ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 143/ मन्त्र 4
चि॒ते तद्वां॑ सुराधसा रा॒तिः सु॑म॒तिर॑श्विना । आ यन्न॒: सद॑ने पृ॒थौ सम॑ने॒ पर्ष॑थो नरा ॥
स्वर सहित पद पाठचि॒ते । तत् । वा॒म् । सु॒ऽरा॒ध॒सा॒ । रा॒तिः । सु॒ऽम॒तिः । अ॒श्वि॒ना॒ । आ । यत् । नः॒ । सद॑ने । पृ॒थौ । सम॑ने । पर्ष॑थः । न॒रा॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
चिते तद्वां सुराधसा रातिः सुमतिरश्विना । आ यन्न: सदने पृथौ समने पर्षथो नरा ॥
स्वर रहित पद पाठचिते । तत् । वाम् । सुऽराधसा । रातिः । सुऽमतिः । अश्विना । आ । यत् । नः । सदने । पृथौ । समने । पर्षथः । नरा ॥ १०.१४३.४
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 143; मन्त्र » 4
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 1; मन्त्र » 4
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अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 1; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(सुराधसा-अश्विना) हे उत्तम ज्ञान धनवाले अध्यापक उपदेशक ! (वाम्) तुम दोनों के शिक्षित (चिते) चेतनावाले जीवात्मा मनुष्य के लिए (रातिः सुमतिः) ज्ञान देना और कल्याणमति प्रदान करना चलता रहे (नः पृथौ-सदने समने) हमारे विस्तृत ज्ञानसदन अन्तःकरण को (नरा पर्षथः) तुम नेताओं ! उसे पूर्ण करो भरो ॥४॥
भावार्थ
ज्ञानधन देनेवाले अध्यापक और उपदेशकों का मनुष्य के लिए ज्ञान देना सुमति प्रदान करना चालू रहना चाहिए, उससे ज्ञानसदन अन्तःकरण को भरना चाहिये ॥४॥
विषय
आ-पूरण
पदार्थ
[१] हे (अश्विना) = प्राणापानो! सुराधसा आप उत्तम सिद्धि के प्राप्त करानेवाले हो । इस जीवनयज्ञ की सफलता आप पर ही निर्भर करती है । (वाम्) = आपकी (तद्) = वह (राति:) = देन व (सुमति:) = उत्तम बुद्धि (चिते) = उत्कृष्ट ज्ञान के लिये होती है। प्राणायाम के द्वारा सब अशुद्धियों का क्षय होकर ज्ञान की दीप्ति होती है । [२] हे (नरा) = हमें जीवनपथ में आगे ले चलनेवाले प्राणापानो ! (यत्) = जो आप (न:) = हमें (सं अने) = उत्तम प्राणशक्तिवाले, (पृथौ) = शक्तियों के विस्तारवाले (सदने) = इस शरीर गृह में (आपर्षथः) = सब दृष्टिकोणों से [ आपूरयथः सा० ] पूरण करते हो । शरीर में शक्ति- मन में निर्मलता व बुद्धि में तीव्रता का आप संचार करते हो ।
भावार्थ
भावार्थ - प्राणसाधना से सुमति प्राप्त होती है और शरीर में सब दृष्टिकोणों से पूरण होता है ।
विषय
दोनों की जीव पर कृपा।
भावार्थ
हे (सु-राधसा अश्विना) उत्तम रीति से आराधना करने योग्य एवं उत्तम ऐश्वर्य के स्वामी, प्रधान और पुरुष (वाम्) आप दोनों का (चिते) चेतनावान् इस जीव के उपकार के लिये (तत् सु-मतिः रातिः) वह शुभ ज्ञानयुक्त दान है। (यत्) जिससे आप दोनों (नरा) विश्व के चालक होकर (पृथौ) बड़े भारी, (समने) ज्ञानयुक्त (सदने) देह वा लोक में (नः पर्षथः) हमें पालन वा पूर्ण करते हो, हमारी रक्षा करते हो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः अत्रिः सांख्यः॥ अश्विनौ देवते॥ छन्द:—१—५ अनुष्टुप्। ६ निचृदनुष्टुप्। षडृचं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(सुराधसा-अश्विना) सुधनवन्तौ-अध्यात्माध्यापकोपदेशकौ ! (वाम्) युवयोः (चिते) चेतयतीति चित् तस्मै जीवात्मने (रातिः सुमतिः) ज्ञानदानं तथा कल्याणी मतिः सम्मतिर्भवतु (नः पृथौ सदने समने) अस्माकं विस्तृतं ज्ञानसदनमन्तःकरणम्, द्वितीयायां सप्तमी व्यत्ययेन (नरा पर्षथः) हे नेतारौ-अध्यात्माध्यापकोपदेशकौ पूरयथः ॥४॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Ashvins, harbingers of wealth, competence and success, that wealth of noble thoughts and intelligence, that generous gift of yours, is for the enlightenment of humanity which, O leading lights, you bring in showers in this vast world of life, in this hall of yajna, in this struggle of our life for happiness and freedom.
मराठी (1)
भावार्थ
अध्यापक व उपदेशकाचे ज्ञानधन देणे, सुमती प्रदान करणे इत्यादी चालू राहिले पाहिजे. त्याद्वारे ज्ञानसदन अंत:करण व्यापून टाकले पाहिजे. ॥४॥
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