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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 182 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 182/ मन्त्र 3
    ऋषिः - तपुर्मूर्धा बार्हस्पत्यः देवता - बृहस्पतिः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    तपु॑र्मूर्धा तपतु र॒क्षसो॒ ये ब्र॑ह्म॒द्विष॒: शर॑वे॒ हन्त॒वा उ॑ । क्षि॒पदश॑स्ति॒मप॑ दुर्म॒तिं ह॒न्नथा॑ कर॒द्यज॑मानाय॒ शं योः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तपुः॑ऽमूर्धा । त॒प॒तु॒ । र॒क्षसः॑ । ये । ब्र॒ह्म॒ऽद्विषः॑ । शर॑वे । हन्त॒वै । ऊँ॒ इति॑ । क्षि॒पत् । अश॑स्तिम् । अप॑ । दुः॒ऽम॒तिम् । ह॒न् । अथ॑ । क॒र॒त् । यज॑मानाय । शम् । योः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तपुर्मूर्धा तपतु रक्षसो ये ब्रह्मद्विष: शरवे हन्तवा उ । क्षिपदशस्तिमप दुर्मतिं हन्नथा करद्यजमानाय शं योः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तपुःऽमूर्धा । तपतु । रक्षसः । ये । ब्रह्मऽद्विषः । शरवे । हन्तवै । ऊँ इति । क्षिपत् । अशस्तिम् । अप । दुःऽमतिम् । हन् । अथ । करत् । यजमानाय । शम् । योः ॥ १०.१८२.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 182; मन्त्र » 3
    अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 40; मन्त्र » 3
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (तपुर्मूर्धा) तेजस्वी मूर्धावाला (रक्षसः) राक्षसों-दुष्टों को (तपतु) तपावे पीड़ित करे (ये ब्रह्मद्विषः) जो ब्राह्मण के प्रति द्वेष करनेवाले हैं, उनको (हन्तवै-उ) अवश्य मारने के लिए (शरवे) शरु-बाण को फैंके (क्षिपत्०) शेष पूर्ववत् ॥३॥

    भावार्थ

    तेजस्वी प्रतापी मनुष्य दुष्ट राक्षसों को तापित करे तथा ब्राह्मणों से द्वेष करनेवालों को हनन करने लिए हिंसक साधन से हिंसित करना चाहिये ॥३॥

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    विषय

    ज्ञानाविरोधी राक्षसीभावों का विनाश

    पदार्थ

    [१] (तपुर्मूर्धा) = तपस्वियों का शिरोमणि वह प्रभु (रक्षसः) = राक्षसी भावों को (तपतु) = संतप्त करे, (ये) = जो राक्षसीभाव (ब्रह्मद्विषः) = ज्ञान के विरोधी हैं। जिन राक्षसी भावों को ज्ञान से किसी प्रकार की प्रीति नहीं, उन्हें प्रभु दूर करें। उऔर इस प्रकार वे प्रभु (शरवे) = [शरुं सा० ] इस हिंसक काम [= वृत्र] के (हन्तवा) = हनन के लिये हों। राक्षसी भावों को दूर करते हुए अन्ततः हम इनके मुखिया (वृत्र) = काम को भी विनष्ट कर सकें। यह प्रार्थना 'तपुर्मूर्धा' से की गई है। स्पष्ट है कि तपस्वी बनकर ही हम इन अशुभ भावों को दूर कर सकते हैं । [२] काम को विनष्ट करके वे प्रभु (अशस्तिं क्षिपत्) = अप्रशस्त कार्यों को हमारे से दूर करें। (दुर्मतिं अप अहन्) = दुर्बुद्धि को सुदूर विनष्ट करें (अथा) = और अब (यजमानाय) = यज्ञशील पुरुष के लिये (शं योः करत्) = शान्ति को करें तथा भयों को पृथक् करें।

    भावार्थ

    भावार्थ - तपस्या के द्वारा हमारे राक्षसी भाव दूर हों तथा काम [वृत्र] का विनाश हो । सूक्त का भाव यह है कि 'बृहस्पति' का आराधन हमारी बुराइयों को दूर करे। 'नराशंस' का शंसन हमें शक्ति दे व निरभिमान करे तथा 'तपुर्मूर्धा' का आराधन हमें तपस्वी बनाये और राक्षसी भावों से दूर करे। ऐसा होने पर हम प्रशस्त प्रजाओंवाले 'प्रजावान्' होंगे तथा प्रजाओं का रक्षण करते हुए 'प्राजापत्य' कहलायेंगे। 'प्रजावान् प्राजापत्य' ही अगले सूक्त का ऋषि है-

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    विषय

    अग्रणी नेता के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    (तपुः-मूर्धा) अति तप से युक्त, शिरः स्थान, प्रमुख पद को धारण करने वाला, अग्रणी पुरुष (रक्षसः तपतु) दुष्ट जनों को पीड़ित करे। और (ये ब्रह्मद्विषः) जो ब्रह्म, ब्राह्मण, वेद, अन्न, धनादि से द्वेष करने वाले हैं उनको भी पीड़ित करे। और वह (शरवे) हिंसक जन को (हन्तवै) नाश करने के लिये (उ) भी यत्न करे। (क्षिपद्०) इत्यादि पूर्ववत्॥ इति चतुर्विंशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः तपुर्मूर्धाबार्हस्पत्यः॥ बृहस्पतिर्देवता॥ छन्दः- १ भुरिक् त्रिष्टुप्। २ विराट् त्रिष्टुप्। ३ त्रिष्टुप्। तृचं सूक्तम्।

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (तपुर्मूर्धा) तपुष्-तपो मूर्ध्नि यस्य तेजोमयमूर्धवान् (रक्षसः-तपतु) राक्षसान् दुष्टान् तापयतु (ये ब्रह्मद्विषः) ये ब्राह्मणद्वेष्टारस्तान् (हन्तवै-उ शरवे) हन्तुं शरुम् “द्वितीयार्थे चतुर्थी व्यत्ययेन” हिंसक बाणं प्रेरयत्विति शेषः (क्षिपत्०) पूर्ववत् ॥३॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    In order that hate and violence may be eliminated from the world, may the lord of blazing light and refulgent intellect put to the crucibles of trial and punishment those who are wicked destroyers of the good and who malign and oppose the divine sages. May the great lord cast away scandal, strike away evil intention, and do good to the yajamana, free him from fear and disease and bless him with good health and prosperity.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    तेजस्वी प्रतापी माणसाने दुष्ट राक्षसांना त्रस्त करावे व ब्राह्मणांचा द्वेष करणाऱ्यांचे हनन करण्यासाठी हिंसक साधनांनी हिंसित करावे. ॥३॥

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