ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 150/ मन्त्र 3
त्वामु॑ जा॒तवे॑दसं वि॒श्ववा॑रं गृणे धि॒या । अग्ने॑ दे॒वाँ आ व॑ह नः प्रि॒यव्र॑तान्मृळी॒काय॑ प्रि॒यव्र॑तान् ॥
स्वर सहित पद पाठत्वाम् । ऊँ॒ इति॑ । जा॒तऽवे॑दसम् । वि॒श्वऽवा॑रम् । गृ॒णे॒ । धि॒या । अग्ने॑ । दे॒वान् । आ । व॒ह॒ । नः॒ । प्रि॒यऽव्र॑तान् । मृ॒ळी॒काय॑ । प्रि॒यऽव्र॑तान् ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वामु जातवेदसं विश्ववारं गृणे धिया । अग्ने देवाँ आ वह नः प्रियव्रतान्मृळीकाय प्रियव्रतान् ॥
स्वर रहित पद पाठत्वाम् । ऊँ इति । जातऽवेदसम् । विश्वऽवारम् । गृणे । धिया । अग्ने । देवान् । आ । वह । नः । प्रियऽव्रतान् । मृळीकाय । प्रियऽव्रतान् ॥ १०.१५०.३
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 150; मन्त्र » 3
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 8; मन्त्र » 3
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अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 8; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(जातवेदसम्) उत्पन्न मात्र के जाननेवाले-उत्पन्न होते ही जानने योग्य (विश्ववारम्) सबके वरनेवाले सब अन्धकार के निवारण करनेवाले (त्वाम्) तुझ परमात्मा को या अग्नि को (धिया गृणे) स्तुतिवाणी से स्तुति में लाता हूँ या कर्म द्वारा प्रशंसित करता हूँ (अग्ने) हे अग्रणायक ! (नः) हमारे (प्रियव्रतान्) प्रिय कर्म करनेवाले (देवान्) विद्वानों को या वायु आदि को (आ वह) प्राप्त करा (मृळीकाय) सुख के लिए (प्रियव्रतान्) प्रियकर्म करनेवाले देवों को प्राप्त करा ॥३॥
भावार्थ
परमात्मा उत्पन्नमात्र को जाननेवाला, सबका रक्षक, अच्छे कर्म करनेवालों को प्रेरित करनेवाला है, उसकी स्तुति करनी चाहिए एवं अग्नि उत्पन्न होते ही जानने योग्य अन्धकार को मिटानेवाला, अच्छे कर्म करनेवालों का समागम करानेवाला हमारे सुख के लिए उपयोग में लेना चाहिए ॥३॥
विषय
ज्ञानपूर्वक कर्मों द्वारा प्रभु-स्तवन
पदार्थ
[१] हे (अग्ने) = परमात्मन् ! (जातवेदसम्) = सर्वज्ञ (त्वां उ) = आपको ही (धिया) = ज्ञानपूर्वक कर्मों के द्वारा (गृणे) = स्तुत करता हूँ। जो आप (विश्ववारम्) = सब से वरणीय हैं, उन आपको मैं भी ज्ञानपूर्वक कर्म करता हुआ वरता हूँ। [२] हे परमात्मन् ! इन ज्ञानपूर्वक कर्मों से वृत्त हुए हुए आप (नः) = हमारे लिये (देवान्) = उन देवों को (आवह) = प्राप्त कराइये, जो कि (प्रियव्रतान्) = प्रिय व्रतोंवाले हैं। जिन देवों का जीवन व्रतमय है, जिन्हें व्रत रुचिकर हैं । इन (प्रियव्रतान्) = प्रिय व्रत देवों को प्राप्त कराइये। जिससे (मृडीकाय) = हमारा जीवन सुखी हो । व्रतप्रिय देवों के सम्पर्क में हम भी व्रतों की रुचिवाले होंगे और इस प्रकार व्रती जीवन की पवित्रता में पवित्र आनन्द का अनुभव कर पायेंगे।
भावार्थ
भावार्थ- हम ज्ञानपूर्वक कर्मों के द्वारा प्रभु का स्तवन करते हैं । प्रभु हमारा सम्पर्क प्रियव्रत देवों से करते हैं। यह सम्पर्क हमारे लिये सुखद होता है ।
विषय
देवों का पुरोहितवत् साक्षी प्रभु।
भावार्थ
हे (अग्ने) प्रकाशस्वरूप ! (त्वाम् उ) तुझे ही मैं (विश्व-वारं जातवेदसं) सबसे वरण करने योग्य सब ज्ञानों का उत्पादक और सब उत्पन्न पदार्थों का जानने वाला, समस्त ऐश्वर्यों का स्वामी जान कर (धिया गृणे) मन, वाणी और कर्म से तेरी उपासना करता हूं। तू (नः) हमें (प्रिय-व्रतान् देवान् आ वह) व्रतों, सत्कर्मों को प्रेम करने वाले विद्वान् जन प्राप्त करा और (मृडीकाय) हमारे सुख के लिये (प्रिय-व्रतान् आ वह) व्रतों, आचरणों के प्रेमी जनों को प्राप्त करा।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिमृळीको वासिष्ठः। अग्निर्देवता॥ छन्दः- १, २ बृहती। ३ निचृद् बृहती। ४ उपरिष्टाज्ज्योतिर्नाम जगती वा। ५ उपरिष्टाज्ज्योतिः॥ पञ्चर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(जातवेदसं विश्ववारं त्वां धिया गृणे) जातमात्रस्य वेदितारं सर्वस्य वरयितारं त्वां परमात्मानं यद्वा जातमेव वेद्यमानं सर्वस्यान्धकारस्य निवारयितारं त्वामग्निं स्तुतिवाचा स्तौमि यद्वा कर्मणा प्रशंसामि-वर्णयामि (अग्ने) हे अग्रणायक ! (नः प्रियव्रतान् देवान्-आ वह) अस्मभ्यं प्रियकर्मणे विदुषो यद्वा वायुप्रभृतीन् प्रापय (मृळीकाय प्रियव्रतान्) सुखाय प्रियकर्मणः-देवान् प्रापय ॥३॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Agni, with sincerity of thought, word and action, I adore you, eternal knower of all that is born, universal lover and saviour of all by their own choice. O light and fire of universal life, bring hither the nobilities of humanity to join us, bring hither the divinities of nature to bless us, they are all lovers of the laws and discipline of life. Pray bring hither the lovers of law and discipline of life for peace, progress and all round well being of humanity.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्मा उत्पन्न होणाऱ्या सर्वांना जाणणारा, सर्वांचा रक्षक, चांगले कर्म करणाऱ्यांना प्रेरित करणारा आहे. त्याची स्तुती केली पाहिजे व अग्नी जाणण्यायोग्य, अंधार मिटविणारा, चांगले कर्म करणाऱ्यांचा समागम करविणारा असून, सुखासाठी त्याचा उपयोग करून घेतला पाहिजे. ॥३॥
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