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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 28 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 28/ मन्त्र 5
    ऋषिः - इन्द्रवसुक्रयोः संवाद ऐन्द्रः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    क॒था त॑ ए॒तद॒हमा चि॑केतं॒ गृत्स॑स्य॒ पाक॑स्त॒वसो॑ मनी॒षाम् । त्वं नो॑ वि॒द्वाँ ऋ॑तु॒था वि वो॑चो॒ यमर्धं॑ ते मघवन्क्षे॒म्या धूः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    क॒था । ते॒ । ए॒तत् । अ॒हम् । आ । चि॒के॒त॒म् । गृत्स॑स्य । पाकः॑ । त॒वसः॑ । म॒नी॒षाम् । त्वम् । नः॒ । वि॒द्वान् । ऋ॒तु॒ऽथा । वि । वो॒चः॒ । यम् । अर्ध॑म् । ते॒ । म॒घ॒ऽव॒न् । क्षे॒म्या । धूः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    कथा त एतदहमा चिकेतं गृत्सस्य पाकस्तवसो मनीषाम् । त्वं नो विद्वाँ ऋतुथा वि वोचो यमर्धं ते मघवन्क्षेम्या धूः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    कथा । ते । एतत् । अहम् । आ । चिकेतम् । गृत्सस्य । पाकः । तवसः । मनीषाम् । त्वम् । नः । विद्वान् । ऋतुऽथा । वि । वोचः । यम् । अर्धम् । ते । मघऽवन् । क्षेम्या । धूः ॥ १०.२८.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 28; मन्त्र » 5
    अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 20; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (ते गृत्सस्य तवसः-मनीषाम्) तुझ मेधावी बलवान् आत्मा या राजमन्त्री की बुद्धि को (अहं पाकः कथा-एतत्-आ चिकेतम्) मैं तेरे द्वारा पोषणीय प्राण या राज्यमन्त्री इस को कैसे जान सकूँ (त्वं विद्वान् नः-ऋतुथा वोचः) हे आत्मा या राजन् ! तू  मुझे समय-समय पर कह-सुझा (मघवन्) स्वामिन् ! (ते यम्-अर्धं क्षेम्या धूः) तेरे जो अंश-आत्मशक्ति या राजशक्ति धारणीया है, उसे भी हमारे लिए जना-समझा ॥५॥

    भावार्थ

    आत्मा द्वारा प्राण पोषणीय है। समय-समय पर अपनी ज्ञानचेतना से वह उस प्राण की रक्षा करता है, अपनी चेतनाशक्ति से चेताता है तथा राजा के द्वारा राजमन्त्री रक्षणीय है। वह समय-समय पर उसे आदेश देता रहे और जो उसकी शासनशक्ति है, उससे भी अवगत रहे ॥५॥

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    विषय

    प्रभु का मैं 'पाक' हूँ प्र और उसका 'पाक'

    पदार्थ

    [१] गत मन्त्र में प्रभु सम्पर्क से होनेवाले अद्भुत परिणाम का उल्लेख था । प्रस्तुत मन्त्र में जीव कहता है कि हे इन्द्र ! (ते) = आपके (एतत्) = इस अद्भुत बल को (अहम्) = मैं (कथम्) = कैसे (आचिकेतम्) = जान पाऊँ, मैं कैसे इसे अपने जीवन में अनुभव कर पाऊँ ? क्रियात्मक बात तो यही है कि मैं आपकी उस शक्ति को अपने जीवन में देखनेवाला बनूँ। [२] (गृत्सस्य) = मेधावी, गुरु, गुरुओं के भी गुरु, (तवसः) = शक्ति के दृष्टिकोण से अत्यन्त बढ़े हुए आपका मैं (पाकः) = बच्चा ही तो हूँ । आपके द्वारा ही मैं (परिपक्तव्य) = प्रज्ञावाला हूँ । आपने ही मेरा परिपाक करना है। [३] हमारे परिपाक के लिये ही (त्वम्) = आप (विद्वान्) = हमारी शक्ति व स्थिति को जानते हुए (ऋतुथा) = समयानुसार (नः) = हमें (मनीषाम्) = बुद्धि को, बुद्धिगम्य ज्ञान को (विवोचः) = विशेषरूप से कहते हैं। इस ज्ञान के द्वारा ही तो आपने हमारा परिपाक करना है। [४] आप तो ज्ञान देते हैं, परन्तु हम उस ज्ञान को पूरी तरह से ग्रहण नहीं कर पाते, परन्तु हे (मघवन्) = सम्पूर्ण ऐश्वर्यों के स्वामिन् प्रभो ! हम (ते) = आपके (यं अर्धम्) = जिस आधे भी ज्ञान को ग्रहण करते हैं, वह ही हमारे लिये (क्षेम्या) = अत्यन्त कल्याणकर (धू:) = wealth = सम्पत्ति होता है। इस ज्ञान का थोड़ा भी अंश हमारा कल्याण करता है । जितना भी अधिक इसे हम अपनाएँगे, उतना ही यह हमारे लिये अधिकाधिक कल्याणकर होगा ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम प्रभु के पाक-सन्तान हैं । प्रभु हमें ज्ञान देते हैं । उस ज्ञान को हम जितना अपनाएँगे उतने ही कल्याण को भी प्राप्त करेंगे।

