ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 148/ मन्त्र 5
ऋषिः - पृथुर्वैन्यः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - पादनिचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
श्रु॒धी हव॑मिन्द्र शूर॒ पृथ्या॑ उ॒त स्त॑वसे वे॒न्यस्या॒र्कैः । आ यस्ते॒ योनिं॑ घृ॒तव॑न्त॒मस्वा॑रू॒र्मिर्न निम्नैर्द्र॑वयन्त॒ वक्वा॑: ॥
स्वर सहित पद पाठश्रु॒धि । हव॑म् । इ॒न्द्र॒ । शू॒र॒ । पृथ्याः॑ । उ॒त । स्त॒व॒ते॒ । वे॒न्यस्य॑ । अ॒र्कैः । आ । यः । ते॒ । योनि॑म् । घृ॒तऽव॑न्तम् । अस्वाः॑ । ऊ॒र्मिः । न । नि॒म्नैः । द्र॒व॒य॒न्त॒ । वक्वाः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
श्रुधी हवमिन्द्र शूर पृथ्या उत स्तवसे वेन्यस्यार्कैः । आ यस्ते योनिं घृतवन्तमस्वारूर्मिर्न निम्नैर्द्रवयन्त वक्वा: ॥
स्वर रहित पद पाठश्रुधि । हवम् । इन्द्र । शूर । पृथ्याः । उत । स्तवते । वेन्यस्य । अर्कैः । आ । यः । ते । योनिम् । घृतऽवन्तम् । अस्वाः । ऊर्मिः । न । निम्नैः । द्रवयन्त । वक्वाः ॥ १०.१४८.५
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 148; मन्त्र » 5
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 6; मन्त्र » 5
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अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 6; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(शूर इन्द्र) हे पराक्रमी परमेश्वर ! (पृथ्याः) प्रथित-फैली हुई प्राणी प्रजा के (हवम्) आह्वान को (श्रुधि) सुनता है (वैन्यस्य) कामना करने के योग्य स्तोता के (अर्कैः) अर्चनीय मन्त्रों से (स्तवसे) तू स्तुत किया जाता है (यः-ते) जो तेरे (घृतवन्तम्) तेजस्वी (योनिम्) मिश्रण करने योग्य पद स्वरूप को (आ-अस्वाः) भलीभाँति स्तुति करता है, उसके भी वचन को सुन (वक्वाः) जो गुणों के वक्ता हैं, वे (निम्नैः) नम्र वचनों से (उर्मिः-न) जलप्रवाहों के समान (द्रवयन्त) तेरे प्रति दौड़ते हैं-द्रवित होते हैं, उनके वचनों को भी सुन ॥५॥
भावार्थ
परमात्मा समस्त फैली हुए हुई प्रजा के प्रार्थनावचनों को सुनता है और वेदमन्त्रों से जो उसकी स्तुति करता है, उसकी वह विशेषरूप से प्रार्थना स्वीकार करता है, उसके तेजस्वी स्वरूप को जो ध्याया करता है, उसकी भी प्रार्थना सुनता है। गुणों के वक्ता या गायक-जनों के नम्र स्तुतिवचनों द्वारा उसकी और जल की भाँति दौड़ते हैं, उनकी भी स्तुति को सुनता है ॥५॥
विषय
पृथी व वेन्य
पदार्थ
[१] हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! हे (शूर) = शत्रुओं को शीर्ण करनेवाले प्रभो! आप (पृथ्या:) = पृथी के अपनी शक्तियों का विस्तार करनेवाले के (हवंश्रुधि) = पुकार को सुनते हैं। (उत) = और (वेन्यस्य) = चिन्तनशील-क्रियामय जीवन वाले उपासक के [ वेन् = to go, to reflect, to worship] (अर्कैः) = स्तोत्रों से (स्तवसे) = आप स्तुति किये जाते हैं । प्रभु का सच्चा स्तोता 'पृथी' है और 'वेन्य' है । [२] (यः) = जो (ते) = आपके (घृतवन्तं योनिम्) = दीप्तिवाले निवास स्थान [परम पद] का (आ अस्वाः) = सर्वथा शंसन करता है, अर्थात् मोक्षलोक व ब्रह्मलोक के सौन्दर्य का ध्यान करता है, इस प्रकार के (वक्वा:) = ब्रह्मलोक के सौन्दर्य का कथन व चर्चण करनेवाले लोग आपकी ओर उसी प्रकार (द्रवयन्त) = गतिवाले होते हैं, (न) = जैसे कि (निम्नैः) = निम्न मार्गों से (ऊर्मिः) = जलसंघ गतिवाला होता है। जलसंघ की गति जिस प्रकार शान्त व नम्रता को लिये हुए होती है, इसी प्रकार यह स्तोता शान्ति से नम्रतापूर्वक आपकी ओर बढ़ता है ।
भावार्थ
