ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 18/ मन्त्र 13
ऋषिः - सङ्कुसुको यामायनः
देवता - पितृमेधः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
उत्ते॑ स्तभ्नामि पृथि॒वीं त्वत्परी॒मं लो॒गं नि॒दध॒न्मो अ॒हं रि॑षम् । ए॒तां स्थूणां॑ पि॒तरो॑ धारयन्तु॒ तेऽत्रा॑ य॒मः साद॑ना ते मिनोतु ॥
स्वर सहित पद पाठउत् । ते॒ । स्त॒भ्ना॒मि॒ । पृ॒थि॒वीम् । त्वत् । परि॑ । इ॒मम् । लो॒गम् । नि॒ऽदध॑त् । मो इति॑ । अ॒हम् । रि॒ष॒म् । ए॒ताम् । स्थूणा॑म् । पि॒तरः॑ । धा॒र॒य॒न्तु॒ । ते । अत्र॑ । य॒मः । सद॑ना । ते॒ । मि॒नो॒तु॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
उत्ते स्तभ्नामि पृथिवीं त्वत्परीमं लोगं निदधन्मो अहं रिषम् । एतां स्थूणां पितरो धारयन्तु तेऽत्रा यमः सादना ते मिनोतु ॥
स्वर रहित पद पाठउत् । ते । स्तभ्नामि । पृथिवीम् । त्वत् । परि । इमम् । लोगम् । निऽदधत् । मो इति । अहम् । रिषम् । एताम् । स्थूणाम् । पितरः । धारयन्तु । ते । अत्र । यमः । सदना । ते । मिनोतु ॥ १०.१८.१३
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 18; मन्त्र » 13
अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 28; मन्त्र » 3
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अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 28; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(पृथिवीं ते-उत् स्तभ्नामि) हे जीव ! तेरे लिए मैं ईश्वर, पृथिवी को जलमिश्रित भूगोल से ऊपर खींचता हूँ (इमं त्वत् परिनिदधत्-म-उ-अहं रिषम्) वहाँ तेरे इस गर्भकोश को रखता हुआ मैं पीड़ा नहीं देता हूँ (एतां स्थूणां पितरः-धारयन्तु) इस ऊपर उठी हुई पृथिवी को सूर्यकिरणें धारण करें (तत्र यमः-ते सदना मिनोतु) सूर्य तेरे लिए सब आवश्यक कोशों को प्राप्त करावे ॥१३॥
भावार्थ
आरम्भ सृष्टि भूगोल के ऊँचें भाग पर होती है। वह भाग जलमिश्रित भूगोल से पर्वतभूमि के रूप में ऊपर खींचा जाता है। उस उठे हुए भूभाग को सूर्य की रश्मियाँ धारण करती हैं और सूर्य अपनी रश्मियों द्वारा जीवात्मा के गर्भादि को प्राप्त कराता है, अतएव उसका दूसरा नाम सविता है ॥१३॥
विषय
घर
पदार्थ
[१] प्रस्तुत मन्त्र में घर का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि (ते पृथिवीम्) = तेरी भूमि को (उत् स्तभ्नामि) = ऊपर थामता हूँ, अर्थात् तेरे पाये को [Pedestal] कुछ ऊँचा रखता हूँ । वस्तुतः घर का पाया नीचा होने पर घर में कुछ सील का अंश बना रहता है जो स्वास्थ्य के लिये उतना हितकर नहीं होता। [२] और (त्वत् परि) = तेरे चारों ओर (इमम्) = इस (लोगम्) = पार्थिव ढेर को मुंडेर को (निदधन्) = रखता हुआ (अहं) = मैं (मा उ रिषम्) = मत ही हिंसित होऊँ । घर के चारों ओर कुछ चारदिवारी सी हो जिससे कि अवाञ्छनीय पशु आदि का प्रवेश न होता रहे और आंगन ठीक से बना रहे। [३] (एतां स्थूणाम्) = घर के इस स्तम्भ को (ते पितरः) = तेरे पितर- मामा, चाचा, दादा आदि (धारयन्तु) = धारण करनेवाले हों। बच्चों की माता के इन बुजुर्ग बन्धुओं की यह नैतिक जिम्मेदारी हो जाती है कि वे बच्चों के पिता के चले जाने के बाद घर के बोझ को अपने कन्धों पर लें, घर का ध्यान करनेवाले बनें। [४] और सबसे महत्त्वपूर्ण बात तो यह है कि (अत्रा) = इस घर में अब (यमः) = वह सर्वनियन्ता प्रभु (ते सादना) = तेरे बैठने उठने के स्थानभूत कमरों को (मिनोतु) = [observer, perceiver] देखनेवाला हो । अर्थात् प्रभु की कृपादृष्टि इस घर पर सदा बनी रहे। अनाथों के सच्चे नाथ तो वे प्रभु ही हैं। प्रभु कृपा से सब बात ठीक हो जाती है ।
