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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 142 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 142/ मन्त्र 6
    ऋषिः - शार्ङ्गाः देवता - अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    उत्ते॒ शुष्मा॑ जिहता॒मुत्ते॑ अ॒र्चिरुत्ते॑ अग्ने शशमा॒नस्य॒ वाजा॑: । उच्छ्व॑ञ्चस्व॒ नि न॑म॒ वर्ध॑मान॒ आ त्वा॒द्य विश्वे॒ वस॑वः सदन्तु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उत् । ते॒ । शुष्माः॑ । जि॒ह॒ता॒म् । उत् । ते॒ । अ॒ग्ने॒ । श॒श॒मा॒नस्य॑ । वाजाः॑ । उत् । श्व॒ञ्च॒स्व॒ । नि । न॑मः । वर्ध॑मानः । आ । त्वा॒ । अ॒द्य । विश्वे॑ । वस॑वः । स॒द॒न्तु॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उत्ते शुष्मा जिहतामुत्ते अर्चिरुत्ते अग्ने शशमानस्य वाजा: । उच्छ्वञ्चस्व नि नम वर्धमान आ त्वाद्य विश्वे वसवः सदन्तु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत् । ते । शुष्माः । जिहताम् । उत् । ते । अग्ने । शशमानस्य । वाजाः । उत् । श्वञ्चस्व । नि । नमः । वर्धमानः । आ । त्वा । अद्य । विश्वे । वसवः । सदन्तु ॥ १०.१४२.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 142; मन्त्र » 6
    अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 30; मन्त्र » 6
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (अग्ने) हे ज्ञानप्रकाशस्वरूप परमात्मन् ! (शशमानस्य तव) प्रशंसमान-स्तुति में लाए जाते हुए तेरे (शुष्माः) स्तुति करनेवाले में पाप अज्ञान से शोषक गुण (उत्-जिहताम्) उद्भूत हों, उसे (ते) तेरा (अर्चिः) ज्ञानप्रकाश उद्भूत हो उठे (वाजाः) अमृतभोग उद्भूत हो-उठे (वर्धमानः)  स्तुतिकर्ता के अन्दर साक्षात् होता हुआ (उत् श्वञ्चस्व) उसे उन्नत कर (नि नम) सद्गुणों को परिणत करे (अद्य) इस समय (त्वा) तुझे (विश्वे वसवः) सब वासशील स्तुति करनेवाले जन (आ सदन्तु) भलीभाँति प्राप्त हों ॥६॥

    भावार्थ

    परमात्मा स्तुति में लाया जाता है, तो स्तुति करनेवाले के अन्दर पाप अज्ञान के शोषण करनेवाले बलगुण उद्भूत होते हैं उठते हैं, उसका प्रकाश भी उदय होता है, अमृत अन्नभोग प्राप्त होते हैं, परमात्मा स्वयं साक्षात् होता है, उसे उत्पन्न करता है, स्तुति करनेवालों को अपना आश्रय देता है ॥६॥

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    विषय

    उत्त्थान का स्वरूप

    पदार्थ

    [१] गत मन्त्र में उत्थान का उल्लेख था । उसी उत्थान को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि (ते शुष्मा:) = तेरे शत्रु- शोषक बल (उत् जिहताम्) = उद्गत हों । तू काम, क्रोध व लोभ को परास्त कर सके। (ते अर्चिः उत्) = तेरी ज्ञान ज्वाला उद्गत हो, अर्थात् तेरा ज्ञान निरन्तर बढ़ता चले। हे अग्ने प्रगतिशील जीव ! शशमानस्य स्फूर्ति से कार्यों को करनेवाले [शश प्लुतगतौ] अथवा स्तुति करनेवाले [शंसमानस्य नि०] (ते) = तेरे (वाजाः) = बल (उत्) = उत्कृष्ट हों । इस प्रकार शरीरस्थ वाज [बल] तुझे नीरोग बनाएँ । ज्ञान तेरे मस्तिष्क को उज्ज्वल करे और मानस बल 'काम-क्रोध-लोभ' पर विजय को पानेवाला हो । 'शुष्म, अर्चि व वाज' को प्राप्त करके तू (उत् श्वञ्चस्व) = ऊर्ध्व गतिवाला हो, उन्नतिपथ पर आरूढ़ होनेवाला हो । परन्तु (वर्धमानः) = सब दृष्टिकोणों से बढ़ता हुआ तू (नि नम) = नम्र बन । जितना जितना उन्नत, उतना उतना नम्र । नम्रता ही उन्नति का निशान है। इस प्रकार उन्नत हुए-हुए (त्वा) = तुझे (विश्वे वसवः) = सब वसु (आसदन्तु) = प्राप्त हों । निवास को उत्तम बनानेवाले तत्त्व ही 'वसु' हैं। ये सब वसु तेरे में स्थित हों। इन वसुओं को प्राप्त करके तेरा जीवन सुन्दरतम बन जाये ।

