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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 191 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 191/ मन्त्र 1
    ऋषिः - संवननः देवता - अग्निः छन्दः - विराडनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    संस॒मिद्यु॑वसे वृष॒न्नग्ने॒ विश्वा॑न्य॒र्य आ । इ॒ळस्प॒दे समि॑ध्यसे॒ स नो॒ वसू॒न्या भ॑र ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सम्ऽस॑म् । इत् । यु॒व॒से॒ । वृ॒ष॒न् । अग्ने॑ । विश्वा॑नि । अ॒र्यः । आ । इ॒ळः । प॒दे । सम् । इ॒ध्य॒से॒ । सः । नः॒ । वसू॑नि । आ । भ॒र॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    संसमिद्युवसे वृषन्नग्ने विश्वान्यर्य आ । इळस्पदे समिध्यसे स नो वसून्या भर ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सम्ऽसम् । इत् । युवसे । वृषन् । अग्ने । विश्वानि । अर्यः । आ । इळः । पदे । सम् । इध्यसे । सः । नः । वसूनि । आ । भर ॥ १०.१९१.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 191; मन्त्र » 1
    अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 49; मन्त्र » 1
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    हिन्दी (1)

    विषय

    इस सूक्त में मनुष्यों में पृथक्-पृथक् दल न होने चाहिये, सबका एक समाज, एक विचार, मन एक, समान प्रवृत्ति होवे, इत्यादि विषय हैं।

    पदार्थ

    (वृषन्) हे सुखवर्षक अग्रणायक परमात्मन् ! (अर्यः) तू स्वामी होता हुवा (विश्वानि-इत्) सब ही जड़ जङ्गम वस्तुओं को (सं सम्-आ युवसे) सम्यक् भलीभाँति संयुक्त है-सम्प्राप्त है (इळः-पदे) पृथिवी-पार्थिव देह के पद-हृदयस्थान में-या स्तुतिवाणी के पद-अध्यात्मयज्ञ में (समिध्यसे) सम्यक् प्रकाशित होता है, वह तू (नः) हमारे लिए (वसूनि) वसानेवाले धनों को (आ भर) प्राप्त करा ॥१॥

    भावार्थ

    परमात्मा सुख की वर्षा करानेवाला स्वामी है, साड़ी जड़ जङ्गम वस्तुओं को सम्प्राप्त है, वह देह के विशिष्ट स्थान हृदय में या स्तुति के स्थान आध्यात्मयज्ञ में साक्षात् होता है, तब मनुष्यों के लिये बसानेवाले धनों को प्रदान करता है ॥१॥

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अत्र सूक्ते मनुष्यैः पृथक् पृथक् दलानि न सम्पाद्यानि किन्तु सर्वेषां समाजः, एको विचारः, समानं मनः, समाना प्रवृत्तिर्भवेदित्येवं विषयाः सन्ति।

    पदार्थः

    (वृषन्-अग्ने) हे सुखवर्षक ! अग्रणायक ! परमात्मन् ! (अर्यः) त्वं स्वामी भवन् (विश्वानि इत्) सर्वाणि जडजङ्गमानि हि (सं सम् आ युवसे) सम्यक् समन्तात् सम्प्राप्तोऽसि ‘सम्’-इति द्विरुक्तिः पादपूरणे “समुपोदः पादपूरणे” [अष्टा० ८।१।६] अतः (इडः-पदे समिध्यसे) पृथिव्याः “इडा पृथिवीनाम” [निघ० १।१]  पार्थिवस्य देहस्य पदे हृदये यद्वा स्तुतिवाचः पदेऽध्यात्मयज्ञे सम्यक् दीप्यसे (सः-नः-वसूनि-आभर) स त्वमस्मभ्यं सुखस्य-वासकानि-धनानि प्रापय ॥१॥

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Agni, self-refulgent, omnipotent master, giver of the showers of Infinity, you bring together and integrate all the elements and constituents of the universe of existence and shine in the earth-vedi fire and in the eloquence of the Voice divine of Veda. Pray bless us with the wealth, honour and excellence of life in the world.

    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्मा सुखाची वृष्टी करविणारा स्वामी आहे. संपूर्ण जड व जंगम वस्तूंमध्ये भरलेला आहे. तो देहाच्या विशिष्ट स्थानी अर्थात हृदयात किंवा स्तुतीचे स्थान असलेल्या अध्यात्मयज्ञात साक्षात होतो. तेव्हा माणसांना धन प्रदान करतो. ॥१॥

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