ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 159/ मन्त्र 3
ऋषिः - शची पौलोमी
देवता - शची पौलोमी
छन्दः - निचृदनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
मम॑ पु॒त्राः श॑त्रु॒हणोऽथो॑ मे दुहि॒ता वि॒राट् । उ॒ताहम॑स्मि संज॒या पत्यौ॑ मे॒ श्लोक॑ उत्त॒मः ॥
स्वर सहित पद पाठमम॑ । पु॒त्राः । श॒त्रु॒ऽहनः॑ । अथो॒ इति॑ । मे॒ । दु॒हि॒ता । वि॒राट् । उ॒त । अ॒हम् । अ॒स्मि॒ । स॒म्ऽज॒या । पत्यौ॑ । मे॒ । श्लोकः॑ उ॒त्ऽत॒मः ॥
स्वर रहित मन्त्र
मम पुत्राः शत्रुहणोऽथो मे दुहिता विराट् । उताहमस्मि संजया पत्यौ मे श्लोक उत्तमः ॥
स्वर रहित पद पाठमम । पुत्राः । शत्रुऽहनः । अथो इति । मे । दुहिता । विराट् । उत । अहम् । अस्मि । सम्ऽजया । पत्यौ । मे । श्लोकः उत्ऽतमः ॥ १०.१५९.३
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 159; मन्त्र » 3
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 17; मन्त्र » 3
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अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 17; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(मम पुत्राः) मेरे पुत्र (शत्रुहणः) शत्रुनाशक हैं (अथ उ) और (मे दुहिता विराट्) मेरी कन्या विशेषरूप से राजमान प्रकाशमान है, जिस घर में होगी, वहाँ अपने प्रभाव को गिरानेवाली ज्योति है (उत) और (अहं सञ्जया-अस्मि) मैं घर के भार को संभालनेवाली थूणी के समान हूँ (मे पत्यौ-उत्तमः-श्लोकः) मेरे पति के निमित्त लोगों का उत्तम प्रशंसाभाव है ॥३॥
भावार्थ
सद्गृहस्थ के लोग सभी प्रशंसा के पात्र होने चाहिए, पुत्र बाहरी भीतरी शत्रुओं के नाशक हों-कन्याएँ ज्योति के समान घर में कुरूढ़ि और अज्ञान को हटानेवाली हों, पत्नी धर्म की थूणी और पति यश और प्रशंसा के भागी हों ॥३॥
विषय
वीर पुत्र
पदार्थ
[१] गत मन्त्र की आदर्श माता यह कह पाती है कि (मम पुत्राः) = मेरे पुत्र (शत्रुहण:) = शत्रुओं को मारनेवाले हैं, ये कभी शत्रुओं से अभिभूत नहीं होते । (अथ उ) = और निश्चय से (मे दुहिता) = मेरी पुत्री (विराट्) = विशिष्टरूप से तेजस्विनी होती है । [२] (उत) = और (अहम्) = मैं (सञ्जया) = सम्यक् शत्रुओं को जीतनेवाली होती हूँ । (मे पत्यौ) = मेरे पति में (उत्तमः श्लोकः) = उत्कृष्ट यश होता है। मेरे पति भी वीरता के कारण यशस्वी होते हैं। माता-पिता की वीरता के होने पर ही सन्तानों में भी वीरता आती है। माता-पिता का जीवन यशस्वी न हो तो सन्तानों का जीवन कभी यशस्वी नहीं हो सकता ।
भावार्थ
भावार्थ- वीर माता-पिता ही वीर व यशस्वी सन्तानों को जन्म देते हैं ।
विषय
माता के सन्मानों के प्रति उत्तम भाव
भावार्थ
(मम पुत्राः) मेरे बहुतों की रक्षा करने वाले पुत्र (शत्रुहनः) शत्रुओं का नाश करने वाले हों। (अथो) और (मे दुहिता) मेरी कन्या दूर देश में विवाहित होकर (विराट्) विविध गुणों से चमकने वाली हो। (उत) और (अहम् सं-जया अस्मि) मैं मिलकर उत्तम जय प्राप्त करने वाली होऊं। (मे उत्तमः श्लोकः पत्यौ) मेरा उत्तम स्तुति योग्य वचन और यश पति के हृदय में या उसके सम्बन्ध में या उसके अधीन हो। अथवा (मे पत्यौ उत्तमः श्लोकः) मेरी उत्तम प्रसिद्धि पति के आश्रय ही हो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः शची पौलोमी॥ देवता—शची पौलोमी॥ छन्दः–१–३, ५ निचृदनुष्टुप्। ४ पादनिचृदनुष्टुप्। ६ अनुष्टुप्॥ षडृचं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(मम पुत्राः शत्रुहणः) मम पुत्राः-बाह्याभ्यन्तरशत्रुनाशकाः सन्ति (अथ-उ) अथ चैव (मे दुहिता विराट्) मम कन्या विराट् विशेषेण राजमाना-यस्मिन् गृहे भविष्यति तत्र स्वप्रभावं पातयित्री ज्योतिरस्ति “विराजा ज्योतिषा सह धर्मो बिभर्ति” [तै० आ० ४।२१।१] (उत) अपि च (अहं सञ्जया-अस्मि) अहं गृहस्थं सम्यग् जेतुं योग्या स्तम्भिनी “पशूनामवरुध्यै सञ्जयं क्रियते” [ता० ३।६।७] (मे पत्यौ-उत्तमः श्लोकः) मम पतिनिमित्तं जनानामुत्तमः प्रशंसाभावः इति सद्गृहस्थवर्णनम् ॥३॥
इंग्लिश (1)
Meaning
My sons are destroyers of enmity. My daughter is refulgent. I am the victor all round, so my song of adoration rises to my master who is the light and life of the world.
मराठी (1)
भावार्थ
सर्व सदगृहस्थ प्रशंसापात्र असले पाहिजेत. पुत्राने आतल्या किंवा बाहेरच्या शत्रूंचा नाश करावा. कन्या ज्योतीप्रमाणे घरातून वाईट रूढी व अज्ञान हटविणाऱ्या असाव्यात, पत्नी धर्माचा स्तंभ व पती यश व प्रशंसेचा भागीदार असावा. ॥३॥
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