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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 141 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 141/ मन्त्र 6
    ऋषिः - अग्निस्तापसः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - विराडनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    त्वं नो॑ अग्ने अ॒ग्निभि॒र्ब्रह्म॑ य॒ज्ञं च॑ वर्धय । त्वं नो॑ दे॒वता॑तये रा॒यो दाना॑य चोदय ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वम् । नः॒ । अ॒ग्ने॒ । अ॒ग्निऽभिः॑ । ब्रह्म॑ । य॒ज्ञम् । च॒ । व॒र्ध॒य॒ । त्वम् । नः॒ । दे॒वऽता॑तये । रा॒यः । दाना॑य । चो॒द॒य॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वं नो अग्ने अग्निभिर्ब्रह्म यज्ञं च वर्धय । त्वं नो देवतातये रायो दानाय चोदय ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम् । नः । अग्ने । अग्निऽभिः । ब्रह्म । यज्ञम् । च । वर्धय । त्वम् । नः । देवऽतातये । रायः । दानाय । चोदय ॥ १०.१४१.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 141; मन्त्र » 6
    अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 29; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (अग्ने) हे अग्रणायक परमात्मन् ! (त्वम्) तू (अग्निभिः) विद्वानों के द्वारा (नः-ब्रह्म यज्ञं च वर्धय) हमारे वेदज्ञान और श्रेष्ठकर्म को बढ़ा (त्वं देवतातये) तू देवों के-विद्वानों के सत्कार के लिए (नः) हमको (रायः) धन के (दानाय) देने के लिए (चोदय) प्रेरित कर ॥६॥

    भावार्थ

    परमात्मा विद्वानों के द्वारा ब्रह्मयज्ञ और श्रेष्ठकर्म को बढ़ाता है तथा विद्वानों को देने के लिए धनों को बढ़ाता है ॥६॥

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    विषय

    ब्रह्म-यज्ञ [ज्ञान-कर्म]

    पदार्थ

    [१] हे (अग्ने) = परमात्मन् ! (त्वम्) = आप (अग्निभिः) = मातारूपी दक्षिणाग्नि से, पितारूप गार्हपत्य अग्नि से तथा आचार्यरूपी आवहनीय अग्नि से 'पिता वै गार्हपत्योऽग्निः, माताग्निर्दक्षिणः स्मृतः । गुरुराहवनीयस्तु स्वाग्नित्रेता गरीयसी ॥' [मनु] (नः) = हमारे (ब्रह्म) = ज्ञान को (यज्ञं च) = और यज्ञ को (वर्धय) = बढ़ाइये । उत्तम माता, पिता व आचार्य को प्राप्त करके हमारा ज्ञान बढ़े तथा हमारी प्रवृत्ति यज्ञात्मक कर्मों के करने की हो। [२] (त्वम्) = आप (नः) = हमारे लिये देवतातये दिव्यगुणों के विस्तार के लिये तथा (दानाय) = लोकहित के कार्यों में देने के लिये (रायः) = धनों को (चोदय) = प्रेरित करिये। हमें धन प्राप्त हों। इन धनों से यज्ञादि उत्तम कर्मों को करने में समर्थ होते हुए तथा ज्ञान के साधनों को जुटाते हुए हम अपने में 'यज्ञ व ब्रह्म' का विस्तार कर सकें और इस प्रकार देव बन सकें । तथा साथ ही हम सदा इन धनों का विनियोग लोकहित के कार्यों में दान देने में करनेवाले हों ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु कृपा से उत्तम माता, पिता व आचार्य को प्राप्त करके हमारे में 'ज्ञान व यज्ञ'का वर्धन हो। हमें प्रभु धन प्राप्त करायें। इन धनों का हम दान में विनियोग करें। I इस सूक्त में धन की प्रार्थना है, उस धन की जो कि हमारे ज्ञान व यज्ञों का वर्धन करे, दान में विनियुक्त हो । निर्धनता के कारण यह व्यक्ति तपस्वी नहीं दिख रहा। धनी होते हुए धन का भोग-विलास में व्यय न करने के कारण यह 'तापस' है। यह धन का मित्र न बनकर प्रभु का मित्र बनता है । इसलिए यह 'जरिता' प्रभु का स्तोता बनता है। यह 'द्रोण' [द्रु अभिगतौ] क्रियाशीलता से वासनाओं पर आक्रमण करनेवाला बनता है । 'सारिसृक्व' गति के द्वारा [सृ] वासनाओं को छोड़नेवाला होता है [सृज्] । 'तिष्ठति इति स्तम्बः ' यह प्रभु का स्थिर मित्र बनने का प्रयत्न करने के कारण 'स्तम्बमित्र' कहलाता है। वासनाओं को शीर्ण करने के कारण 'शार्ङ्ग' कहलाता है, इस वासनाओं को शीर्ण करके यह ' शृंग' अर्थात् शिखर पर पहुँचता है। यह प्रभु की आराधना करता हुआ कहता है-

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    विषय

    राजा को प्रेरणा कि वह अन्य शासकों से दानी, उदार होने की प्रेरणा करे।

    भावार्थ

    हे (अग्ने) ज्ञानवन्, अग्रणी पुरुष ! प्रभो ! तू (अग्निभिः) अग्नियों के समान ज्ञान प्रकाश के करने वाले विद्वानों से (नः ब्रह्मयज्ञं वर्धय) हमारे वेद ज्ञान और यज्ञ, परस्पर सत्संग, और दानशीलता का बढ़ा। (त्वं) तू (नः) हमें (देव-तातये) विद्वानों के हितार्थ (रायः दानाय) नाना धन देने के लिये (चोदय) प्रेरित किया कर। इत्येकोनत्रिंशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिग्निस्तापसः। विश्वेदेवा देवताः॥ छन्द:- १, २ निचृद्नुष्टुप्। ३, ६ विराडनुष्टुप्। ४, ५ अनुष्टुप्॥ षडृचं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (अग्ने त्वम्) हे अग्रणायक परमात्मन् ! त्वं (अग्निभिः) विद्वद्भिः (नः-ब्रह्म यज्ञं च वर्धय) अस्माकं वेदज्ञानं श्रेष्ठकर्म च वर्धय (त्वं देवतातये) त्वं देवानां विदुषां सत्काराय “देवतातये-देवानां विदुषामेव सत्काराय” [ऋ० १।१३७।९ दयानन्दः] (नः-रायः-दानाय चोदय) धनस्य दानायास्मान् प्रेरय ॥६॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Agni, leading light of the world, by the gifts of enlightenment increase and develop our knowledge and corporate action, and inspire and enlighten us for the service of the divinities to win their gifts of wealth, honour and excellence.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्मा विद्वानांद्वारे ब्रह्मयज्ञ व श्रेष्ठ कर्माची वृद्धी करतो. विद्वानांना देण्यासाठी धनही वाढवितो. ॥६॥

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