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    विषय

    प्रभु का अगम्य रूप और मङ्गलजनक उपदेश।

    भावार्थ

    हे प्रभो ! हे विद्वन् ! (गृत्सस्य) विद्वान्, मेधावी, स्तुत्य और (तवसः) सर्वशक्तिमान् (ते मनीषाम्) तेरे मन की इच्छा और (एतत्) इस सब को (कथा अहम् आ चिकेतम्) मैं किस प्रकार जान सकता हूं। (त्वं) तू ही (विद्वान्) सर्वज्ञ (नः) हमें गुरुवत् (ऋतु-था) समय २ पर (वि वोचः) विशेष रूप से उपदेश करता है। हे (मघवन्) पूज्य ऐश्वर्यवन् ! तू (यम् अर्धं) जिस अंश को (वि वोचः) विशेष रूप से उपदेश करता है वही (क्षेम्याः धूः) रक्षणकारी और धारण करने में समर्थ आश्रयवत् होता है। तेरा प्रत्येक उपदेशांश हमारा मङ्गल-जनक होता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    इन्द्रवसुक्रयोः संवादः। ऐन्द्र ऋषिः। इन्द्रो देवता॥ छन्द:- १,२,७,८,१२ निचृत् त्रिष्टुप्। ३, ६ त्रिष्टुप्। ४, ५, १० विराट् त्रिष्टुप् । ९, ११ पादनिचृत् त्रिष्टुप्॥ द्वादशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (ते गृत्सस्य तवसः-मनीषाम्) मेधाविनो बलवतस्तव-आत्मनः-राज्ञो वा मनीषां प्रज्ञां “मनीषया……प्रज्ञया” [निरु० २।२५] (अहं पाकः कथा एतत्-आचिकेतम्) अहं पक्तव्यस्त्वया पोष्यः प्राणो राज्यमन्त्री वा-एतत् कथं समन्ताद् विजानीयाम् (त्वं विद्वान् नः-ऋतुथा वोचः) त्वं हे आत्मन् ! राजन् ! वा मां समये समये कथय ज्ञापय-ज्ञापयसि (मघवन्) हे सर्वस्वामिन् ! (ते यम्-अर्धं क्षेम्या धूः) तवांशमात्मशक्तिं राजशक्तिं वा क्षेमे भवा क्षेमकरी धूर्धारणीयाऽस्ति सा धारणीया तामपि वोचः कथय ॥५॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O lord of wealth and power, all knowing all watching ruler of the world, Indra, how would I, a simple man, understand and know this mysterious ground power and policy of yours, wise and versatile master of the mighty order. O lord, you alone know, you alone can enlighten us about the admirable basis and direction of your policy of peace and progress of humanity according to the time and season.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    प्राण आत्म्याद्वारे पोषणीय आहे. आपल्या ज्ञानचेतनने तो त्या प्राणाचे रक्षण करतो. आपल्या चेतनाशक्तीने चेतवितो व राजाद्वारे राजमंत्री रक्षणीय असतो. त्याने (राजाने) वेळोवेळी त्याला आदेश देत राहावे व जी त्याची शासन शक्ती आहे. त्यांना तीही अवगत करवावी. ॥५॥

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