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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 14 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 14/ मन्त्र 4
    ऋषिः - यमः देवता - यमः छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    इ॒मं य॑म प्रस्त॒रमा हि सीदाङ्गि॑रोभिः पि॒तृभि॑: संविदा॒नः । आ त्वा॒ मन्त्रा॑: कविश॒स्ता व॑हन्त्वे॒ना रा॑जन्ह॒विषा॑ मादयस्व ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒मम् । य॒म॒ । प्र॒ऽस्त॒रम् । आ । हि । सीद॑ । अङ्गि॑रःऽभिः । पि॒तृऽभिः॑ । स॒म्ऽवि॒दा॒नः । आ । त्वा॒ । मन्त्राः॑ । क॒वि॒ऽश॒स्ताः । व॒ह॒न्तु॒ । ए॒ना । रा॒ज॒न् । ह॒विषा॑ । मा॒द॒य॒स्व॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इमं यम प्रस्तरमा हि सीदाङ्गिरोभिः पितृभि: संविदानः । आ त्वा मन्त्रा: कविशस्ता वहन्त्वेना राजन्हविषा मादयस्व ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इमम् । यम । प्रऽस्तरम् । आ । हि । सीद । अङ्गिरःऽभिः । पितृऽभिः । सम्ऽविदानः । आ । त्वा । मन्त्राः । कविऽशस्ताः । वहन्तु । एना । राजन् । हविषा । मादयस्व ॥ १०.१४.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 14; मन्त्र » 4
    अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 14; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (यम-अङ्गिरोभिः पितृभिः संविदानः इमं प्रस्तरं हि-आसीद) हे जीवनकाल ! तू प्राणों के साथ अनुकूल होता हुआ मेरे इस शरीररूपी यज्ञ को जीवनवृद्धि के हेतु अवश्य भली प्रकार प्राप्त हो (कविशस्ताः मन्त्राः त्वा आवहन्तु) शरीर-विद्यावेत्ता विद्वानों के निर्दिष्ट मन्तव्य तुझ को मेरे शरीर में चिरकाल तक रखें, अत एव (राजन्-एना-हविषा मादयस्व) हे राजमान देव ! इस हविर्दान तथा खाने योग्य पदार्थ से मुझ को सन्तुष्ट, सजीवन कर ॥४॥

    भावार्थ

    प्राणशक्ति के अभ्यास और वैद्यक सिद्धान्तों के अनुसार खानपान हवनादि क्रियाओं से मनुष्य दीर्घजीवी और सुखी हो सकता है ॥४॥

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    विषय

    यम का प्रस्तर

    पदार्थ

    [१] हे (यम) = संयमी पुरुष ! (हि) = निश्चय से (इमं प्रस्तरम्) = इस पत्थर के समान दृढ़ शरीर में (आसीद) = बैठ, निवास करनेवाला बन । शरीर को दृढ़ बनाना मनुष्य का मौलिक कर्तव्य है। जिस प्रकार बाग की चारदिवारी का मजबूत होना अत्यावश्यक है, उसी प्रकार शरीर का दृढ़ होना आवश्यक है। इस शरीर की दृढ़ता के लिये साधन 'यम' शब्द से संकेतित हो रहा है, मनुष्य संयमी बनेगा तभी शरीर को दृढ़ बना पायेगा । संयम द्वारा शरीर के दृढ़ होने पर ही मनुष्य मन व बुद्धि की उन्नति कर सकता है। [२] इस मानस व बौद्धिक उन्नति के लिये (अंगिरोभिः) = [अगि गतौ ] गतिशील (पितृभिः) = पालनात्मक कर्मों में लगे हुए व्यक्तियों से (संविदानः) = मिलकर तू ज्ञानचर्चा करनेवाला बन । आलसियों के साथ तेरा उठना-बैठना न हो, और ना ही तोड़-फोड़ के कामों में रुचि वालों के साथ तू मिल-जुल । क्योंकि जैसों के साथ तेरा संग होगा वैसा ही तो तू बनेगा । इसी दृष्टिकोण से यह प्रार्थना है कि 'यथा नः सर्व इज्जनः संगत्या सुभना असत् ' = सत्संग से हमारे सब लोग उत्तम मन वाले हों। [३] सत्संग से सुमन बने हुए (त्वा) = तुझ को (कविशस्ताः) = महान् कवि-आनन्ददर्शी प्रभु से उपदिष्ट (मन्त्राः) = ज्ञान की वाणियाँ (आवहन्तु) = जीवन के मार्ग में ले चलनेवाली हों । अर्थात् तेरा जीवन का कार्यक्रम श्रुति के अनुकूल हो । 'मंत्र श्रुत्यं चरन्नसि'-मन्त्रों में जैसा हम सुनते हैं, उसके अनुसार हम जीवन को चलानेवाले हों। [४] हे (राजन्) = इन वेदवाणियों के अनुसार व्यवस्थित जीवन [regulated]। वाले पुरुष ! तू (एना) = इस (हविषा) = हवि के द्वारा (मादयस्य) = आनन्द का अनुभव कर । अर्थात् तुझे देकर के बचे हुए को खाने में आनन्द का अनुभव हो। तू सदा हवि का सेवन करनेवाला बन । इस हवि के सेवन से ही तो वस्तुतः तू प्रभु का उपासक बनता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ- संयम से हम शरीर को पत्थर के समान दृढ़ बनावें, गतिशील व रक्षणात्मक कार्यों में लगे हुए पुरुषों के साथ हमारा संग हो । वेदज्ञान के अनुसार हम जीवन को बनायें । हवि के सेवन में आनन्द का अनुभव करें।

