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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 166 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 166/ मन्त्र 3
    ऋषिः - ऋषभो वैराजः शाक्वरो वा देवता - सपत्नघ्नम् छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    अत्रै॒व वोऽपि॑ नह्याम्यु॒भे आर्त्नी॑ इव॒ ज्यया॑ । वाच॑स्पते॒ नि षे॑धे॒मान्यथा॒ मदध॑रं॒ वदा॑न् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अत्र॑ । ए॒व । वः॒ । अपि॑ । न॒ह्या॒मि॒ । उ॒भे इति॑ । आर्त्नी॑ इ॒वेत्यार्त्नी॑ऽइव । ज्यया॑ । वाचः॑ । प॒ते॒ । नि । से॒ध॒ । इ॒मान् । यथा॑ । मत् । अध॑रम् । वदा॑न् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अत्रैव वोऽपि नह्याम्युभे आर्त्नी इव ज्यया । वाचस्पते नि षेधेमान्यथा मदधरं वदान् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अत्र । एव । वः । अपि । नह्यामि । उभे इति । आर्त्नी इवेत्यार्त्नीऽइव । ज्यया । वाचः । पते । नि । सेध । इमान् । यथा । मत् । अधरम् । वदान् ॥ १०.१६६.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 166; मन्त्र » 3
    अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 24; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (वः) हे शत्रुओं  ! तुम्हें (अत्र-एव) बन्धनगृह में (अपि नह्यामि) हस्त पाद बन्धनों से बाँधता हूँ (उभे-आर्त्नी-इव ज्यया) दोनों धनुष्कोटियों को जैसे डोरी से बाँधते हैं (वाचस्पते) वे वेदवाणी के स्वामी-परमात्मन् ! (इमान्) इन शत्रुओं को (निषेध) रोक (यथा) जैसे (मत्-अधरम्) मेरे से नीचे (वदान्) मेरे अनुकूल बोलें ॥३॥

    भावार्थ

    शत्रु जब पकड़ लिये जावें, तो उन्हें बन्दीघर में हाथ पैरों से बाँधकर रखा जावे और फिर उन्हें अपने अनुकूल बनाया जावे ॥३॥

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    विषय

    सपत्न-बन्धन

    पदार्थ

    [१] (इव) = जैसे (उभे आर्ली) = धनुष की दोनों कोटियों को (ज्यया) = ज्या [डोरी] से बाँध देते हैं, इसी प्रकार से काम-क्रोध आदि शत्रुओं में (वः) = तुम्हें (अत्र एव) = यहाँ शरीर में ही (अपिनह्यामि) = बाँधनेवाला होता हूँ । काम-क्रोध को पूर्णरूप से वश में कर लें तो ये शत्रु न होकर मित्र हो जाते हैं। इसी को व्यापक शब्दों में इस प्रकार कहते हैं कि वशीभूत मन मित्र है, अवशीभूत मन ही शत्रु है । [२] वाचस्पते हे वाणी के पति ! (इमान् निषेध) = इन शत्रुओं को निषिद्ध कर । वस्तुतः इस जिह्वा को वशीभूत कर लेने से रसास्वाद से ऊपर उठकर मनुष्य नीरोग बनता है और व्यर्थ के शब्दों से ऊपर उठकर लड़ाई-झगड़ों से बचा रहता है। वाचस्पति मेरे शत्रुओं को इस प्रकार दूर करे कि (यथा) = जिससे (मद् अधरम्) = मेरे नीचे होकर ये वदान् बात करें, अर्थात् सदा मेरी अधीनता में रहें। इनकी बात मुख्य न हो, ये मेरी बात को ही कहें।

    भावार्थ

    भावार्थ - काम-क्रोध को हम पूर्ण रूप से वश करनेवाले हों ।

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    विषय

    शस्त्र बल और मन्त्र-बल दोनों से शत्रु को अधीन करने का उपदेश।

    भावार्थ

    (ज्यया उभे आर्त्नी इव) डोरी से जिस प्रकार दोनों धनुष को कोटियों को बांधा जाता है उसी प्रकार (ज्यया) नाश वा जयकारिणी शक्ति या वाणी से हे शत्रुओ ! (वः आर्त्नी अपि नह्यामि) आप लोगों की दोनों कोटियों को बांधता हूं। हे (वाचः पते) वाणी के पालक ! (इमान् नि सेध) इनको ऐसा रोक (यथा) जिससे ये सब (मत् अधरम् वदान्) मेरे से नीचे होकर बोलें, मेरे अधीन हों।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिर्ऋषभो वैराजः शाकरो वा॥ देवता—सपत्नघ्नम्॥ छन्द:– १, २ अनुष्टुप्। ३, ४ निचृदनुष्टुप्। ५ महापक्तिः। पञ्चर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (वः) हे सपत्नाः ! युष्मान् (अत्र-एव) अस्मिन् कोष्ठे हि (अपि नह्यामि) अपि बध्नामि हस्तपादबन्धनाभ्याम् (उभे आर्त्नी-इव ज्यया) यथा चापस्य कोटी कोणौ प्रत्यञ्चया बध्येते (वाचस्पते) हे वाचस्पते परमात्मन् ! (इमान् निषेध) इमान् सपत्नान्-अवरोधय (यथा मत्-अधरं वदान्) यथा मत्तौ नीचैर्ममानुकूलं वचनं वदेयुः “लेट्-प्रयोगः” ॥३॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Here itself, both of you, rival parties, I bind and hold you together in balance like the bow string holding both ends of the bow in tension. O Vachaspati, speaker and master of the Word of order and law of judgement, control these so that they speak under my discipline and control.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    शत्रूला जेव्हा पकडले जाते तेव्हा त्यांना कैदेत हात-पाय बांधून ठेवले जावे व पुन्हा त्यांना आपल्या अनुकूल बनवावे. ॥३॥

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