भावार्थ
भावार्थ - घर का पाया ऊँचा हो, नीरोगता के लिये यह आवश्यक है। चारदिवारी ठीक हो जिससे आंगन ठीक रहे। रिश्तेदार घर के बोझ को अपने कन्धों पर लें और सब से बड़ी बात यह कि घर पर प्रभु की कृपादृष्टि बनी रहे ।
विषय
उत्तराधिकारी को उपदेश।
भावार्थ
हे राजन् ! उत्तर अधिकारिन् ! (ते) तेरे अधीन इस (पृथिवीं) पृथिवी, भूमि को (उत् स्तभ्नामि) उत्तम रीति से प्रबन्धयुक्त, व्यवस्थित करता हूँ। (इमं लोगं) इस लोक, जनसमूह को (त्वत् परि निदधत्) तेरे आश्रय में संभलाता हुआ (अहं मो रिषम्) मैं दुःखी न होऊं, वा इस प्रजाजन का नाश न करूं। तू उत्तराधिकार प्राप्त कर, प्रजाजन का अच्छी प्रकार जिम्मेवारी से पालन कर। (ते) तेरी (एतां स्थूणां) इस स्थिर टेक, या व्यवस्था की प्रतिज्ञा को (पितरः) पालक शासक वर्ग (धारयन्तु) धारण करें। (अत्र) इस लोक में (यमः) नियन्ता प्रभु (ते सदना मिनोतु) तेरे गृहों को, या तेरे पदाधिकारों को (मिनोतु) व्यस्थित करे, मापे, उनकी जांच करे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सङ्कुसुको यामायन ऋषिः॥ देवताः–१–मृत्युः ५ धाता। ३ त्वष्टा। ७—१३ पितृमेधः प्रजापतिर्वा॥ छन्द:- १, ५, ७–९ निचृत् त्रिष्टुप्। २—४, ६, १२, १३ त्रिष्टुप्। १० भुरिक् त्रिष्टुप्। ११ निचृत् पंक्तिः। १४ निचृदनुष्टुप्। चतुर्दशर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(पृथिवीं ते-उत् स्तभ्नामि) हे जीव ! तुभ्यमहमीश्वरः पृथिवीं जलमिश्राद् भूगोलादुपर्याकर्षामि (त्वत्-इमं लोगं परिनिदधत्-म-उ-अहं रिषम्) तव ‘विभक्तिव्यत्ययः’ इमं लोगं लुङ्गं ग्रहणं गर्भकोशमित्यर्थः ‘लुजि हिंसाबलादाननिकेतनेषु” [चुरादिः] “इदितो नुम् धातोः” [अष्टा०७।१।५८] इति छन्दसि सर्वे विधयो विकल्प्यन्तेऽतो नुमभावः, अधिकरणार्थे घञ् “चजोः कु घिण्ण्यतोः” [अष्टा०७।३।५२] इति कुत्वम्, परिनिदधत्-समर्पयन् नैवाहं हिंसेयम् (एतां स्थूणां पितरः-धारयन्तु) एतां स्थूणामुपर्युत्थितां भूमिं सूर्यरश्मयो धारयन्तु-स्थिरीकुर्वन्तु-स्थिरी-कुर्वन्ति, (तत्र यमः-ते सदना मिनोतु) तत्र यमः-सूर्यस्तुभ्यं सदना-गर्भकोशान् मिनोतु-प्रापयतु ‘अन्तर्गतणिजर्थः’ “मिनोतिर्गतिकर्मा” [निघ०२।१४] ॥१३॥
इंग्लिश (1)
Meaning
O man, for you I sustain this earth up in space, for you I place this global atmosphere around, and this I would not hurt or dislodge. This well pillared, well sustained planet of clay the rays of the sun would sustain, and the sun would sustain and vitalise the homes of life.
मराठी (1)
भावार्थ
आरंभी सृष्टी भूगोलाच्या उंच भागावर असते. तो भाग जलमिश्रित भूगोलापासून पर्वतभूमीच्या रूपाने वर ओढला जातो. त्या वर आलेल्या भूभागाला सूर्याच्या रश्मी धारण करतात व सूर्य आपल्या रश्मींद्वारे जीवात्म्याच्या गर्भ इत्यादींना प्राप्त करवितो. त्यासाठी त्याचे दुसरे नाव सविता आहे. ॥१३॥
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