ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 27/ मन्त्र 24
ऋषिः - वसुक्र ऐन्द्रः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
सा ते॑ जी॒वातु॑रु॒त तस्य॑ विद्धि॒ मा स्मै॑ता॒दृगप॑ गूहः सम॒र्ये । आ॒विः स्व॑: कृणु॒ते गूह॑ते बु॒सं स पा॒दुर॑स्य नि॒र्णिजो॒ न मु॑च्यते ॥
स्वर सहित पद पाठसा । ते॒ । जी॒वातुः॑ । उ॒त । तस्य॑ । वि॒द्धि॒ । मा । स्म॒ । ए॒ता॒दृक् । अप॑ । गू॒हः॒ । स॒म॒र्ये । आ॒विः । स्वरिति॑ स्वः॑ । कृ॒णु॒ते । गूह॑ते । बु॒सम् । सः । पा॒दुः । अ॒स्य॒ । निः॒ऽनिजः॑ । न । मु॒च्य॒ते॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
सा ते जीवातुरुत तस्य विद्धि मा स्मैतादृगप गूहः समर्ये । आविः स्व: कृणुते गूहते बुसं स पादुरस्य निर्णिजो न मुच्यते ॥
स्वर रहित पद पाठसा । ते । जीवातुः । उत । तस्य । विद्धि । मा । स्म । एतादृक् । अप । गूहः । समर्ये । आविः । स्व१रिति स्वः । कृणुते । गूहते । बुसम् । सः । पादुः । अस्य । निःऽनिजः । न । मुच्यते ॥ १०.२७.२४
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 27; मन्त्र » 24
अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 19; मन्त्र » 4
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अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 19; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(ते) हे प्राणधारी मनुष्य ! तेरे (सा जीवातुः) वह पूर्वोक्त देवतात्रयी-सूर्य, वायु, मेघरूप जीवन धारण करानेवाली है (उत) अपितु (तस्य विद्धि) जिस परमात्मा की ऐसी वह शक्ति है, उसको तू जान (समर्ये) स्वजीवनसङ्ग्राम में या स्वजीवन-संघर्षमार्ग में (मा स्म) न कभी (एतादृक्-अप गूह) ऐसे ही मत गँवा (स्वः-आविः-कृणुते) वह परमात्मा तेरे लिये जीवनसुख को प्रकाशित करता है (बुसं गूहते) आकाशीय जल को मेघरूप में बनाता है (अस्य निर्णिजः) इस शोधक-पवित्र परमात्मा का (पादुः-न मुच्यते) व्यवहार क्षीण नहीं होता है ॥२४॥
भावार्थ
सूर्य, वायु और मेघ प्राणधारी को जीवन देनेवाले हैं। जिस परमात्मा ने ये रचे हैं, उसे जानना चाहिये। जीवनयात्रा या जीवनसंग्राम में उसे भूलना न चाहिये, वह जीवन के सुख को प्रकाशित करता है। उसका पालन आदि व्यवहार क्षीण नहीं होता है ॥२४॥
विषय
जीवनौषध
पदार्थ
[१] (सा) = गत मन्त्र में वर्णित वीर्य की ऊर्ध्वगति ही (ते जीवातुः) = तेरी जीवनौषध है। (उत) = और (तस्य विद्धि) = उसको तू अच्छी तरह जान, अर्थात् वीर्य की ऊर्ध्वगति के महत्त्व को तू अच्छी तरह समझ ले । [२] (एतादृग्) = ऐसा तू वीर्य-रक्षा के महत्त्व को समझनेवाला तू (अर्ये) = उस संसार के स्वामी प्रभु में (मा स्म) = मत (सं अपगूहः) = अपने को संवृत कर [ गूह संवरणे], अर्थात् प्रभु से अपने को छिपाने की कोशिश मत कर। प्रभु के सदा सामने रह । [३] यह सदा प्रभु के सामने रहनेवाला व्यक्ति (स्वः) = आत्म- प्रकाश को, सुख को (आविः कृणुते) = प्रकट करता है। इसका जीवन प्रकाशमय व सुखमय होता है। यह (बुसं गूहते) = यह रेतस् के रूप में रहनेवाले अप् तत्त्व को अपने में संवृत व सुरक्षित करता है। [४] (अस्य निर्णिजः) = इस अपने जीवन को शुद्ध करनेवाले का (स पादुः) = वह आचरण [पद गतौ-चर गतौ] (न मुच्यते) = कभी इससे छूटता नहीं, यह सदा अपने जीवन में प्रभु का स्मरण करता है और वीर्यरक्षा पर बल देता है ।
भावार्थ
भावार्थ- वीर्यरक्षा ही जीवनौषध है, इसके लिये प्रभु का अविस्मरण आवश्यक है। सूक्त का प्रारम्भ इन शब्दों से हुआ है कि हम सुन्नन् यजमान बनें। [१] अदेवयु पुरुष परस्पर लड़कर नष्ट हो जाते हैं, [२] भौतिकता के साथ युद्ध जुड़े हुए हैं, [३] ऐश्वर्यों का यज्ञों में विनियोग करनेवालों का प्रभु रक्षण करते हैं, [४] प्रभु की व्यवस्था को कोई रोक नहीं सकता, [५] शराबियों पर प्रभु का वज्रपात होता है, [६] वे सर्वव्यापक प्रभु हमारे शत्रुओं का नाश करनेवाले हैं, [७] इन्द्रियाँ गौवें हैं और मन ग्वाला व आत्मा स्वामी है, [८] इस