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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 166 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 166/ मन्त्र 5
    ऋषिः - ऋषभो वैराजः शाक्वरो वा देवता - सपत्नघ्नम् छन्दः - महापङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    यो॒ग॒क्षे॒मं व॑ आ॒दाया॒हं भू॑यासमुत्त॒म आ वो॑ मू॒र्धान॑मक्रमीम् । अ॒ध॒स्प॒दान्म॒ उद्व॑दत म॒ण्डूका॑ इवोद॒कान्म॒ण्डूका॑ उद॒कादि॑व ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यो॒ग॒ऽक्षे॒मम् । वः॒ । आ॒ऽदाय॑ । अ॒हम् । भू॒या॒स॒म् । उ॒त्ऽत॒मः । आ । वः॒ । मू॒र्धान॑म् । अ॒क्र॒मी॒म् । अ॒धः॒ऽप॒दात् । मे॒ । उत् । व॒द॒त॒ । म॒ण्डूकाः॑ऽइव । उ॒द॒कात् । म॒ण्डूकाः॑ । उ॒द॒कात्ऽइ॑व ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    योगक्षेमं व आदायाहं भूयासमुत्तम आ वो मूर्धानमक्रमीम् । अधस्पदान्म उद्वदत मण्डूका इवोदकान्मण्डूका उदकादिव ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    योगऽक्षेमम् । वः । आऽदाय । अहम् । भूयासम् । उत्ऽतमः । आ । वः । मूर्धानम् । अक्रमीम् । अधःऽपदात् । मे । उत् । वदत । मण्डूकाःऽइव । उदकात् । मण्डूकाः । उदकात्ऽइव ॥ १०.१६६.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 166; मन्त्र » 5
    अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 24; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (वः) हे सपत्नों-मेरे राज्य अधिकार के विरोधी जनों ! तुम्हारा (योगक्षेमम्) योग अर्थात् राज्य से मासिक वा वार्षिक लाभ क्षेमरक्षण पूर्व से परंपरा से रक्षित है भूमि या खेत का धन ये दोनों (अहम्-आदाय) मैं राष्ट्रीयकरण की नीति से स्वायत्त कर-जब्त करके (उत्तमः-भूयासम्) उग्रतम तुम्हारे ऊपर हो जाऊँ (वः-मूर्धानम्-अक्रमीम्) तुम्हारे मूर्धास्थान पर-पद पर आक्रमण करूँ-छीन लूँ (मे-अधस्पदात्) तुम लोग मेरे पादतल से-पैरों के नीचे से (मण्डूकाः-उदकात्-इव) मेंढकों के समान जलाशय से बोलो, प्रार्थना करो, मेरे गुण गाओ (मण्डूकाः-उदकात्-इव) मेंढक जल से अर्थात् जल में रक्षा मानते हुए ऊँचे बोलते हैं, उसी भाँति मेरे अधीनत्व को इच्छा से स्वीकार नहीं तो बल से ही मेरे पैरों के नीचे देश में तुम लोग ऊँचे बोलोगे-रोवोगे, मेंढक जैसे जल के बिना रोते हैं, वैसे मेरे आश्रय को छोड़ करके दण्ड भोगोगे ॥५॥

    भावार्थ

    राजद्रोही प्रजा के उद्दण्ड लोगों को राजा ठीक मार्ग का उपदेश दे, यदि वे ठीक मार्ग पर न आवें, तो उनकी मासिक या वार्षिक वृत्ति को बन्द करना तथा पूर्व से चली आई सम्पत्ति भूभाग और क्षेत्रभाग को छीनकर स्वाधीन कर लेना चाहिये और उन्हें दण्ड देकर अपने वश में करना चाहिये ॥५॥

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    विषय

    राष्ट्रपति के दो कर्त्तव्य

    पदार्थ

    [१] गत मन्त्र के अनुसार समिति का प्रधान बन जानेवाला वह व्यक्ति राष्ट्रपति बनकर कहता है कि (वः) = तुम सबके लिये (योगक्षेमम्) = योगक्षेम को, जीवन की आवश्यक चीजों को (आदाय) = लेकर (अहम्) = मैं (उत्तमः भूयासम्) = उत्तम बनूँ । राष्ट्र में सर्वोत्तम स्थिति में पहुँचनेवाले का मौलिक कर्त्तव्य तो यही है कि राष्ट्र ही सब प्रजाओं के योगक्षेम की व्यवस्था अवश्य करे, 'नास्यविषये क्षुधावसीदेत्'=इसके राष्ट्र में कोई भी भूखा न मरे। वस्तुतः इस प्रकार की व्यवस्था करनेवाला यह व्यक्ति ही कह सकता है कि मैं (वः) = आप सबके (मूर्धानम्) = मूर्धा पर (अक्रमीम्) = गति करनेवाला हुआ हूँ । आपका मूर्धन्य बना हूँ। सब से श्रेष्ठ बनकर मैं इस पद पर स्थित हुआ हूँ । [२] अन्य राज्याधिकारी तो इस राष्ट्रपति की अधीनता में ही शासन व्यवस्था में सहयोग देते हैं । यह राष्ट्रपति कहता है कि (मे) = मेरे (अधस्पदात्) = नीचे स्थित हुए हुए आप (उद्वदत) = राजाज्ञाओं व राजनियमों का उद्घोषण करो। इस प्रकार उद्घोषण करो (इव) = जैसे कि (मण्डूकाः उदकात्) = मेंढक पानी से शब्द को करते हैं, उसी प्रकार तुम राजाज्ञाओं की घोषणा करो। इन राजाज्ञाओं से सब प्रजाजनों को सुपरिचित करना यह निचले अधिकारियों का कर्त्तव्य होता है। [वर्तमान में यह कार्य बहुत कुछ समाचार-पत्रों से कर दिया जाता है ] ।

