ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 174/ मन्त्र 5
ऋषिः - अभीवर्तः
देवता - राज्ञःस्तुतिः
छन्दः - निचृदनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
अ॒स॒प॒त्नः स॑पत्न॒हाभिरा॑ष्ट्रो विषास॒हिः । यथा॒हमे॑षां भू॒तानां॑ वि॒राजा॑नि॒ जन॑स्य च ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒स॒प॒त्नः । स॒प॒त्न॒ऽहा । अ॒भिऽरा॑ष्ट्रः । वि॒ऽस॒स॒हिः । यथा॑ । अ॒हम् । ए॒षाम् । भू॒ताना॑म् । वि॒ऽराजा॑नि । जन॑स्य । च॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
असपत्नः सपत्नहाभिराष्ट्रो विषासहिः । यथाहमेषां भूतानां विराजानि जनस्य च ॥
स्वर रहित पद पाठअसपत्नः । सपत्नऽहा । अभिऽराष्ट्रः । विऽससहिः । यथा । अहम् । एषाम् । भूतानाम् । विऽराजानि । जनस्य । च ॥ १०.१७४.५
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 174; मन्त्र » 5
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 32; मन्त्र » 5
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अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 32; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(सपत्नहा) शत्रुनाशक (असपत्नः) शत्रुरहित (अभिराष्ट्रः) राष्ट्र को अधिकृत किये हुए राष्ट्रस्वामी (विषासहिः) विशेष करके शत्रुओं का अभिभव करनेवाला (एषां भूतानाम्) इन शत्रुभूत प्रणियों का (जनस्य च) और स्व जनगण का भी (विराजानि) राजा रूप से होता हूँ ॥५॥
भावार्थ
राजा को शत्रुनाशक या स्वयं शत्रुरहित राष्ट्र का संचालन करनेवाला, शत्रुओं का अभिभव करनेवाला तथा अपने राष्ट्र के जनगण में ऊँचे रूप में विराजवान होनेवाला प्रभावशाली होना चाहिये ॥५॥
विषय
उत्तम प्रबन्ध
पदार्थ
[१] राजा कहता है कि प्रजा इस प्रकार कर आदि के देने में अनुकूलता रखे कि (अहम्) = मैं (असपत्नः) = सपत्नों से रहित, सपत्नहाराष्ट्र के अन्य पति बनने के दावेदारों को नष्ट करनेवाला, (अभिराष्ट्रः) = प्राप्त राज्यवाला तथा (विषासहिः) = शत्रुओं को कुचलनेवाला होऊँ । [२] (यथा) = जिससे (अहम्) = मैं (एषां भूतानाम्) = इन सब प्राणियों के (विराजानि) = विशिष्टरूप से जीवन को व्यवस्थित करनेवाला बनूँ। (जनस्य च) = और राष्ट्र व्यवस्था के अंगभूत इन अपने लोगों के जीवन को भी नियमित व दीप्त करनेवाला बनूँ ।
भावार्थ
भावार्थ - राजा असपत्न हो, विषासहि हो । सब राष्ट्रवासियों व प्रबन्धकों के जीवनों को व्यवस्थित करनेवाला हो । सम्पूर्ण सूक्त का भाव यह है कि राजा राष्ट्र को अन्तः व बाह्य शत्रुओं से सुरक्षित करके सुव्यवस्थित करे। ऐसे ही राष्ट्र में सब प्रकार की उन्नतियों का सम्भव हो सकता है। ऐसे ही राष्ट्र में 'ऊर्ध्वग्रावा सर्व आर्बुदि' पुरुष बना करते हैं । 'ऊध्वश्चासौ ग्रावा च' गुणों की दृष्टि से उन्नत, शरीर की दृष्टि से वज्रतुल्य । 'सर्पः ' सदा क्रियाशील और इस क्रियाशीलता से उन्नति के शिखर पर पहुँचनेवाला 'आर्बुदि'। इनके लिये कहते हैं-
विषय
शत्रु पराजयकारी होने का लक्ष्य। भीतरी ६ शत्रुओं पर विजय का उपदेश। सूक्त की अध्यात्म योजना।
भावार्थ
और मैं (असपत्नः) शत्रुरहित, (सपत्न-हा) शत्रुओं का नाशक, (अभि-राष्ट्रः) राज्य का स्वामी, (वि-ससहिः) विशेष रूप से पराजय करने हारा होऊं और (अहम् एषां) मैं इन (भूतानां) प्राणियों और (जनस्य च) जन वर्ग के बीच में, उन पर (विराजानि) विशेष दीप्ति, तेज से चमकूं, विराट होकर रहूं। अध्यात्म में—(१) काम क्रोधादि अरिषड्-वर्ग पर विजय प्राप्त करने का साधन यम, नियमादि ‘अभीवर्त्त’ हैं, आत्मा उनसे आगे बढ़ता है। राष्ट्र वह ‘स्वराज्य’ पद जिसमें स्वप्रकाश आत्मा का लाभ होता है। (२) काम क्रोधादि भीतरी छः शत्रु हैं। (३) देव, सविता, प्रभु सोम गुरु है। (४) इन्द्र आत्मा। (५) भूतों, पांच भूतों का स्वामी, उन पर वश करने वाला और ‘जन’ जन्म लेने वाले देह में भी मैं विराजूं। इति द्वाविंशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिरभीवर्तः। देवता—राज्ञः स्तुतिः॥ छन्दः- १, ५ निचृदनुष्टुप्। २, ३ विराडनुष्टुप्। ४ पादनिचृदनुष्टुप॥ पञ्चर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(सपत्नहा) शत्रुहन्ता (असपत्नः) शत्रुरहितः (अभिराष्ट्रः) अभिगतं राष्ट्रं येन तथाभूतो राष्ट्रस्वामी (विषासहिः) विशेषेण शत्रूणां सोढाऽभिभविता-एषां भूतानाम्) एतेषां शत्रुभूतानाम् (जनस्य च) प्रजाजनगणस्य च (विराजानि) राजरूपेण भवानि ॥५॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Destroyer of enemies, free from enemy forces, I must still be a challenger and subduer of rivals, adversaries, oppositions and contradictions so that as ruler of the state I may control and rule over these citizens and a host of other forms of life.
मराठी (1)
भावार्थ
राजाने शत्रूनाशक किंवा स्वत: शत्रूराष्ट्ररहित राष्ट्राचे संचालन करून, शत्रूंचा पराजय करून आपल्या राष्ट्राच्या जनतेत उच्च रूपाने विराजित होऊन प्रभावी बनले पाहिजे. ॥९॥
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