भावार्थ–शक्तियों का विस्तार करते हुए, गतिशील बनकर हम प्रभु के उपासक हों । ब्रह्मलोक का स्मरण करते हुए, शान्त नम्रभाव से उसकी ओर बढ़ें। सम्पूर्ण सूक्त इस भाव को व्यक्त कर रहा है कि सोमरक्षण के द्वारा 'शक्तिशाली, शान्त व नम्र' बनकर प्रभु के हम उपासक हों, प्रभु की ओर गतिवाले हों, प्रभु को प्राप्त हों। यह प्रभु का पूजन करनेवाला 'अर्चन्' अपने शरीर में शक्ति [हिरण्य] की ऊर्ध्वगतिवाला [ स्तूप] बनता है । इसका नाम ' अर्चन् हैरण्यस्तूपः ' हो जाता है। अगले सूक्त में यह प्रभु को 'सविता' नाम से उपासित करता है-
विषय
प्रभु की उपासना।
भावार्थ
हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! हे दुष्टों को दण्ड देने हारे ! हे (शूर) शत्रुनाशन ! तू (पृथ्या हवम् श्रुधि) विस्तृत प्रजा की पुकार को सुन ! तु (वेन्यस्य अर्कैः स्तवसे) तेरी कामना करने वाले जन के वा श्रेष्ठ पुरुष के अर्चना योग्य वचनों, मन्त्रों से (स्तवसे) स्तुति किया जाता है। (यः) जो (ते) तेरे (घृतवन्तं) जलवत् शीतल एवं प्रकाशयुक्त तेजोमय (योनिम्) परम पद का (आ अस्वाः) सब ओर उपदेश करता, तेरी स्तुति करता वा अन्यों को उसका ज्ञान देता है, तू उसके भी वचनों को श्रवण कर (निम्नैः ऊर्मिः न) नीचे स्थलों से जलप्रवाह के समान (वक्वाः) उत्तम २ वक्ता जन भी (निम्नैः) विनययुक्त वचनों और व्यवहारों से (द्रवयन्त) तेरी ही ओर आ बहते हैं, अति शीघ्र तेरी ही ओर आ जाते हैं। इति षष्ठो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः- १—५ पृथुवैन्यः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्द:- १ विराट् त्रिष्टुप्। २ आर्ची भुरिक् त्रिष्टुप्। ३, ५ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्॥ पञ्चर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(शूर इन्द्र) हे पराक्रमिन् ! परमेश्वर ! (पृथ्याः-हवं श्रुधि) त्वं प्रथितायाः प्राणिप्रजायाः-आह्वानं शृणोषि ‘लडर्थे लोट् व्यत्ययेन’ (उत) अपि च (वेन्यस्य-अर्कैः स्तवसे) कमितुं योग्यस्य स्तोतुः “वेन्यस्य कमितुं योग्यस्य” [ऋ० २।२४।१० दयानन्दः] अर्चनैर्मन्त्रैः स्तूयसे ‘कर्मणि कर्तृ-प्रत्ययो व्यत्ययेन’ (यः-ते घृतवन्तं योनिम्-आ-अस्वाः) यस्तव तेजस्विनम् “तेजो घृतम्” [काठ० १०।१] मिश्रणयोनिं पदं स्वरूपं समन्तात् शब्दयति स्तौति “स्वृ शब्दे” तस्यापि शृणु तथा (वक्वाः-निम्नैः-ऊर्मिः न द्रवयन्त) ये वक्तारो गुणवक्तारः “वच धातोः” “अन्येभ्योऽपि दृश्यन्ते” [अष्टा० ३।२।७५] ‘इति वनिप् प्रत्ययः’ नम्रवचनैर्जलप्रवाहः-इव त्वामभिद्रवन्ति तेषां वचनानि खल्वपि शृणु ॥५॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra, leading light of the world, omnipotent lord, brave all-presence, listen to the invocation and prayer of humanity at large. Adored and exalted you are by the celebrative songs of the wise, who sit in your hall of prayer round the vedi lighted and sprinkled with ghrta and attend to you, while the singer celebrants run to you like streams rushing down to sea, by paths of surrender.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्मा प्रजेच्या संपूर्ण प्रार्थना वचनांना ऐकतो. वेदवाणीने जो त्याची स्तुती करतो त्याची तो विशेषरूपाने प्रार्थना स्वीकार करतो. जो त्याच्या तेजस्वी स्वरूपाचे ध्यान करतो त्याची प्रार्थनाही तो ऐकतो. जे गुणवान वक्ते व गायक आपल्या नम्र स्तुती वचनाद्वारे जलप्रवाहाप्रमाणे वेगाने परमेश्वराकडे जातात, त्यांची स्तुतीही तो ऐकतो.
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