ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 18/ मन्त्र 5
ऋषिः - सङ्कुसुको यामायनः
देवता - धाता
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
यथाहा॑न्यनुपू॒र्वं भव॑न्ति॒ यथ॑ ऋ॒तव॑ ऋ॒तुभि॒र्यन्ति॑ सा॒धु । यथा॒ न पूर्व॒मप॑रो॒ जहा॑त्ये॒वा धा॑त॒रायूं॑षि कल्पयैषाम् ॥
स्वर सहित पद पाठयथा॑ । अहा॑नि । अ॒नु॒ऽपू॒र्वम् । भव॑न्ति । यथा॑ । ऋ॒तवः॑ । ऋ॒तुऽभिः॑ । य॒न्ति॑ । सा॒धु । यथा॑ । न । पूर्व॑म् । अप॑रः । जहा॑ति । ए॒व । धा॒तः॒ । आयूं॑षि । क॒ल्प॒य॒ । ए॒षाम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
यथाहान्यनुपूर्वं भवन्ति यथ ऋतव ऋतुभिर्यन्ति साधु । यथा न पूर्वमपरो जहात्येवा धातरायूंषि कल्पयैषाम् ॥
स्वर रहित पद पाठयथा । अहानि । अनुऽपूर्वम् । भवन्ति । यथा । ऋतवः । ऋतुऽभिः । यन्ति । साधु । यथा । न । पूर्वम् । अपरः । जहाति । एव । धातः । आयूंषि । कल्पय । एषाम् ॥ १०.१८.५
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 18; मन्त्र » 5
अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 26; मन्त्र » 5
Acknowledgment
अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 26; मन्त्र » 5
Acknowledgment
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
पदार्थ
(यथा-अहानि-अनुपूर्वं भवन्ति) जैसे दिन प्रातः से सायं पर्यन्त होकर निरन्तर दिन अर्थात् दिन-रात क्रम से चलते हैं-प्रवृत्त होते हैं (यथा-ऋतवः-ऋतुभिः साधु यन्ति) जैसे वसन्तादि ऋतुएँ परस्पर ऋतुओं के साथ क्रमशः प्रवृत्त होती हैं-चलती हैं (यथा पूर्वम्-अपरः-न जहाति) जैसे वंश में पूर्वभावी पिता आदि को पिछला पुत्र नहीं त्यागता, जिससे कि पूर्वभावी पिता आदि का पश्चात् भावी पुत्र होता है-इस प्रकार वंश-परम्परा होती है (एव धातः एषाम्-आयूंषि-कल्पय) धाता विधाता परमात्मा ! इन मुमुक्षुओं की आयु तथा जीवनों को आगे-आगे सिद्ध कर-सफल-समृद्ध कर ॥५॥
भावार्थ
जैसे दिन-रात आनुपूर्वी क्रम से निरन्तर होते रहते हैं तथा जैसे ऋतुएँ एक दूसरे क्रम से चलती रहती हैं अथवा जैसे पुर्वोत्पन्न पिता के पश्चात् पुत्र और पुत्र भावी पिता के पीछे उसका पुत्र वंश-परम्परा से होते रहते हैं, इसी प्रकार मुमुक्षुओं के जीवन भी आगे-आगे चलते रहते हैं ॥५॥
विषय
जीवन-क्रम
शब्दार्थ
(यथा) जिस प्रकार (अहानि) दिन (अनु पूर्वम्) एक-दूसरे के पीछे अनुक्रम से (भवन्ति) होते हैं (यथा) जिस प्रकार (ऋतवः ऋतुभिः साधु यन्ति) ऋतुएँ ऋतुओं के साथ एक-दूसरे के पीछे चलती हैं (यथा) जैसे (अपर:) पिछला, पीछे उत्पन्न होनेवाला (पूर्वम्) पहले को, पूर्व विद्यमान पिता आदिको (न जहाति) न छोड़े, न त्याग करे (एवा) इस प्रकार (धात:) सबको धारण-पोषण करनेवाले प्रभो ! (एषाम्) इन हमारी (आयूषि) आयुओं को (कल्पय) बनाइए ।
भावार्थ
दिन और रात्रि अनुक्रम से एक-दूसरे के पीछे आती हैं। उनका क्रम भंग नहीं होता । ऋतुएँ भी एक क्रम-विशेष के अनुसार ही आती हैं। गर्मी के पश्चात् बरसात और फिर सर्दी । इस क्रम में व्यक्तिक्रम नहीं होता । इसी प्रकार आयुमर्यादा भी ऐसी हों कि पिछला पहले को न छोड़े अर्थात् जो पहले उत्पन्न हुआ है वह पहले मरे, जो पीछे उत्पन्न हुआ है वह पीछे मरे । भाव यह है कि पुत्र पिता के पीछे आता है तो उसकी मृत्यु भी पीछे ही होनी चाहिए । पिता के समक्ष पुत्र की मृत्यु नहीं होनी चाहिए । आज दूषित खान-पान, रहन-सहन, आचार-विचार और व्यवहार के कारण हमारे जीवन मे विकार आ रहे हैं । आज पिता के समक्ष पुत्रों की और दादा के सामने पौत्रों की मृत्यु हो रही है। हमें अपने आहार-विहार आदि में परिवर्तन कर ऐसा प्रयत्न करना चाहिए जिससे पिता को पुत्र-शोक न हो ।
विषय
अर्विच्छन्न व पूर्ण जीवन
पदार्थ
