ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 136/ मन्त्र 7
वा॒युर॑स्मा॒ उपा॑मन्थत्पि॒नष्टि॑ स्मा कुनन्न॒मा । के॒शी वि॒षस्य॒ पात्रे॑ण॒ यद्रु॒द्रेणापि॑बत्स॒ह ॥
स्वर सहित पद पाठवा॒युर् । अ॒स्मै॒ । उप॑ । अ॒म॒न्थ॒त् । पि॒नष्टि॑ । स्म॒ । कु॒न॒न्न॒मा । के॒शी । वि॒षस्य॑ । पात्रे॑ण । यत् । रु॒द्रेण॑ । अपि॑बत् । स॒ह ॥
स्वर रहित मन्त्र
वायुरस्मा उपामन्थत्पिनष्टि स्मा कुनन्नमा । केशी विषस्य पात्रेण यद्रुद्रेणापिबत्सह ॥
स्वर रहित पद पाठवायुर् । अस्मै । उप । अमन्थत् । पिनष्टि । स्म । कुनन्नमा । केशी । विषस्य । पात्रेण । यत् । रुद्रेण । अपिबत् । सह ॥ १०.१३६.७
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 136; मन्त्र » 7
अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 24; मन्त्र » 7
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अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 24; मन्त्र » 7
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(केशी) सूर्य (विषस्य) जल के (पात्रेण) पीने के साधन पात्र से-रश्मिसमूहों से (रुद्रेण-सह) अग्नि से (यत्-अपिबत्) जब पीता है ऊपर ग्रहण करता है, तब (अस्मै) इस सूर्य के लिये (वायुः) वायु (उप अमन्थत्) ऊपर मन्थित करता है, जल को विलोडित करता है (कुनन्नमा) कुत्सित नमानेवाली किसी से भी न नमनेवाली विद्युत्, (पिनष्टि स्म) जल को पीस देती है-अवयवरूप में करती है फिर वर्षा करती है ॥७॥
भावार्थ
सूर्य अपनी किरणों से तथा अग्नि ताप से जल को ऊपर खींचता है, वायु उसको विलोडित करता है, घुमाता है तथा विद्युत् अवयवों में छिन्न-भिन्न करता है और बरसा देता है ॥७॥
विषय
रुद्र के साथ विषपान
पदार्थ
[१] (अस्मै) = इस ठीक मार्ग पर चलनेवाले पुरुष के लिए (वायुः) = गति के द्वारा सब बुराइयों का हिंसन करनेवाला प्रभु (उपामन्थत्) = समीपता से ज्ञान का मन्थन करनेवाला होता है । अर्थात् हृदयस्थ प्रभु इसे ज्ञान के देनेवाले होते हैं । (कुनन्नमा) = [ कुत्सितं भृशं नमयति] सब बुराइयों को बुरी तरह से पीस डालनेवाली यह वेदवाणी (पिनष्टि स्मा) = इसकी सब बुराइयों को पीस डालती है । [२] (यद्) = जब केशी प्रभु से प्राप्त ज्ञान के प्रकाशवाला व्यक्ति (रुद्रेण सह) = रुद्र के साथ, उस प्रभु के साथ (पात्रेण) = शरीर रक्षण के हेतु से (विषस्य) = जल का, शरीरस्थ रेतः कणों का (अपिबत्) = पान करता है। रुद्र के साथ पान करने का अभिप्राय यह है कि प्रभु स्मरण से वासना विनष्ट होती है और वासना विनाश इस विष के पान का साधन बन जाता है। यह विष शरीर में व्यापन के योग्य है, इसकी व्याप्ति के होने पर शरीर में किसी प्रकार का रोग नहीं आ पाता ।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु उपासक को वेदज्ञान देते हैं। वेद इसकी वासनाओं को पीस डालता है । वासना विनाश के होने पर प्रभु स्मरण करता हुआ व्यक्ति शरीर में रेतः कणों का रक्षण कर पाता है । सम्पूर्ण सूक्त शरीर में रेतः कणों के पान के द्वारा जीवन को पवित्र करते हुए प्रभु प्राप्ति का उल्लेख कर रहा है। अगला सूक्त भी सप्त ऋषियों का है। गत सूक्त में एक-एक मन्त्र का एक- एक ऋषि था । प्रस्तुत सूक्त में सब मन्त्रों के सब ऋषि है। सो 'सप्त ऋषयः एकर्चा: ' लिखा गया है। ये सप्त ऋषि हैं, 'भरद्वाज'-शक्ति को अपने में भरना। 'कश्यप'- ज्ञानी बनना, 'गोतम'= =प्रशस्त इन्द्रियोंवाला होना । 'अत्रि' काम-क्रोध-लोभ से ऊपर उठना। 'विश्वामित्र'- सब के साथ स्नेह से चलना । 'जमदग्नि' जाठराग्नि का ठीक होना। 'वसिष्ठः 'अपने निवास को उत्तम बनाना। ये सब बातें स्वास्थ्य के साथ कार्यकारणरूप से सम्बद्ध हैं। एक वाक्य में कहा जाये तो यही कहेंगे कि 'पूर्ण स्वस्थ बनना' । इसी का उल्लेख इस रूप में प्रारम्भ करते हैं-
विषय
आत्मा का विवरण, सूर्य के जलपान के समान आत्मा का विविध विषय का भोग। विद्युत् के समान वाणी के कार्य
भावार्थ
जिस प्रकार (केशी) सूर्य (रुद्रेण सह) वायु या गर्जनयुक्त मेघ या विद्युत् के साथ (पात्रेण) पान साधन रश्मिजाल से (विषस्य अपिबत्) जल का पान करता है, और (वायुः अस्मै उप अमन्थत्) वायु इसको आलोडित करता है और (कुनन्नमा) पृथिवी की ओर वेग से जाने वाली विद्युत् (पिनष्टि) जलराशि को पीस २ कर मानों बिन्दु २ करती है। उसी प्रकार (केशी) ज्योतिर्मय आत्मा (रुद्रेण सह) प्राण के साथ (पात्रेण) पान या पालन करने के आधार घटवत् इस देह से ही (विषस्य = वि-सस्य) विविध प्रकार से भोगने योग्य कर्मफलों का (अपिबत्) उपभोग करता है। (वायुः अस्मै उप अमन्थीत्) प्राण वायु मानो उसके लिये रस का निचोड़न करता है। और (कुनंनमा) ध्वनि २ पर झुकने वाली जिह्वा अर्थात् मुख उसके लिये ही (पिनष्टि) अन्न पीसता है। खाता है।
टिप्पणी
(कुनन्नमा) कुनं, क्वणं ध्वनिं कर्त्तुं नमतिं प्रह्वीभवति या साजिह्वा। मुखोपलक्षणमेतत्। वायु उसके लिये श्वास-प्रश्वास द्वारा मानो रक्तांश को पुनः पुनः बिलोता है। इति चतुर्विंशो वर्गः॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः मुनयो वातरशनाः। देवता—१ जूतिः। २ वातजूतिः। ३ विप्रजूतिः। ४ वृषाणकः। ५ करिक्रतः। ६ एतशः। ७ ऋष्यशृगः॥ केशिनः॥ छन्दः— १ विराडनुष्टुप्। २—४,७ अनुष्टुप्। ५, ६ निचृदनुष्टुप्। सप्तर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(केशी) सूर्यः (विषस्य) जलस्य-जलम् “विषमुदकनाम” [नि० १।१२] (पात्रेण) पातुं साधनं पात्रं तेन रश्मिसमूहेन, तथा (रुद्रेण सह) अग्निना-सह “अग्निरपि रुद्र उच्यते” [निरु० १०।७] “अथ यत्रैतत् प्रथमं समिददो भवति धूप्यत इव तर्ह्येषः-अग्निर्भवति-रुद्रः” [श० २।३।२।९] (यत्-अपिबत्) यदा पिबति-उपरि गृह्णाति तदा (अस्मै वायुः-उप अमन्थत्) अस्मै सूर्याय वायुरुपामन्थयति-तज्जलं विलोडयति (कुनन्नमा-पिनष्टि स्म) कुत्सिता नमयित्री न केनदचिदपि नामयितुं योग्या विद्युत् ‘कुपूर्वात् नमधातोरचि यङ्लुकि प्रयोगः’, तज्जलं चूर्णयति-अवयवीकरोति पुनर्वर्षति ॥७॥
इंग्लिश (1)
Meaning
When the sun drinks the soma fragrance of yajna and the vapours of water arising from the earthly vedi by the spatial cup along with the fire of the vedi, then the wind chums the wealth of nature’s bounties and the inviolable thunder grinds the grosser gifts of nature to the refined particles of rain for the earth and the moral and spiritual yajnic values for the soul of humanity.
मराठी (1)
भावार्थ
सूर्य आपल्या किरणांनी व अग्नी तापाने जलाला वर ओढतो. वायू त्याचे मंथन करतो, फिरवितो व विद्युत जलाला सूक्ष्म अवयवात छिन्नभिन्न करून वृष्टी करविते. ॥७॥
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