    भावार्थ

    भावार्थ - हमें शत्रु-शोषक शक्ति [शुष्म], ज्ञानदीप्ति [अर्चि] तथा बल [वाज] प्राप्त हो । उन्नत होकर हम नम्र बने रहें । सब वसुओं को प्राप्त करके सुन्दर जीवनवाले हों।

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    विषय

    सेनापति के समान आत्मा का वर्णन।

    भावार्थ

    हे (अग्ने) अग्निवत् तेजस्विन् ! विद्वन् ! (ते शुष्माः) तेरे बल, तेज अग्नि की ज्वालाओं के समान (उत् जिहताम्) ऊपर को उठें। (ते अचिः उत्) तेरी दीप्ति आदर और मान भी उन्नत हों। हे (अग्ने) तेजस्विन् ! (शशमानस्य ते) उत् क्रमण करते हुए, वा आदर और स्तुति को प्राप्त होते हुए तेरे (वाजाः उत्) बल, वेग, ज्ञान और ऐश्वर्य भी उन्नत हों। तू (वर्धमानः उत् श्वञ्चस्व) वृद्धि को प्राप्त होता हुआ ऊपर को उठ, और (नि नम) खूब विनयशील होकर नीचे झुक (त्वा) तुझे (अद्य) आज (विश्वे वसवः) समस्त वसुगण, गुरु को शिष्य, गृहस्थ को अतिथि आदि और राजा को प्रजागण सूर्य या अग्नि को किरणों के तुल्य (आ सदन्तु) प्राप्त हों।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः शार्ङ्गाः। १, २ जरिता। ३, ४ द्रोणः। ५, ६ सारिसृक्वः। ७,८ स्तम्बमित्रः अग्निर्देवता॥ छन्द:- १, २ निचृज्जगती। ३, ४, ६ त्रिष्टुप्। ५ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। ७ निचृदनुष्टुप्। ८ अनुष्टुप्॥ अष्टर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (अग्ने) हे ज्ञानप्रकाशस्वरूप परमात्मन् ! (शशमानस्य तव) शंसमानस्य प्रशंसमानस्य स्तूयमानस्य “शशमानः शंसमानः” [निरु० ६।८] तव (शुष्माः-उत्-जिहताम्) स्तोतरि पापाज्ञानशोषका गुणा उद्गच्छन्तु (ते) तव (अर्चिः) ज्ञानप्रकाश उद्गच्छतु (वाजाः) अमृतान्नभोगाः उद्गच्छन्तु “अमृतोऽन्नं वै वाजः” [जै० २।१९३] (वर्धमानः) स्तोतरि साक्षाद्भवन् (उत् श्वञ्चस्व) तमुन्नय “श्वच गतौ” [भ्वादि०] ‘अन्तर्गतो णिजर्थः’ (नि नम) निनामय सद्गुणेषु परिणय (अद्य) अस्मिन् काले (त्वा) त्वां (विश्वे वसवः) सर्वे वासशीलाः स्तोतारः (आ सदन्तु) आसीदन्तु ‘सद्धातोः’ सीदादेशाभावश्छान्दसः ॥६॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Agni, lord of light, illuminative and enlightening power, may your bright flames rise higher, may the radiations of your light and grandeur and your victories over want and darkness rise high and elevate the body, mind and soul of the celebrant. Yourself rising and expanding, raise the high higher, condescend, save and raise the low, and may all the soothing, sheltering powers and personalities of the world sit by you on the vedi and rehabilitate the uprooted here today and now.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमेश्वराची जो स्तुती करतो त्याच्यात पाप, अज्ञान इत्यादींचा नाश करणारे बल उत्पन्न होते. त्याच्यामध्ये ज्ञानाच्या प्रकाशाचा उदय होतो. अमृत अन्नभोग प्राप्त होतो. परमेश्वर स्वत: साक्षात् होतो. त्याला उन्नत करतो. स्तुती करणाऱ्यांना आपला आश्रय देतो. ॥६॥

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