चित्त को काबू करनेवाला योगी सारे संसार को अपना परिवार समझता है, [९] योगी एकत्व को देखता है तो भोगी प्रभु को भूल जाता है, [१०] हम कभी प्राकृतिक पदार्थों का अतियोग न करें, [११] प्रकृति को हम अपना मित्र बनाएँ न कि पत्नी, [१२] इस बात को न भूलें कि नम्रता से ही उन्नति होती है, [१३] वेदवाणी अपने ज्ञानदुग्ध से हमारे जीवन का सुन्दर पोषण करती है, [१४] हमारा प्रयत्न यह हो कि हम दशम दशक से पूर्व ही काम के वेग को जीत लें, [१५] प्रभु व प्रकृति को अपना पिता व माता जानें, [१६] प्राणसाधना द्वारा शरीर आदि का ठीक परिपाक करें, [१७] प्रभु स्मरण पूर्वक कर्मों में लगे रहें, [१८] प्रभु सद्गृहस्थों को प्राप्त होते हैं, [१९] इस प्रभु की महिमा समुद्र जल, सूर्य व मेघ में होती है, [२०] कर्म ज्ञान व उपासना का समन्वय ही हमें तरायेगा, [२१] प्रत्येक शरीर में वेदवाणी रूप गौ बद्ध है, [२२] उसके द्वारा हम ज्ञान प्राप्ति में सर्वप्रथम हों, [२३] वीर्यरक्षा को ही जीवनौषध समझें, [२४] हमारा यही प्रयत्न हो कि हमारे जीवन में वासनाओं की प्रबलता न होकर प्रभु का आगमन हो ।
विषय
प्रभु की प्राणदात्री शक्ति। सर्वज्ञ और मुक्तिदाता प्रभु।
भावार्थ
हे प्रभो ! परमात्मन् ! (ते) तेरी ही (सा जीवातुः) वह प्राणदात्री जीवनदायक शक्ति है (उत) और तू ही (तस्य विद्धि) उस जीव जगत् को जानता है। (स-मर्ये) मरणधर्मा प्राणियों से युक्त लोक के निमित्त तू (एतादृग्) ऐसे अपने प्राणदायक स्वरूप को (मा अपगूहः स्म) मत छिपा। हे मनुष्य ! (अस्य निर्णिजः) इस विशुद्ध तत्व का (सः पादुः) वह ज्ञानमय, चेतनामय स्वरूप (न मुच्यते) कभी नहीं समाप्त होता है, वह (स्वः आविः कृणुते) अपना प्रकाश और ताप, प्रकट करता है और (बुसं गूहते) जल को जिस प्रकार सूर्य वाष्परूप से भूतल से ले लेता है उसी प्रकार प्रभु भी अपने (स्वः) तेजोमय ज्ञान को प्रकट करता है, (बुसं गृहते) कर्म बन्धन को नष्ट कर देता है। इस प्रकार उस प्रभु का (सः) वह (पादुः) ज्ञान-प्रकाश व्यापार कभी समाप्त नहीं होता। इत्येकोनविंशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसुक्र ऐन्द्र ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्द:- १, ५, ८, १०, १४, २२ त्रिष्टुप्। २, ९, १६, १८ विराट् त्रिष्टुप्। ३, ४, ११, १२, १५, १९–२१, २३ निचृत् त्रिष्टुप्। ६, ७, १३, १७ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। २४ भुरिक् त्रिष्टुप्। चतुर्विंशत्यृचं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(ते) हे प्राणधारिन् मनुष्य ! तव (सा जीवातुः) सा पूर्वोक्ता देवतात्रयी सूर्यवायुपर्जन्यरूपा जीवनधारिका शक्तिरस्ति (उत) अपि (तस्य विद्धि) यस्य परमात्मनः सा शक्तिस्तं परमात्मानं त्वं जानीहि (समर्ये) स्वजीवनसङ्गते स्वजीवन-संघर्षमार्गे वा (मा स्म) न कदापि (एतादृक्-अप गूहः) एतादृशीमपवारय दूरं कुरु (स्वः आविः कृणुते) स परमात्मा तवार्थं स्वः-जीवनसुखं प्रकाशीकरोति (बुसं गूहते) आकाशीयमुदकं गूढं मेघरूपं करोति “बुसमुदकनाम” [निघ० १।१२] (अस्य निर्णिजः) अस्य शोधयितुः परमात्मनः (पादुः न मुच्यते) व्यवहारो न हीयते ॥२४॥
इंग्लिश (1)
Meaning
That, O man, is your life line, the trinity of sun, air and water, Know it, and know that divine Indra. It’s all his. In the serious holy business of living, forget it not, nor let life slip away. Indra creates and opens out the bliss of life, consumes the waste to create further, and this evolutionary cyclic process of the life giver never ends, it continues.
मराठी (1)
भावार्थ
सूर्य, वायू व मेघ प्राणधाऱ्यांना जीवन देणारे आहेत. ज्या परमात्म्याने हे निर्माण केलेले आहेत त्याला जाणले पाहिजे. जीवनयात्रा किंवा जीवनसंग्रामात त्याला विसरता कामा नये. तो जीवनाचे सुख देतो. त्याचा पालन इत्यादी व्यवहार क्षीण होत नाही. ॥२४॥
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