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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 18 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 18/ मन्त्र 4
    ऋषिः - सङ्कुसुको यामायनः देवता - मृत्यु छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    इ॒मं जी॒वेभ्य॑: परि॒धिं द॑धामि॒ मैषां॒ नु गा॒दप॑रो॒ अर्थ॑मे॒तम् । श॒तं जी॑वन्तु श॒रद॑: पुरू॒चीर॒न्तर्मृ॒त्युं द॑धतां॒ पर्व॑तेन ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒मम् । जी॒वेभ्यः॑ । प॒रि॒ऽधिम् । दा॒धा॒मि॒ । मा । ए॒षा॒म् । नु । गा॒त् । अप॑रः । अर्थ॑म् । ए॒तम् । श॒तम् । जी॒व॒न्तु॒ । श॒रदः॑ । पु॒रू॒चीः । अ॒न्तः । मृ॒त्युम् । द॒ध॒ता॒म् । पर्व॑तेन ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इमं जीवेभ्य: परिधिं दधामि मैषां नु गादपरो अर्थमेतम् । शतं जीवन्तु शरद: पुरूचीरन्तर्मृत्युं दधतां पर्वतेन ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इमम् । जीवेभ्यः । परिऽधिम् । दाधामि । मा । एषाम् । नु । गात् । अपरः । अर्थम् । एतम् । शतम् । जीवन्तु । शरदः । पुरूचीः । अन्तः । मृत्युम् । दधताम् । पर्वतेन ॥ १०.१८.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 18; मन्त्र » 4
    अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 26; मन्त्र » 4
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    हिन्दी (4)

    पदार्थ

    (जीवेभ्यः) जीनेवालों के लिए (इमं परिधिं दधामि) इस घेरे रूप प्रबन्ध को नियत करता हूँ, जो (एषाम्-अपरः एतम्-अर्थं मा नु गात्) इन अध्यात्ममार्गी मुमुक्षुओं का कोई अन्य इस अरमणीय, अनिष्ट मृत्युपथ को नहीं प्राप्त हो (पुरुचीः शतं शरदः-जीवन्तु) बहुत सुख प्राप्त करानेवाली सौ शरदियों तक वे जीवित रहें (पर्वतेन-अन्तर्मृत्युं दधताम्) पूर्ण करने के साधनवाले ब्रह्मचर्यरूप पर्वत के द्वारा मृत्यु को अन्तर्हित लुप्त करें-नष्ट करें-तिरस्कृत करें ॥३॥

    भावार्थ

    परमात्मा दीर्घ जीवन चाहनेवाले मुमुक्षु जनों के लिए नियत परिधि बनाता है। कोई भी मुमुक्षु उसमें रहकर शीघ्र मृत्यु का ग्रास नहीं बनता है, किन्तु सौ या बहुत वर्षों तक वे जीते हैं, ब्रह्मचर्यरूप पर्वत को मृत्यु लाँघ नहीं सकती है ॥४॥

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    विषय

    अकाल मृत्यु को पुरुषार्थ से दबा दो

    शब्दार्थ

    परमात्मा उपदेश देते हैं - मैं (जीवेभ्य:) मनुष्यों के लिए (इमम् परिधिम्) इस सौ वर्ष की आयु-मर्यादा को (दधामि) निश्चित करता हूँ (एषाम् ) इनमें (अपर:) कोई भी (एतं अर्थम्) इस अवधिको, इस जीवनरूप धन को (मा, गात्, नु) न तोड़े, उल्लंघन न करे। सभी मनुष्य (शतम् शरदः) सौ वर्ष (पुरुचीः) और उससे भी अधिक (जीवन्तु) जिएं और (अन्त: मृत्युम्) अकाल मृत्यु को (पर्वतेन) पुरुषार्थ से (दधताम्) दूर कर दे, दबा दे ।

    भावार्थ

    १. परमात्मा ने मनुष्य के लिए सौ वर्ष की जीवनमर्यादा निश्चित की है । २. किसी भी मनुष्य को इस मर्यादा का उल्लंघन नहीं करना चाहिए अर्थात् सौ वर्ष की अवधि से पूर्व नहीं मरना चाहिए । ३. प्रत्येक मनुष्य को सौ वर्ष तक तो जीना ही चाहिए । उसे अपना खान-पान, आहार-विहार और समस्त दिनचर्या इस प्रकार की बनानी चाहिए कि वह अदीन रहते हुए सौ वर्ष से भी अधिक जीवन धारण कर सके । ४. मनुष्य को पुरुषार्थी होना चाहिए । यदि अकाल मृत्यु बीच में ही आ जाए तो उसे अपने पुरुषार्थ से परास्त कर देना चाहिए । मनुष्य को सतत् कर्मशील होना चाहिए । जब मृत्यु भी द्वार पर आए तो यह देखकर लौट जाए कि अभी तो इसे अवकाश ही नहीं है ।

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    विषय

    शतायु जीवन

    पदार्थ

    [१] मैं परमेश्वर (जीवेभ्यः) = जीवित मनुष्यों के लिये (इमम्) = इस (परिधिम्) = सीमा को (दधामि) = धारण करता हूँ [व्यवस्थित करता हूँ] [२] (एषाम्) = इनमें से अपर कोई भी (एतम्- अर्थम्) = इस मृत्यु मार्ग से (नु) = निश्चय से (मा गात्) = मत जावे | सभी जीवित मनुष्य (शतम्) = सौ (शरदः) = वर्षों तक (पुरूची:) = सौ से भी अधिक वर्षों तक (जीवन्तु) = जीवें । बीच में उनकी उम्र ही खण्डित न हो जाए। [३] ये जीव (मृत्युम्) = मृत्यु को (पर्वतेन) = पर्वत से (अन्तर्दधताम्) = अन्तर्हित करनेवाले हों। यह पर्वत क्या है ? [क] कोश में पर्वत का अर्थ [A kind of vegetable] 'एक प्रकार की वनस्पति' दिया है। वनस्पति विशेष के प्रयोग से दीर्घजीवन सम्भव है ही । आचार्य दयानन्द ने यजु० ३३ । ५० में पर्वत का अर्थ [ख] [पर्वाणि उत्सवा विद्यन्ते येषां ते] 'उत्साहमय जीवन' किया है। दीर्घजीवन के लिये सदा प्रसन्न रहने का महत्त्व सुव्यक्त है । [ग] ३५ । १५ में 'ज्ञानेन ब्रह्मचार्यादिना' इन शब्दों में आचार्य पर्वत का अर्थ 'ज्ञान और ब्रह्मचर्य' करते हैं । दीर्घायुष्य के ये मुख्यतम साधन हैं। ब्रह्मचर्य का दीर्घजीवन से अत्यधिक सम्बन्ध है। 'मरणं बिन्दुपातेन जीवनं बिन्दु धारणात्' इन शब्दों में 'ब्रह्मचर्य ही जीवन है और उसका अभाव मृत्यु' । एवं ब्रह्मचर्य रूप पर्वत से मृत्यु को हमें अन्तर्हित करना है । [घ] यहाँ मेरुदण्ड [रीढ़ की हड्डी] भी शरीरस्थ मेरुपर्वत ही है। इसके सीधे रखने से भी दीर्घजीवन की प्राप्ति होती है। झुककर न बैठना, सीधे बैठने का अभ्यास आवश्यक है ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम सौ वर्ष तक बड़ा क्रियाशील जीवन बितायें। ब्रह्मचर्य रूप पर्वत से मृत्यु को अपने से दूर रखें।

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    विषय

    मनुष्य की परम आयु १०० वर्ष। (

    भावार्थ

    मैं (जीवेभ्यः) जीवनधारी मनुष्यों के हितार्थ (इमं परि-धिं) इस प्राणरक्षक व्यवस्था को (दधामि) स्थापन करता हूँ। (एषां) इन जीवों में से (अपरः) कोई भी (एतम् अर्थं मा गात् नु) उस मृत्यु के मार्ग से न जावे। समस्त जीवगण (शतं शरदः) सौ बरस (पुरूची) और भी बहुत अधिक वर्ष (जीवन्तु) जीवें। और (पर्वतेन) पालन पोषणकारी उपाय से (मृत्युम् अन्तः दधताम्) प्रकोट से शत्रु के समान मृत्यु को अन्तर्हित करें, दूर करें।

    टिप्पणी

    ‘तिरो मृत्युं’ इति अथर्व (कां० १२। २। २३) गतः पाठः।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सङ्कुसुको यामायन ऋषिः॥ देवताः–१–मृत्युः ५ धाता। ३ त्वष्टा। ७—१३ पितृमेधः प्रजापतिर्वा॥ छन्द:- १, ५, ७–९ निचृत् त्रिष्टुप्। २—४, ६, १२, १३ त्रिष्टुप्। १० भुरिक् त्रिष्टुप्। ११ निचृत् पंक्तिः। १४ निचृदनुष्टुप्। चतुर्दशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (जीवेभ्यः) जीवनवद्भ्यः (इमं परिधिं दधामि) एतं पर्यावारकं प्रबन्धं नियतं करोमि, यत् (एषाम्-अपरः-एतम्-अर्थं नु मा-गात्) अध्यात्ममार्गिणां मुमुक्षूणां कश्चनान्य एतमरमणीयमनिष्टं मृत्युपथं नैव शीघ्रं गच्छेत् (पुरुचीः शतं शरदः-जीवन्तु) बहुसुखं प्राययन्तीः “बहूनि सुखान्यञ्चतीः” [ऋ०३।५८।८ दयानन्दः] शतसंख्याकाः शरदो जीवन्तु ते (पर्वतेन-अन्तर्मृत्युं दधताम्) पर्ववता पूर्णकरणसाधनवता ब्रह्मचर्येण “पर्वतेन ज्ञानेन ब्रह्मचर्येण वा” [यजु०३५।१५ दयानन्दः] मृत्युमन्तर्हितं कुर्वन्तु-क्षयं नाशं कुर्वन्तु “अन्तो वै क्षयः” [कौ०८।१] “अन्तः-नाशः” [ऋ०७।२१।६ दयानन्दः] तिरस्कुर्वन्तु वा “तिरो मृत्युं दधताम्” [अथर्व०१२।२।२३] ॥४॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    I set this border line of order for these people. May none of these trespass this into the other territory of death. May they live a long age of full hundred years, bearing though the fact of death within with adamantine walls of resistance by the discipline of health.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्मा दीर्घ जीवन इच्छिणाऱ्या मुमुक्षू लोकांसाठी निश्चित परिधी बनवितो. कोणताही मुमुक्षू त्यात राहून तात्काळ मृत्यूचा ग्रास बनत नाही. शंभर किंवा पुष्कळ वर्षांपर्यंत ते जीवित राहतात. ब्रह्मचर्यरूपी पर्वताला मृत्यू ओलांडू शकत नाही. ॥४॥

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