    भावार्थ

    भावार्थ - राजा को चाहिये कि राष्ट्र में सबके योगक्षेम की ठीक व्यवस्था करे, समय-समय पर राजाज्ञाओं की ठीक प्रकार से उद्घोषणा कराता रहे। सम्पूर्ण सूक्त इस बात का प्रतिपादन करता है राष्ट्रपति वही चुना जाये जो जितेन्द्रिय वे तेजस्वी होकर सर्वश्रेष्ठ बने । यह विश्वामित्र - सबके साथ स्नेह करनेवाला होता है और 'जमदग्नि' होने से [जमत् अग्नि] स्वस्थ व तेजस्वी बना रहता है, इसकी जाठराग्नि कभी मन्द नहीं होती। जितेन्द्रियता का यह स्वाभाविक परिणाम है । यही अगले सूक्त का ऋषि है। इसके लिये कहते हैं-

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    विषय

    राजा को शिरोमणि होने का उपदेश। जलों में मेंडक के तुल्य सर्वोपरि और स्वच्छन्द, निर्भय होने का उपदेश।

    भावार्थ

    (अहम्) मैं (वः) आप लोगों के (योगक्षेमं आदाय) अप्राप्त धन की प्राप्ति और प्राप्त धन की रक्षा अर्थात् भविष्य की आय और सञ्चित धन को प्राप्त करके (उत्तमः भूयासम्) सबसे उत्तम हो जाऊं। मैं (वः) आप लोगों के (मूर्धानाम् अक्रमीम्) शिरो भाग को प्राप्त होऊं, आप के बीच शिरोमणि होऊं। आप लोग (मे पदात् अधः) मेरे पद से नीचे रह कर (उदकात् मंडूका इव) जल से मेंडकों के समान (उत् वदत) ऊपर मुख करके बोलो, (उदकात् इव मण्डूका) और जल से निकल कर जल में रहने वाले वा निमग्न जन्तुओं के तुल्य ही जीवित रहो। इति चतुर्विंशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिर्ऋषभो वैराजः शाकरो वा॥ देवता—सपत्नघ्नम्॥ छन्द:– १, २ अनुष्टुप्। ३, ४ निचृदनुष्टुप्। ५ महापक्तिः। पञ्चर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (वः) हे सपत्नाः-मम राज्याधिकारस्य विरोधिनः ! युष्माकम् (योगक्षेमम्) योगो राज्याद् या प्राप्तिर्मासिकी वार्षिकी वा तां तथा क्षेमं रक्षणं पूर्वतः परम्परातो रक्षितमस्ति भौमं क्षेत्रादिकं धनं तदुभयम् (अहम्-आदाय) राष्ट्रीयकरणनीत्या स्वायत्तीकृत्याहम् (उत्तमः-भूयासम्) उग्रतमो युष्माकमुपरि भवेयमित्याशासे (वः-मूर्धानम्-अक्रमीम्) युष्माकं मूर्धानमाक्राम्येयम् (मे-अधस्पदात्) यूयं मम पादयोरधः “अधस्पदम्” अव्ययीभाव-समासः ‘सप्तम्यां विभक्तौ’ अधस्पदं स्थानं तस्मात्-पादोरधःप्रदेशात्-पादतलात् (मण्डूकाः-इव-उदकात्) मण्डूका इव जलाज्जलाशयात् खलूद्वदत प्रार्थयध्वम्-मम गुणगानं कुरुत (मण्डूकाः-उदकात्-इव) मण्डूका जलाज्जले रक्षां मन्यमानाः-उद्वदन्ति तद्वत्-अतो ममाधीनत्वमिच्छया स्वीकुरुत, नो चेत्, बलादेव ममपादयोरधोदेशे यूयमुद्वक्ष्यथ मण्डूका उदकाद् यथा-उदकाश्रयेण विना उद्वदन्ति-उद्रुदन्ति तथा ममाश्रयं विहायोद्रोदिष्यथ दण्डं भोक्ष्यध्वे ॥५॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Having taken over the power and responsibility of the defence, protection and security of public achievements and the progress and advancement of the nation further, and having become the highest and best of equals, I strive to lead you up to your highest and farthest possibility, and then under the law and discipline of the highest office of government, you would raise your voice of choice and freedom as free and vocal citizens in a state of transparent clarity, as a celebrant society in a joyous state of advancement upward.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    राजद्रोही प्रजेतील उद्दंड लोकांना राजाने ठीक मार्गाचा उपदेश करावा. जर ते योग्य मार्गावर न आल्यास त्यांचे मासिक किंवा वार्षिक वेतन बंद केले पाहिजे. पूर्वीपासून असलेली संपत्ती भूभाग व क्षेत्रभाग हिसकावून स्वाधीन केला पाहिजे व त्यांना दंड देऊन आपल्या वशमध्ये ठेवले पाहिजे. ॥५॥

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