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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 180 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 180/ मन्त्र 2
    ऋषिः - जयः देवता - इन्द्र: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    मृ॒गो न भी॒मः कु॑च॒रो गि॑रि॒ष्ठाः प॑रा॒वत॒ आ ज॑गन्था॒ पर॑स्याः । सृ॒कं सं॒शाय॑ प॒विमि॑न्द्र ति॒ग्मं वि शत्रू॑न्ताळ्हि॒ वि मृधो॑ नुदस्व ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मृ॒गः । न । भी॒मः । कु॒च॒रः । गि॒रि॒ऽस्थाः । प॒रा॒ऽवतः॑ । आ । ज॒ग॒न्थ॒ । पर॑स्याः । सृ॒कम् । स॒म्ऽशाय॑ । प॒विम् । इ॒न्द्र॒ । ति॒ग्मम् । वि । शत्रू॑न् । ता॒ळ्हि॒ । वि । मृधः॑ । नु॒द॒स्व॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मृगो न भीमः कुचरो गिरिष्ठाः परावत आ जगन्था परस्याः । सृकं संशाय पविमिन्द्र तिग्मं वि शत्रून्ताळ्हि वि मृधो नुदस्व ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मृगः । न । भीमः । कुचरः । गिरिऽस्थाः । पराऽवतः । आ । जगन्थ । परस्याः । सृकम् । सम्ऽशाय । पविम् । इन्द्र । तिग्मम् । वि । शत्रून् । ताळ्हि । वि । मृधः । नुदस्व ॥ १०.१८०.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 180; मन्त्र » 2
    अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 38; मन्त्र » 2
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (इन्द्र) हे राजन् ! तू (कुचरः) वक्र गति से चरणशील (गिरिष्ठाः) पर्वतस्थित (मृगः-न) सिंह के समान (भीमः) भयंकर  (परस्याः) परदिशा से (परावतः) दूर देश से (आ जगन्थ) उपयुक्त हुआ आता है (सृकम्) सरणशील (तिग्मं पविम्) तीक्ष्ण वज्र को (संशाय) तीक्ष्ण करके (शत्रून् ताळ्हि) शत्रुओं को ताड़ (मृधः) संग्रामों को (वि नुदस्व) विक्षिप्त कर परास्त कर ॥२॥

    भावार्थ

    राजा को शत्रुओं के लिए पर्वतीय सिंह की भाँति भयंकर होना चाहिये, संग्राम में किसी भी दिशा और किसी भी दूर देश से आकर फैलानेवाले तीक्ष्ण वज्र को शत्रुओं पर फैंके और संग्राम को विजय करना चाहिये ॥२॥

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    विषय

    आत्मनिरीक्षण व वासना विनाश

    पदार्थ

    [१] (मृगः) = [मृग अन्वेषणे] तू आत्मनिरीक्षण करनेवाला हो । (न भीमः) = भयंकर न हो ‘यस्मान्नोद्विजते लोक:' । (कुचरः) = भूमि पर विचरनेवाला हो, आकाश में न उड़, हवाई किले न बना । (गिरिष्ठाः) = सदा ज्ञान की वाणियों में स्थित हो, वेदवाणी के अनुसार अपना जीवन बना। (परस्याः परावतः) = दूर से दूर देश से (आजगन्थ) = तू लौटनेवाला बन । दूर-दूर भटकनेवाले इस मन को तू वशीभूत कर । [२] हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष ! (सृकम्) = वज्र को (संशाय) = तेज करके (शत्रून्) = शत्रुओं पर (विताढि) = विशेषरूप से प्रकट कर । 'सृ गतौ' से 'सृकं' शब्द बनता है, उसी प्रकार जैसे कि 'वज गतौ' से 'वज्रं'। गतिशीलता रूप वज्र से ही काम-क्रोध आदि शत्रुओं का पराभव करना होता है । 'पविम्' इस पवित्र करनेवाले गतिशीलता रूप वज्र को (तिग्मम्) = खूब तेज (संशाय) = बनाकर (मृध:) = [murder] मृत्यु की कारणभूत वासनाओं को (विनुदस्व) = परे धकेल दे।

    भावार्थ

    भावार्थ - हम आत्मनिरीक्षण करनेवाले हों, मन को विषयों से व्यावृत्त करें। क्रियाशीलता द्वारा वासनाओं को विनष्ट करें।

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    विषय

    राजा का शत्रु-विजय।

    भावार्थ

    हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! तू (भीमः मृगः न) भयंकर सिंह के समान (कु-चरः) सर्वत्र भूमि में विचरण करता हुआ और (गिरि-ष्ठाः) वाणी में स्थिर, सत्य-परायण होकर (परस्याः परावतः आ जगन्थ) दूर से दूर प्रदेश से भी आ। (सृकं पविं तिग्मम् सं शाय) वेग से जाने वाले शस्त्र को अच्छी प्रकार तीक्ष्ण कर। (शत्रून् ताढि) तेरे बल का नाश करने वालों पर तू आघात कर। तू (मृधः वि नुदस्व) संग्रामकारियों को विशेष रूप से भगा दे।

    टिप्पणी

    आततायिनमायान्तं हन्यादेवाविचारयन्। न तत्र दोषं पश्यामि मन्युस्तं मन्युमृच्छति॥ वासिष्ठधर्मसूत्रे॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिर्जयः॥ इन्द्रो देवता। छन्द:- १, २ त्रिष्टुप्। ३ विराट् त्रिष्टुप्॥ तृचं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (इन्द्र) हे राजन् ! त्वम् (कुचरः गिरिष्ठाः-मृगः-न भीमः) कुत्सितचरो वक्रगत्या चरणशीलः पर्वतस्थायी सिंह इव भयङ्करः (परस्याः परावतः-आजगन्थ) परस्या दिशः दूरदेशादपि खलूपयुक्तः सन् आगच्छसि (सृकं तिग्मं पविं संशाय) सरणशीलं तीक्ष्णं वज्रम् “पविर्वज्रनाम” [निघ० २।२०] तीक्ष्णीकृत्य (शत्रून् ताळ्हि) शत्रून् ताडय (मृधः-वि नुदस्व) संग्रामान् “मृधः संग्रामनाम” [निघ० २।१७] विक्षिप ॥२॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Terrible like a mountain lion roaming around, pray come from the farthest of far off places and, having sharpened the lazer fiery thunderbolt, destroy the enemies and throw out the violent adversaries.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    राजाने शत्रूंसाठी पर्वतीय सिंहाप्रमाणे भयंकर असले पाहिजे. युद्धात कोणत्याही दिशेला व कोणत्याही दूर देशातून तीक्ष्ण वज्र शत्रूंवर फेकावे व युद्धात विजय प्राप्त करावा. ॥२॥

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