[१] (यथा) = जिस प्रकार (अहानि) = दिन (अनुपूर्वम्) = अनुक्रम से (भवन्ति) = परिवृत्त होते रहते हैं, अर्थात् जैसे एक दिन के बाद दूसरा दिन आ जाता है और उससे लगा हुआ तीसरा दिन । और इस प्रकार यह दिनों का क्रम चलता ही जाता है, (एवा) = इसी प्रकार (धातः) = हे हम सब का धारण करनेवाले प्रभो ! (एषाम्) = इन मन्त्र के ऋषि 'संकुसुक यामायन' लोगों के [ कुस् to embrace] आपका आलिंगन करनेवाले संयमी पुरुषों के (आयूंषि) = जीवनों को कल्पय बनाइये। इनका जीवन भी समय से पूर्व विच्छिन्न न हो जाए। [२] (यथा) = जैसे (ऋतवः) = ऋतुएँ (ऋतुभिः) = ऋतुओं के साथ (साधु यन्ति) = उत्तमता से चलती हैं, 'वसन्त, ग्रीष्म, वर्षा, शरद्, हेमन्त व शिशिर' का क्रम अविच्छिन्न रूप से चलता जाता है, इसी प्रकार हे विधातः ! इन स्वभक्तों के जीवनों को भी आप मध्य में ही विच्छिन्न न होने दीजिये। ये अपने जीवन के प्रयाणों के चक्र को, ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ व संन्यास को पूरा कर ही पायें। [३] (यथा) = जैसे (पूर्वम्) = पूर्व काल में उत्पन्न हुए पिता को (अपरः) = अर्वाक् काल में होनेवाला सन्तान (न जहाति) = नहीं छोड़ता है, अर्थात् पिता से पूर्व ही जीवन को समाप्त करके चला नहीं जाता है, इस प्रकार हे प्रभो ! इन स्वभक्तों के जीवनों को बनाइये। पहले आनेवाला पहले ही जाए। कोई भी व्यक्ति यौवन में ही समाप्त-जीवनवाला न हो जाए। प्रभु की कृपा से प्रभु-भक्तों के जीवन अविच्छिन्न रूप से अन्ततक चलनेवाले हों और वे जीवन के चक्र को पूर्ण करके ही आयुष्य को समाप्त करनेवाले हों ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु कृपा से हमारी जीवन यात्रा मध्य में ही विच्छिन्न न हो जाए। पुत्र कभी पिता से पूर्व ही चला न जाए।
विषय
सब दीर्घजीवी हों, अल्प आयु में मृत्यु न हों।
भावार्थ
(यथा) जिस प्रकार (अहानि) दिन (अनु पूर्वं भवन्ति) एक दूसरे के पश्चात् होते हैं (यथा ऋतवः ऋतुभिः साधु यन्ति) जिस प्रकार ऋतुएं ऋतुओं का साथ एक दूसरे के पीछे बराबर जुटी २ गुजरती हैं। (यथा पूर्वम्) जिस प्रकार से पूर्व विद्यमान पिता आदि को (अपरः) आगे आने वाला पुत्र न त्याग करे (एव) इसी प्रकार हे (धातः) पालक प्रभो ! तू (एषाम् आयूंषि कल्पय) इनका दीर्घ जीवन कर। अर्थात् पुत्र पिता के जीवन काल में उसे त्याग न करें। षड्विंशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सङ्कुसुको यामायन ऋषिः॥ देवताः–१–मृत्युः ५ धाता। ३ त्वष्टा। ७—१३ पितृमेधः प्रजापतिर्वा॥ छन्द:- १, ५, ७–९ निचृत् त्रिष्टुप्। २—४, ६, १२, १३ त्रिष्टुप्। १० भुरिक् त्रिष्टुप्। ११ निचृत् पंक्तिः। १४ निचृदनुष्टुप्। चतुर्दशर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(यथा-अहानि-अनुपूर्वं भवन्ति) यथा हि दिनानि प्रातरारभ्य सायमिति यावत्, अहानि खल्वहोरात्राणि क्रमानुरोधेन प्रवर्तन्ते (यथा-ऋतवः-ऋतुभिः साधु यन्ति) यथा हि खल्वृतवो वसन्तादयः-ऋतुभिः क्रमैः सम्यक् प्रवर्तन्ते (यथा पूर्वम्-अपरः न जहाति) यथैव वंशे पूर्वभाविनं पितरमपरः पुत्रो न त्यजति यतः पूर्वं पितरमपेक्ष्य हि पुत्रो भवतीति वंशपरम्परा भवति (एव धातः-एषाम्-आयूंषि कल्पय) एषां मुमुक्षूणां जीवनानि-अग्रेऽग्रे सिद्धानि कुरु ॥५॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Just as days follow in succession, the latter following the former and the former living on in the latter, just as seasons go on by order of the seasons of the year, just as the successor does not and cannot forsake the predecessor, so in the same order, O lord ordainer and sustainer of humanity, order and sustain the life line of these people.
मराठी (1)
भावार्थ
जसे दिवस व रात्र क्रमाने निरंतर होतात व जसे ऋतू एकानंतर एक क्रमाने येतात किंवा जसे पूर्वी उत्पन्न झालेल्या पित्यानंतर पुत्र व पुत्र भावी पित्यानंतर त्याचा पुत्र वंशपरंपरेने होतात. याच प्रकारे मुमुक्षूंचे जीवनही पुढे-पुढे जात असते. ॥५॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal