मन (वातस्य अश्वः) वायु अर्थात् प्राण का भोक्ता, और (वायोः सखा) वायु का मित्र के तुल्य समान नाम वा स्थान वाला, प्राण आदि शब्द से कहने योग्य अथ (देव-इषितः) देवों विद्वानों और इन्द्रियों द्वारा भी चाहने योग्य, वा देव तेज, बल के देने वाले प्रभु या आत्मा से ‘इषित’ प्रेरित होकर (यः च पूर्वः उत अपरः) जो पूर्व या जो अपर हैं (उभौ समुद्रौ) दोनों समुद्रों, हर्षदायक स्थानों को (आ क्षेति) प्राप्त होता है। अथवा जो आत्मा स्वयं (पूर्वः उत च अपरः) स्वयं ही पूर्व और स्वयं ही अपर अर्थात् पश्चात् भी रहने वाला है। दो समुद्र कौन से हैं ? मन के पक्ष में स्वप्न और जाग्रत्। भीतर और बाहर, बाहर का पूर्व और भीतर का अपर [न-परः अपरः] स्वप्न अर्थात् जो अपने से भिन्न नहीं। अथवा वह आत्मा स्वयं ही पूर्व अर्थात् इस शरीर धारण से पूर्व विद्यमान होता है और स्वयं ही अपर अर्थात् शरीर धारण के बाद भी रहेगा।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः मुनयो वातरशनाः। देवता—१ जूतिः। २ वातजूतिः। ३ विप्रजूतिः। ४ वृषाणकः। ५ करिक्रतः। ६ एतशः। ७ ऋष्यशृगः॥ केशिनः॥ छन्दः— १ विराडनुष्टुप्। २—४,७ अनुष्टुप्। ५, ६ निचृदनुष्टुप्। सप्तर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (वातस्य-अश्वः) वातसूत्रेण गतिं कुर्वाणः (वायोः सखा) विद्युतः समानख्यानः “य इन्द्रः स वायुः” [श० ४।१।३।९] “यदशनिरिन्द्रः” [कौ० ६।९] “विद्युद्वा अशनिः” [श० ६।१।३।१४] (अथ-उ) अथ च (देवेषितः-मुनिः) परमात्मदेवेन प्रेरितो मननीयः सूर्यः (उभौ समुद्रौ-आ क्षेति) द्वौ खल्वन्तरिक्षरूपावाकाशौ समन्तान्निवसति (यः पूर्वः-उत-अपरः-च) यः पूर्वदिग्वर्ती यश्च पश्चिमदिग्वर्ती ॥५॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    The sun moves in orbit by the dynamics of cosmic energy. It is a cooperative friend of cosmic energy, inspired and energised by the supreme Divinity. An object of realisation in meditation, it illuminates both sides of its cosmic movement in space, the former and the latter both in the cosmic orbit.$(The soul in meditation can illuminate both sides of its orbit in time and space, the past and the future both as revealed by the sage Patanjali in accordance with the Veda.)

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    सूर्य आकाशात वातसूत्राद्वारे गती करतो. विद्युतप्रमाणे प्रतापी परमात्म्याकडून प्रेरित झालेला, पूर्व पश्चिम मध्ये वर्तमान असतो. त्याला जाणून त्यापासून लाभ घेतला पाहिजे. ॥५॥

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