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    विषय

    राजा का विद्वानों के प्रति कर्तव्य।

    भावार्थ

    हे (यम) नियन्तः ! तू (इमं) इस (प्र-स्तरम्) विस्तृत, श्रेष्ठ आसन पर (आसीद हि) अवश्य विराज। और (पितृभिः) पालन करने वाले, प्रजापालक शासकों वा पिता, पितामह आदि और (अङ्गिरोभिः) विद्वान्, ज्ञानी पुरुषों से (सं-विदानः) भली प्रकार उत्तम-उत्तम ज्ञान प्राप्त करता हुआ, हे (राजन्) राजन् ! तेजस्विन्! तू राजा (हविषा) इस उत्तम अन्न आदि सत्कार योग्य साधन से (मादयस्व) प्रसन्न हो। (कवि-शस्ताः मन्त्राः) उत्तम मेधावी, बुद्धिमान् पुरुषों से उपदेश किये गये, मननयोग्य विचार (त्वा आवहन्तु) तुझे आगे, उत्तम मार्ग पर ले जावें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    यम ऋषिः॥ देवताः–१–५, १३–१६ यमः। ६ लिंगोक्ताः। ७-९ लिंगोक्ताः पितरो वा। १०-१२ श्वानौ॥ छन्द:- १, १२ भुरिक् त्रिष्टुप्। २, ३, ७, ११ निचृत् त्रिष्टुप्। ४, ६ विराट् त्रिष्टुप्। ५, ९ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ८ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। १० त्रिष्टुप्। १३, १४ निचृदनुष्टुप्। १६ अनुष्टुप्। १५ विराड् बृहती॥ षोडशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (यम-अङ्गिरोभिः-पितृभिः-संविदानः-इमं प्रस्तरं हि-आसीद) यम-हे जीवनकाल ! अङ्गानां रसैः प्राणैः सहानुकूलः संस्त्वमिमं प्रस्तरम्-शरीररूपं यज्ञं जीवनवृद्धिहेतोरवश्यमासीद्-समन्तात्प्राप्तो भव “यज्ञो वै प्रस्तरः” [श०१।३।४।१०] ‘पुरुषो वाव यज्ञः” [छन्दो०३।६।१] “पुरुषो वै यज्ञस्तस्य शिर एव हविर्धानं मुखमाहवनीयः” [गो०५।४] (कविशस्ताः-मन्त्राः-त्वा आवहन्तु) विद्वत्प्रोक्तानि शरीरविद्या-वित्प्रोक्तानि मन्तव्यानि त्वामावहन्तु-अत्र शरीरे समन्तात् प्रापयन्तु चिरं रक्षन्त्वित्यर्थः, अत एव (राजन्-एना हविषा-मादयस्व) राजन्-हे राजमान देव ! अनेन हविर्दानेनादानयोग्येन वस्तुना वा मां मादयस्व-युङ्क्ष्व-संतोषय सजीवनं कुर्वित्यर्थः ॥४॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O Yama, happy life time of health and joy, come in union with nourishing and protective energies of nature and vest those energies in my yajnic body system. Let the thoughts and health mantras of the sages come with you here with exhilarating and inspiring poetic voices, and then, shining and ruling in the system within with all these gifts, rejoice and make me happy too.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    प्राणशक्तीचा अभ्यास व वैद्यक सिद्धान्तानुसार खानपान, हवन इत्यादी क्रियांनी मनुष्य दीर्घजीवी व सुखी होऊ शकतो. ॥४॥

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